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विमर्श: बहुत कुछ बदल जाएगा, कांग्रेस में तब
राघवेंद्र दुबे
प्रेस क्लब ऑफ इंडिया ( दिल्ली ) में कुछ
मित्रों के साथ की बहुत निजी और मेज की लंबाई-चौड़ाई या
गोलाई तक में ही सिमटी 5 दिसम्बर की चर्चा अकेले में, आज तक
कोंच रही थी। लिहाजा लिखने बैठ गया।
तकरीबन सभी इस बात पर सहमत थे, कि राहुल गांधी में
इन दिनों और ज्यादा साफ दिख रही राजनीतिक परिपक्वता
और नायकत्व के लिए, कोई अवधि निर्धारण या तारीख तय करने
की कोशिश भी, एक साजिश का ही हिस्सा है। वे जो खासकर अमेरिका के दौरे और बर्कले विश्वविद्यालय में भाषण के बाद बस तीन-चार महीने से ही , राहुल में परिपक्वता और हैरत
में डाल देने वाली चमक देख रहे हैं, गलत हैं।
एक वरिष्ठ पत्रकार का कहना था कि राहुल इतने परिपक्व बहुत
पहले से हैं लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के आपराधिक दक्षता वाले गहन,
संगठित कुप्रचार और चरित्र हनन की राजनीति ने धुंध गहरा दिया था। इसलिए गोदी मीडिया से ही अपनी राय
बनाने वाले ज्यादातर लोगों ने राहुल को हल्का राजनीतिक मान लिया।
वस्तुतः राहुल, आज जो दिख रहे हैं , उतने ही परिपक्व आज से ढाई-तीन साल पहले भी थे।
गुजरात में नतीजा जो हो, राहुल गांधी की आक्रमकता ने
प्रधान सेवक को, भरा दिल, भर्राया गला और सजल आंख वाली नाटकीयता के लिए मजबूर तो कर ही दिया।
काशी में कभी के गंगा पुत्र को न केवल गुजरात का बेटा बनना पड़ गया, रीजनल और
उपराष्ट्रीय संकीर्णता को भी हवा देनी पड़ गयी।
जब से केंद्र सरकार अपने वजूद में आयी , राहुल प्रतिपक्ष की सारी जिम्मेदारी और गरिमा के साथ बहुत सधे कदम थे।
'अच्छे दिन' जब पूरी तरह से अ-राजनीतिक और फैशन की
बहस का उत्प्रेरक हो चुका था, जिसकी ऊर्जा कॉरपोरेट लॉबी और अरब-खरब के मालिक अनिवासी भारतीयों की दौलत हैं
मोदी की सरकार पर पहली और उन्हें तिलमिला देने वाली टिप्पणी राहुल ने ही की।
आज से दो साल पहले ही मौजूदा केंद्र सरकार को
'सूट-बूट' की सरकार कहकर, राहुल ने आवारा पूंजी के वर्चस्व और उससे छनती यारी को पहली सांकेतिक चुनौती दी थी।
राजनीति में प्रतीकात्मक संदर्भ और नारे क्या मायने रखते हैं, राहुल ने इसे पहले ही समझ लिया।
राहुल के कांग्रेस अध्यक्ष होने के भी अपने गहरे मायने हैं।
हो सकता है उन्होंने पार्टी में मध्यवाम (सेंटर लेफ्ट)
रुझान के उभार और देश के लिए नियंत्रित अर्थव्यवस्था का भी कोई प्रारूप सोच लिया हो।
वह उन सारे समूहों को जल्दी ही चौंका देंगे जिन्हें कांग्रेस
और बीजेपी की आर्थिक नीति एक सी दिखती रही है। थी, भी।
राहुल के अध्यक्ष होने का मतलब कांग्रेस में नेहरू- इंदिरा दौर का लौटना है।
इसीलिए कांग्रेस के भीतर के 'इकोनॉमिकली राइटिस्ट' भी उनका दबा विरोध कर रहे थे।
प्रधान सेवक जी के माथे पर पसीना क्यों आ जाता है बार-बार
इसके मायने भी कुछ-कुछ खुलने लगे हैं।
कुछ मित्रों का मानना था कि दक्षिणपंथ दरअसल आर्थिक-राजनीतिक
(पॉलिटिकल इकोनॉमिक) अवधारणा है। इस लिहाज से देश
में कोई राइटिस्ट पार्टी है ही नहीं। बीजेपी तो, नस्ली श्रेष्ठता
की अवधारणा पर काम करते रहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का
राजनीतिक अनुषांगिक है। राहुल ने, प्रधान सेवक के दुखती
नस पर उंगली रख तो दी है।
पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी के राजनीतिक रणनीतिकार
रहे, स्कॉलर, चिंतक राजनीतिक, डीपी त्रिपाठी का भी मानना है कि
राहुल गांधी के पार्टी अध्यक्ष होने से, कांग्रेस में मध्यवाम
के उभार की संभावना बढ़ गयी है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )