TRENDING TAGS :
होली विशेष: वैचारिक कलुष जलाएं, प्रेम व सद्भाव के रंग लगाएं
रसो वै स:" भारतीय मनीषा ने जीवन को इसी रूप में परिभाषित किया है। इसीलिए हमारा भारत पर्वों का देश माना जाता है। एक और खास बात यह है कि हमारा प्रत्येक पर्व विशेष खगोलीय घटना पर आधारित है।
पूनम नेगी
लखनऊ : "रसो वै स:" भारतीय मनीषा ने जीवन को इसी रूप में परिभाषित किया है। इसीलिए हमारा भारत पर्वों का देश माना जाता है। एक और खास बात यह है कि हमारा प्रत्येक पर्व विशेष खगोलीय घटना पर आधारित है।
ज्योतिषीय मान्यता के अनुसार जब सूर्य, चंद्मार एवं पृथ्वी किसी विशेष अंशात्मक स्थिति में आकर कोई कोण बनाते हैं तो वह मुहूर्त किसी न किसी पर्व का निर्धारण करता हैं और भारतीय जन इन पर्वों को भक्तिरस में डूबकर हर्षोल्लास से मनाते हैं। जब सूर्य कुम्भ राशि में एवं चंद्रमा सिंह राशि में होकर 180 डिग्री के कोण पर आमने-सामने पड़ते हैं तो होली का पर्व मनाया जाता है।
वैज्ञानिक कारणों से भी है विधान
आज कुछ लोग वासंती उल्लास में रसे-पगे हर्षोल्लास के इस पर्व को समय की बर्बादी और फूहड़ त्योहार कहकर मुंह मोड़ लेते हैं। मगर उनकी यह सोच उचित नहीं कही जा सकती। होली के पर्व के बारे में वैज्ञानिक आध्यात्म के प्रणेता आचार्य श्रीराम शर्मा का कहना है कि हमें अपने पूर्वजों का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उन्होंने वैज्ञानिक दृष्टि से बेहद उचित समय पर होली का त्योहार मनाने का विधान बनाया। होली के पर्व का दर्शन पूर्ण रूप से वैज्ञानिक है। इस अवधि शीत और ग्रीष्म की संधिबेला में वसंत ऋतु में पड़ने वाले इस पर्व के दौरान मौसम बदलने के कारण चेचक, हैजा, खसरा आदि संक्रामक रोगों की आशंका बढ़ जाती है। होलिका दहन को इन संक्रामक रोगों के जीवाणुओं को वायुमण्डल में ही भस्म कर देने के सामूहिक अभियान के रूप में देखा जा सकता है।
बदलेगा दृष्टिकोण
देशभर में वृहद स्तर पर होलिका जलाने से वायुमंडलीय कीटाणु जलकर भस्म हो जाते हैं, क्योंकि प्रत्येक ग्राम और नगर में होली की अग्नि जलाने की परंपरा है। जलती होलिका की प्रदक्षिणा करने से हमारे शरीर में कम से कम 140 फारेनहाइट डिग्री गर्मी प्रविष्ट होती है। जिससे अनेक प्रकार के कीटाणुओं का प्रभाव हम पर नहीं हो पाता बल्कि हमारे अंदर आ चुकी उष्णता से वे स्वयं नष्ट हो जाते हैं। लोग यदि इसके वैज्ञानिक कारणों को जान लेंगे तो इसे फूहड़ों का पर्व मानने का उनका दृष्टिकोण बदल जाएगा। मगर, खेद का विषय है कि अत्याधुनिकता की चादर ओढ़े शहरी लोगों की एक बड़ी जमात इस परंपरा से दूर होती जा रही है।
लोगों तक करें प्रसार
जाड़े की समाप्ति के समय प्राय: शरीर में चर्मरोगों का प्रकोप हो जाता है। इस बात से भिज्ञ हमारे आयुर्वेद शास्त्रियों ने होली में पलाश (ढाक, टेशू) के फूल के अर्क को निकालकर उसे शरीर पर डालने और सरसो के उबटन से शरीर को मालिश करने की परम्परा विकसित की थी। इनके लाभ आज प्रयोगों से प्रमाणित हो चुके हैं कि तक पलाश के पुष्प का अर्क चर्मरोगों के लिए कारगर औषधि होता है मगर अब वे फूल गायब हो चुके हैं और उनका स्थान भी अब रासायनिक रंग ले चुके हैं। इसी तरह होली पर होने वाले फाग आदि पारंपरिक लोक गीत-संगीत की जगह शराब में डूबी डांस पार्टियों ने ले ली है। ऐसे में युग की मांग है कि प्रत्येक जागरूक व राष्ट्रनिष्ठ नागरिक को अपने इन पावन पर्वों की वैज्ञानिकता को जाने, समझे व जन-जन तक प्रसारित करें।
सारी समस्याओं का करता है निदान
होली एक ऐसा त्योहार है, जिसका धार्मिक ही नहीं बल्कि सांस्कृतिक दृष्टि से भी विशेष महत्व है। इस अवसर पर रंग, गुलाल डालकर अपने इष्ट मित्रों, प्रियजनों को रंगीन माहौल से सराबोर करने का यह उत्सव प्रसन्नता को मिल-बांटने का एक अपूर्व अवसर होता है। हमारी संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है कि यहां पर मनाए जाने वाले सभी त्योहार समाज में मानवीय गुणों को स्थापित करके लोगों में प्रेम, एकता एवं सद्भावना को बढ़ाते हैं। मानवीय गरिमा को समृद्धि प्रदान करते हैं। यही कारण है कि भारत में मनाए जाने वाले त्योहारों एवं उत्सवों में सभी धर्मों के लोग मिलजुल कर मनाते हैं। इस दृष्टि से होली का पर्व मात्र एक परंपरागत उत्सव नहीं, वरन जीवन का मनोविज्ञान है। इस पर्व का सामाजिक दर्शन अपने आप में अनूठा है जिसे यदि भलीभांति समझ लिया जाए तो मानव जीवन की आधी उलझन, समस्याएं और उहापोह का निराकरण स्वयं ही हो जाएगा।
श्री श्री रविशंकर जी के अनुसार होली का सर्वश्रेष्ठ अर्थ इसके अक्षर विन्यास में ही सन्निहित है - होली अर्थात हो उ अ ली यानी जो हो गया, जो बीत गया.. अच्छा या बुरा, उचित या अनुचित; उस बात को छोड़ दो, ढोते न रहो, छोड़ने का तात्पर्य मात्र यह है कि उससे उत्पन्न निराशा और अवसाद- विषाद को कंधे पर लादे न रहो, मन -मष्तिस्क पर बोझ न बनाओ। घटना के मूल में स्वयं की सहभागिता ढूंढो और यदि उसमे कोई त्रुटि हो और संशोधन की सम्भावना हो तो बेहिचक करो। अपना निरीक्षक - परीक्षक स्वयं बनो। आधी समस्या का समाधान तो इस प्राथमिक स्तर पर ही हो जाएगा और मात्र इतने से ही शेष आधी समस्या हल करने के लिए एक सार्थक और समुचित मार्ग मिल जाएगा। बशर्ते परीक्षक की भूमिका बिना पक्षपात, पूरी ईमानदारी और सत्यनिष्ठा के साथ निभाई गई हो। निज के स्तर पर प्रारंभ हुआ यह परिष्कार, प्रकारांतर से सामाजिक परिष्कार और राष्ट्र की अंतर्शक्ति सुदृढ़ कर उसे अंतर्राष्ट्रीय मॉडल के रूप में विकसित किया जा सकता है।
क्या है होलिका दहन
प्रख्यात मोटिवेशनल ओरेटर सिस्टर शिवानी होलिका दहन और रंग-गुलाल प्रक्षेपण की सुंदर व्याख्या करती हैं। उनके अनुसार होलिका न तो कोई स्त्री प्रतीक है, न पुरुष प्रतीक, वरन यह हमारी स्वयं की अपनी आतंरिक वृत्ति "बुराई" है, जिसको हमें दहन करना है। विकृति और बुराई को अंकुरित होते ही, पनपते ही नष्ट कर डालना दैनिक साधना और आत्म संस्कार का उद्देश्य है। यह भाव भीतर का मनोमालिन्य को धो डालता है। सामूहिक बुराइयों का दहन सामूहिक रूप से हो और सभी के समक्ष हो, यही है - "होलिका दहन"।
होती है अच्छाई की शुरूआत
यदि हम प्रचलित प्रासंगिक कहानी की बात करें तो अग्नि सुरक्षा कवच धारण करने वाली "होलिका" अग्नि के प्रकोप से बच नहीं पाई, क्यों? विचारणीय बिंदु है। सत्य औऱ लोकमंगल के विरूद्ध, पाप वृत्तियां, अनाचार - भ्रष्टाचार चाहे कितने भी सुरक्षा प्रबंध करें, अंतत: भेद खुल ही जाएगा और दोषी को परास्त होना ही पड़ेगा। "होलिका - दहन" ध्वंसात्मक और नकारात्मक वृत्तियों की हार और "प्रह्लाद" की सुरक्षा , सत्य तथा सृजनात्मक वृत्ति, लोकमंगल की विजय है, इस होली पर्व का तत्व-दर्शन है, इसे ही समझने की आवश्यकता है। बुराइयों के उन्मूलन के पश्चात, अच्छाइयों की शुरुआत अपने आप होने लगती है। होलिका के प्रतीक लकड़ियों के ढेर में आग लगते ही हम आप हर्षोल्लास व्यक्त करते हैं क्योंकि अच्छाइयों और सदगुणों की प्रचंड आंधी से हमारे दिल - दिमाग के कपाट खुल जाते हैं। हम प्रत्येक व्यक्ति से, छोटा हो या बड़ा, बच्चा हो या बूढ़ा, गले से लिपट जाते हैं, रंग - गुलाल लगाते हैं। स्नेह और सद्भाव के रंग में भीगकर दूसरे को भी सराबोर कर देना, सद्भाव में डूब जाना ही होली है।
भेदभाव को मिटाने का पर्व
यह होली हमारी प्रतिदिन दैनिक निजी -साधना में होनी चाहिए, इस पर्व में परिष्कार है, उल्लास व उमंग है। इस उल्लास, परिष्कार व उमंग को तन, मन व आचरण में संचित कर लेना ही इसकी सफलता है। यही इस पर्व का निहितार्थ, यही इसका सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पक्ष है। आपसी मनोमालिन्य दूर कर प्रेम - सौहार्द को शुभारम्भ कर उसे परिपुष्ट करने के सामूहिक शुभदिवस का नाम है "होली"। मानव को अपने अन्दर की मानवता को विकसित करने के लिए होली से बड़ा कोई पर्व हो ही नहीं सकता ! यह किसी एक समुदाय का पर्व नहीं वरन समूचे मानव समुदाय का, मानव जाति का पर्व है। इस पर्व पर भौंडेपन से, कुरीतियों से, अमर्यादित भाषा प्रयोग से बचें, अन्दर की विकृतियां निकाल बाहर करें। विकृतियों के बहिर्गमन से रिक्त जगह में सभ्यता और संस्कृति का वास होगा। विरोधियो और शत्रुओं को स्नेह और सद्भाव के रंग में इतना रंग दो कि वह बाहर से ही नहीं, अंदर से भी रंगीन हो जाये और विरोध का स्वर भूलकर सहयोग का जाप करने लगे। शत्रु को मित्र बना लेने की कला ही इस पर्व की सार्थकता है, यही इस पर्व की पराकाष्ठा भी है।
इस होली के पावन पर्व में हुडदंग के साथ-साथ अश्लीलता भी अपनी जडें जमा लीं हैं। मगर गौर करने वाली बात है कि अब जब हम होली का निहितार्थ जान गए हैं तो फिर इसमें फूहड़ता और अश्लीलता का क्या काम! जिस तरह कपड़े गंदे होने पर हम उन्हें साफ करते हैं, गन्दे मकान व दुकान की मरम्मत और रंगाई - पुताई करते हैं तो फिर फूहड़ता व विकृतियों को निकाल फेंकने में संकोच क्यों? आइये, एक सत्साहस भरा संकल्प लें "हम होली मनाएंगे, खूब जमकर मनाएंगे मगर कलुष-कषाय-कल्मश और बुराइयों की होलिका जलाकर विकृतियों, फूहड़पन, हुडदंग और अश्लीलता को दूरकर प्रेम व सद्भाव के रंगों के साथ।