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महावीर जयंती पर विशेष: धरती का सबसे बड़ा खतरा है इंसान, पर जो अहिंसक है, वही मानव है

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Published on: 8 April 2017 4:18 PM IST
महावीर जयंती पर विशेष: धरती का सबसे बड़ा खतरा है इंसान, पर जो अहिंसक है, वही मानव है
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पूनम नेगी

लखनऊ: संसार के प्रत्येक जीव में एक ही आत्मा निवास करती है। इसलिए हमें दूसरों के प्रति वही विचार व व्यवहार रखना चाहिए, जो हम खुद के प्रति चाहते हैं। यही ही उनका "जियो और जीने दो" का मंत्र जो वर्तमान परिस्थितियों में पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक है। जीव हत्या को जैन धर्म में पाप माना गया है। गौरतलब हो कि इंसानी लालच और स्वार्थ के कारण जीव-जंतुओं की हजारों प्रजातियां आज लुप्त हो चुकी हैं और अनेक पर संकट गहरा रहा है।

यदि मानव इसी तरह जीव-जंतुओं और वृक्ष-वनस्पतियों का विनाश करता रहेगा, तो एक दिन न दुनिया बचेगी और न मानव समाज। तीर्थकर महावीर का दर्शन है कि यह संपूर्ण जगत आत्मा का ही खेल है। वृक्षों में भी महसूस करने और समझने की क्षमता होती है। यह बात आज पर्यावरण और जीव विज्ञानियों की शोधों से भी हो चुकी है।

देशकाल की तदयुगीन परिस्थितियों के अनुरूप समाज में व्याप्त कुरीतियों का निराकरण कर महावीर स्वामी ने एक स्वस्थ समाज की संरचना की। मानव समाज को अंधकार से प्रकाश की ओर लाने वाले इस महापुरुष का जन्म करीब ढ़ाई हजार साल पहले (599 ई पूर्व) चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि को बिहार में लिच्छिवी वंश के महाराज श्री सिद्धार्थ और महारानी त्रिशिला के पुत्ररूप में हुआ। राजवैभव में पले-बढ़े क्षत्रीय राजकुमार के हृदय में मानवीयता, सहृदयता व संवेदना के अंकुर बाल्यावस्था से फूटने लगे थे। होश संभालते ही उन्होंने खुद को विषम परिस्थितियों से घिरा पाया।

उनके युग में धर्म का मानवीय स्वरूप विद्रूप हो चुका था। राज पुरोहित व धर्माचार्य पूर्णत: स्वेच्छाचारी हो गए थे और आम जनता इनके बीच पिस कर बुरी तरह कष्ट पा रही थी। यह सब देख कर राजपुत्र वर्धमान का भावनाशील मन कराह उठा। मगर जीवन लक्ष्य की साधना का सुअवसर उन्हें पिता की मृत्यु के उपरान्त 30 वर्ष की आयु में मिला। गृह त्यागकर बारह वर्षों तक कठोर तप साधना के बाद कैवल्य (परम ज्ञान) की प्राप्ति के बाद राजकुमार वर्धमान जैन धर्म के 24 वें तीर्थकर महावीर स्वामी के रूप में प्रतिष्ठित हुए।

गौरतलब हो कि मांसाहारी लोग यह तर्क देते हैं कि यदि मांस नहीं खाएंगे, तो धरती पर दूसरे प्राणियों की संख्या इतनी बढ़ जाएगी कि वे मानव के लिए ही खतरा बन जाएंगे। लेकिन क्या उन्होंने कभी यह सोचा है कि मानव के कारण आज कितनी प्रजातियां लुप्त हो गयी हैं। धरती पर सबसे बड़ा खतरा तो मानव ही है; जो शेर, सियार, बाज, चील जैसे सभी विशुद्ध मांसाहारी जीवों के हिस्से का मांस खा जाता है जबकि उसके लिए तो भोजन के और भी साधन हैं जबकि इसी कारण जंगल के जानवर भूखे मर रहे हैं। दूसरी बात यह कि आज पर्यावरण प्रदूषण का खतरा जिस तरह गहराता जा रहा है, उसका मूल में है प्राकृतिक ताने-बाने का विनाश।

कारण यह है कि हम पहाड़ों एवं वृक्षों को काटकर करते जा रहे हैं। यदि जल्द ही न चेते तो वह दिन दूर नहीं जब मानव को कंक्रीट के जंगलों का विस्तार में और रेगिस्तान की चिलचिलाती धूप में प्यासा मरना होगा। जंगलों से हमारा मौसम नियंत्रित और संचालित होता है। जंगल की ठंडी आबोहवा नहीं होगी तो सोचो धरती किस तरह आग की तरह जलने लगेगी? चिंता की बात है कि आज महानगरों के कई लोग जंगलों को नहीं जानते, इसीलिए उनकी आत्माएं सूखी हुई हैं। जैन धर्म में वृक्षों को काटना अर्थात उसकी हत्या करना महापाप माना गया है। महावीर कहते थे कि वृक्ष से हमें असीम शांति और स्वास्थ्य मिलता है। वट, पीपल, अशोक, नीम, तुलसी आदि वृक्ष वनस्पतियों की पर्यावरणीय महत्ता हम सब जानते हैं।

वृक्षों की बहुआयामी उपयोगिता के चलते जैन धर्म में वृक्षों के आस-पास चबूतरा बनाकर उन्हें सुरक्षित करने की परम्परा डाली गयी थी ताकि वहां बैठकर व्यक्ति शांति का अनुभव कर सके। जैन धर्म प्रत्येक शुभ मौके पर पौधे रोपने का संदेश देता है। सभी 24 तीर्थंकरों के अलग-अलग 24 पौधे हैं। बुद्ध और महावीर सहित अनेक महापुरुषों ने इन वृक्षों के नीचे बैठकर ही मोक्ष पाया। यह धर्म वृक्षों को धरती पर ईश्वर का प्रतिनिधि मानता है। आज पर्यावरण विज्ञान भी कहता है कि ये वृक्ष भरपूर ऑक्सीजन देकर व्यक्ति की चेतना को जाग्रत बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

भगवान महावीर का दूसरा प्रमुख संदेश प्राणी मात्र के कल्याण के लिए बराबरी व भाईचारा। उन्होंने मनुष्य-मनुष्य के बीच भेदभाव की सभी दीवारों को ध्वस्त कर जन्मना वर्ण व्यवस्था का विरोध किया। उनकी मान्यता थी कि इस विश्व में न कोई प्राणी बड़ा है और न कोई छोटा। उन्होंने गुण-कर्म के आधार पर मनुष्य के महत्व का प्रतिपादन किया। भगवान महवीर कहते थे कि ऊँच-नीच, उन्नति-अवनति, छोटे-बड़े सभी अपने कर्मों से बनते हैं, सभी समान हैं न कोई छोटा, न कोई बड़ा। उनकी दृष्टि समभाव की थी। वे सम्पूर्ण विश्व को समभाव से देखने वाले तथा समतामूलक समाज के स्वप्नदृष्टा थे।

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अहिंसा के उत्कृष्ट दर्शन से जुड़ा महावीर के जीवन का एक वाकया अत्यन्त प्रेरक है। एक बार एक मनुष्य यह जिज्ञासा लेकर महावीर के पास गया कि जो आत्मा आंखों से नहीं दिखाई देती तो क्या इस आधार पर उसके अस्तित्व पर शंका नहीं की जा सकती? भगवान ने बहुत सुंदर उत्तर दिया, भवन के सब दरवाजे एवं खिड़कियां बन्द करने के बाद भी जब भवन के अन्दर संगीत की मधुर ध्वनि होती है तब आप उसे भवन के बाहर निकलते हुए नहीं देख पाते। किन्तु आंखों से दिखाई न पड़ने के बावजूद संगीत की वह मधुर ध्वनि बाहर खड़े श्रोताओं को सुनायी पड़ती है। इसी तरह आंखें भले ही आत्मा को नहीं देख सकतीं, पर उसके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता।

प्रत्येक जीव की आत्मा में परम ज्योति समाहित है। प्रत्येक चेतन में परम चेतन समाहित है। प्रत्येक व्यक्ति स्वयं में स्वतंत्र, मुक्त, निर्लेप एवं निर्विकार है। प्रत्येक आत्मा अपने पुरुषार्थ से परमात्मा बन सकती है। मनुष्य अपने सत्कर्म से उन्नत होता है। भगवान महावीर ने प्रत्येक व्यक्ति को मुक्त होने का अधिकार प्रदान किया। मुक्ति दया का दान नहीं है, यह प्रत्येक व्यक्ति का जन्म सिद्ध अधिकार है। जो आत्मा बंधन का कर्ता है, वही आत्मा बंधन से मुक्ति प्रदाता भी है। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है; मनुष्य अपने भाग्य का नियंता है; मनुष्य अपने भाग्य का विधाता है। मगर, भगवान महावीर का कर्मवाद भाग्यवाद नहीं है, भाग्य का निर्माता है। ऐसी ही एक दिव्य विभूति थे- महावीर स्वामी।

महावीर स्वामी का सम्पूर्ण जीवन त्याग, तपस्या व अहिंसा का अनुपम उदाहरण है। उन्होंने एक लंगोटी तक का परिग्रह नहीं किया। पूरी दुनिया में पंचशील (सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, अत्सेय व क्षमा) के सिद्धांत देने वाले स्वामी महावीर ने न सिर्फ मानव अपितु सम्पूर्ण प्राणी समुदाय के कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया। आज जिस तरह समाज में हिंसा, अत्याचार, चोरी, लूटपाट जैसे अपराधों की बाढ़ सी आती जा रही है। लालच व क्रोध के दानव ने सामाजिक ताने-बाने को तार-तार कर दिया है। खून के रिश्ते तक स्याह हो गये हैं। मानवता व आत्मीयता व संवेदना जैसे मनोभाव विरले ही दिखते हैं।

ऐसे अशांत, भ्रष्ट व हिंसक समाज में महावीर की अहिंसा का पथ ही मानव मन को सच्ची शांति प्रदान कर सकता है। जब से मानव ने अहिंसा को भुलाया तभी से वह दानव होता जा रहा है और उसकी दानवी वृत्ति का अभिशाप आज समस्त विश्व भोगने को विवश है। संसार के प्रत्येक जीव को अपना जीवन अति प्रिय है जो उसको नष्ट करने को उसको क्षति पहुंचाने को उद्यत रहता वह हिंसक है, दानव है। इसके विपरीत जो इसकी रक्षा करता है वह अहिंसक है और वही मानव है।

पूनम नेगी



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