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स्मृति शेष: गली तो खूब गली जिंदगी, ढली तो खूब ढली जिंदगी
अक्टूबर-1927 में गोरखपुर जिसे के सम्भ्रान्त ब्राह्मण-कुल में जन्में डॉ. सत्यनारायण त्रिपाठी एक बहुविज्ञ आचार्य थे। 17 जुलाई, 2017 को अयोध्या के पाावन सरयू-तट पर पंचतत्व में विलीन आचार्य त्रिपाठी के 90 साल का लेखा-जोखा हजार पृष्ठीय किताब की मांग करता है।
स्मृति शेष
अक्टूबर-1927 में गोरखपुर जिसे के सम्भ्रान्त ब्राह्मण-कुल में जन्में डॉ. सत्यनारायण त्रिपाठी एक बहुविज्ञ आचार्य थे। 17 जुलाई, 2017 को अयोध्या के पाावन सरयू-तट पर पंचतत्व में विलीन आचार्य त्रिपाठी के 90 साल का लेखा-जोखा हजार पृष्ठीय किताब की मांग करता है।
लोकजगत्-शास्त्रजगत्-साहित्यजगत्-भाषाजगत्-शिक्षणजगत्-लेखनजगत्- सभी समेकित रूप में उनके सघन-समृद्ध और गुरु-गंभीर व्यक्तित्व की संरचना करते हैं। अध्ययन-अनुसंधान और अवदान की दृष्टि से आचार्य त्रिपाठी मूलत: एक भाषाविद् हैं। इलाहाबाद के धीरेन्द्र वर्मा-स्कूल के स्कॉलर-भाषाविज्ञानी। आधुनिक भाषा-भूमि में गोरखपुर को पहचान दिलाने वाले एक मौलिक भाषा शास्त्री। भाषाविज्ञान के ‘त्रिपाठी-स्कूल’ के संस्थापक और उससे सम्बद्धशील अध्येताओं के निर्देशक-संरक्षक भी। हिन्दीभाषा, भाषाविज्ञान, कोषविज्ञान, लिपिविज्ञान के पंडित आचार्य त्रिपाठी का उल्लेखनीय भाषाग्रंथ है- ‘हिन्दीभाषा और लिपि का ऐतिहासिक विकास।’ हिन्दीभाषी क्षेत्र में भाषा-विषयक अध्येताओं के बीच इसे ‘भाषा-गीता’ के रूप में लोककीर्ति प्राप्त है।
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आचार्य सत्यनारायण त्रिपाठी ने संस्कृत के पाणिनि और बाणभट्ट की तरह, हिन्दी के कबीर और निराला की तरह, उर्दू के फिराक़ और इक़बाल की तरह तथा अंग्रेजी के बायरन और मिल्टन की तरह एवं बंगला के बंकिम और रवीन्द्र की तरह जितना लिखा है- सार्थक, पठनीय और संग्रहणीय है। उन्होंने भाषाशास्त्र, आलोचना, हिन्दी-गज़़ल, दोहा, नई कविता, मीडिया और अनुसंधान के क्षेत्र में अप्रचारित प्रतिमान कायम किया है। गूढ़-गम्भीर अध्ययन, सघन-सबल लेखन, अनस्पर्षित शोधकार्य, विपुल-शिष्य श्रंखला और अतुल शील-स्वभावनिधि उनके विशाल विद्याविलास के क्षितिज हैं, तभी तो उनकी इस प्रदीर्घ अध्ययन-साधना पर केन्द्रित आधे दर्जन शोधकार्य सम्पादित हो चुके हैं, जिनमें गोरखपुर
विश्वविद्यालय से पंजीकृत होकर दो उल्लेखनीय शोधकार्य हुए हैं-
-‘भाषा-विषयक आधुनिक चिन्तन और आचार्य सत्यनारायण त्रिपाठी’ (डॉ. शिवकुमारी नायक)
-‘उश्ररआधुनिक हिन्दी गज़़ल और डॉ. सत्यनारायण त्रिपाठी’ (डॉ. प्रेमशंकर शुक्ल)
-अपने जीवन-काल में ही शोध का विषय बन जाने वाले भाषाकार-साहित्यकार त्रिपाठी जी पच्चासी की उम्र तक रचनारत रहे।
-स्मृतिभ्रंश का शिकार हो जाने के कारण जीवन के अंतिम 5 साल वर्ष बतकही और शैय्या पर बीते। यह उनकी अपराजेय जिजीविषा थी कि लेखन के प्रारम्भिक दौर में उनके तीन मानक ग्रन्थ सामने आये। कालांतर में नौ काव्यकृतियां भी। एक दर्जन पुस्तकों में सहलेखन। एक कोषग्रन्थ में नामवाची शब्दाख्यान भी। कुल मिलाकर जीवनान्त तक उनकी सश्राईस सर्जनाएं सामने आई।
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‘ख्वाब जिया कर मगर तबीयत से...'
जैसी सूक्तिमयी और कालजयी गज़़ल-तस्वीर हिन्दी गज़़ल-जगत् को सौंपने वाले आचार्य-कवि सत्यनारायण त्रिपाठी को 21वीं सदी के हिन्दी काव्येतिहास में अनदेखा करना दृष्टिदोष कहा जाएगा। जैनविन कवि और जैनविन कविता इनाम के मोहताज नहीं होते। वे बारम्बार पढ़े जाने, भावक के भीतर इठलाने और दूर तक अर्थ की बौछार करने के लिए समुद्यत मिलते हैं। हिन्दी के कबीर, सूर, तुलसी, रहीम, प्रसाद, निराला, दिनकर, अज्ञेय, नीरज, दुष्यन्त कुमार, कुंवर बेचैन अपने काव्य की मुनादी करते नहीं मिलते। खोजकर पढ़े जाते हैं। जबान पर चढक़र अभिनन्दन पाते हैं। इनके काव्य के समक्ष अलंकरण बौने नजऱ आते हैं।
नई सदी की काव्यभूमि में त्रिपाठी जी को मुख्यधारा में वाजिब जगह मिलनी चाहिए क्योंकि उनके काव्यशब्द और निहितार्थ मानव-मंगल की कामना में मिलते हैं, नवप्रयोगधर्मी दिखते हैं। उनकी कविता की तमाम पंक्तियां सूक्तिरेखा में उभरती हैं और मात्र एक पाठ में ज़बान पर चढ़ उठती हैं। गहराई से उठकर अनंत-अछोर क्षितिज में छा जाती हैं। भाषा-पंडित होने के कारण उनके सभी काव्यग्रंथ अपने संज्ञाकरण में आभिलाक्षणिक और व्यंजनागर्भी प्रतीत होते हैं, जैसे- एक पांव पर गांव, शिखरों के सागर, आधा आज आधा कल, अंधेरों के उजाले, आखर के आइने, समय-समय की बात, बात-बात में बात, सूरज अपने-अपने, सूली चढ़ते शब्द आदि।
सभी काव्यशीर्षक पढऩे मात्र से काव्यग्रन्थ के भीतर उतरने के लिए आशुआमन्त्रण देते हैं और एक दो पाठ के बाद संज्ञाकरण के प्रतिपाद्य पर विचार करने के लिए पुनर्निमन्त्रण भी। ऐसा एक भाषा-मनीषी के कवि से सम्भव हुआ है। विचारगर्भित और भावोन्मेषित सभी काव्यसंज्ञाएं अर्थ-सौन्दर्य के बहुवर्णी गवाक्ष स्वत: खोलती नज़र आती हैं। लक्षणागर्भित अन्योक्तिमयी, काव्यशीर्षक संज्ञाएं बिहारी की एक दोहा-अद्र्धाली की कुंजी से खुलतीं हैं- ‘अनबूड़़े बूड़े तिरे, जे बूड़े सब अंग।’
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‘गली तो खूब गली जिन्दगी...’
जैसी अलमस्त गज़़ल देकर आचार्य त्रिपाठी का चुपके से महाशून्य में लयलीन हो जाना साहित्यजगत् की अछोर रिक्ति है। किन्तु बुद्ध, गोरख, कबीर, पोद्दार और फिराक़ की कर्मधरा पर जलता हुआ एक और चिराग़। निष्कम्प प्रकाश और अमन्द रोशनी। एक पांव पर खड़े गांव के साथ भी और पिघलकर हिमशिखरों से उतरते सागर के साथ भी। छायावादी काव्य की दार्शनिक अनुगन्ध से प्रभावित, कदाचित् प्रसाद की आनन्दवादी काव्य-दृष्टि का छायाभास कराने वाले त्रिपाठी जी अंधेरों के प्रकोष्ठ से उजालों के उदय के प्रति आश्वस्त हैं। शब्द और अर्थ के बीजगणित (भाषाशास्त्र) पर सम्पूर्ण कमाण्ड रखने वाले त्रिपाठी जी में प्रसुप्त काव्यबीज का उदय अनुभव सिद्ध कवि के रूप में हुआ। सब कुछ देखने, सहने, गुनने के बाद बुनने के रूप में। वे न तो झीनी-झीनी चादर बुनने का दावा करते हैं और न ही कौतुकमयी काव्यक्रीड़ा। त्रिपाठी जी की प्रगतिशील और नवसृजनशील काव्य-दृष्टि का साक्षात्कार उन्हीं की एक काव्य-पंक्ति से-
‘जो बुन न सका एक घोसला भी, वह फरेबी कोकिल है बया नहीं।’
दरअसल, आचार्य-कवि त्रिपाठी जी का रचना-संसार बहुआयामी है। नीड़-निर्माण से कुनबा-विस्तार तक। शिष्य-सर्जना से साहित्य-सृष्टि तक। दोहा छंद के नवसृजन में त्रिपाठी जी का ‘कवि’ समकालीनों में अपना शानी नहीं रखता। हिन्दी-काव्य के सूखते सरोवर और बंजर पड़ते धरातल पर उनकी अन्तर्वेदना का सिसक उठना एक साथ बहुत कुछ कह जाता है।
‘मानसरोवर हंस का, सूख गया है आज।
मेढक जश्न मना रहे, पा कीचड़ का राज।।’
(समय-समय की बात)
-प्रो. रामदरश राय
(लेखक दी.द.उ. गोविवि गोरखपुर के हिन्दी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग में आचार्य हैं)