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आरके स्टूडियो: एक कलाकार की स्मृति का बिकना

raghvendra
Published on: 1 Sep 2018 7:05 AM GMT
आरके स्टूडियो: एक कलाकार की स्मृति का बिकना
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प्रमोद भार्गव

हिंदी सिनेमा के महान शोमैन राजकपूर की सुनहरी स्मृतियों से जुड़ा आरके स्टूडियो बिकने जा रहा है। हिंदी सिनेमा की अनेक क्लासिक फिल्मों का गवाह व आदर्श रहा आरके स्टूडियो का बिकना कलाप्रेमियों के मन को नहीं भा रहा है। लेकिन इसके बिकने की खबर कोई अफवाह न होकर एक हकीकत है। दरअसल राजकपूर के मंझले पुत्र और मशहूर अभिनेता ऋषि कपूर ने स्वयं यह जानकारी देते हुए कहा है कि हमारे पिता का सपना अब परिवार के लिए सफेद हाथी बन गया है। इससे हमारी यादें जरूर जुड़ी हैं, लेकिन यह परिवार में झगड़े का कारण बने, इससे पहले ही हमने इसे बेचने का फैसला ले लिया है।

यह स्टूडियो मुंबई के चेंबूर इलाके में दो एकड़ में फैला हुआ है। सितंबर 2017 में आग लग जाने के कारण स्टूडियो को भारी क्षति पहुंची थी। नतीजतन बॉलीवुड की यादों से जुड़ी तमाम बहुमूल्य धरोहरें राख हो गयीं। कई भवन और उनमें रखे उपकरण, पोशाकें और आभूषण भी नष्ट हो गए। राजकपूर ने मेरा नाम जोकर में जिस मुखौटे को पहनकर अद्भुत अभिनय किया था, वह भी जल गया। इस अग्निकांड के बाद से ही स्टूडियो में शूटिंग बंद है। गोया, आमदनी का जरिया खत्म हो जाने के कारण राजकपूर की संतानें इसे बेचने को विवश हुई हैं।

यह धरोहर न बिके, इसके लिए दो ही विकल्प बचे हैं। एक तो महाराष्ट्र सरकार इस संपत्ति का अधिग्रहण करके इसे फिल्मों का संग्रहालय बनाने का रूप दे, दूसरे कपूर परिवार के लोग ही अपने निर्णय पर पुनर्विचार करते हुए उन विश्वनाथ डी.कराड़ से प्रेरणा लें, जिन्होंने अपने बूते पुणे में राजकपूर की स्मृति में शानदार संग्रहालय बनाया हुआ है। राजकपूर ने फिल्मों के जरिए भारतीय कला और संस्कृति के साथ सामाजिक मूल्यों की स्थापना में भी अहम योगदान दिया है। प्रेम और अहिंसा का संदेश देने वाली उनकी फिल्मों ने हिंदी का प्रचार-प्रसार रूस, चीन, जापान के अलावा अनेक देशों में किया। इसीलिए जब राजकपूर दादा साहब फाल्के पुरस्कार लेने राष्टï्रपति भवन पहुंचे तो राष्ट्रपति ने मंच से नीचे उतरकर उनकी अगवानी की थी।

हिंदी सिनेमा के पहले शोमैन राजकपूर ने 70 साल पहले 1948 में आरके स्टूडियो की नींव रखी थी। इस स्टूडियो के बैनर तले बनाई गई पहली फिल्म आग फ्लॉप रही थी, किंतु दूसरी फिल्म बरसात को बड़ी सफलता मिली थी। इसका नामाकरण राजकपूर के नाम पर ही किया गया था। स्टूडियो का लोगो बरसात में राजकपूर और नरगिस के गीत गाने के एक दृश्य का प्रतिदर्ष है। कालांतर में इस स्टूडियो में राजकपूर ने आवारा, श्री-420, संगम, मेरा नाम जोकर, बॉबी और राम तेरी गंगा मैली फिल्मों का निर्माण किया। अन्य निर्माता भी इस स्टूडियो में फिल्में बनाते रहे हैं। हालांकि एक समय ऐसा भी आया जब राजकपूर को इस स्टूडियो को गिरवी रखना पड़ा।

दरअसल मेरा नाम जोकर राजकपूर की महत्वाकांक्षी विराट व लंबी फिल्म थी। इसमें उस समय के दिग्गज कलाकारों राजेंद्र कुमार, धमेंद्र, मनोज कुमार और दारा सिंह के साथ ही रूस के भी बड़े कलाकार लिए गए थे। एक सर्कस के अनेक वन्य-प्रणियों ने भी इस सर्कस में पटकथा के अनुसार जीवंत अभिनय किया था। अपने बेटे ऋषि कपूर को इस फिल्म में एक किशोर छात्र के रूप में पहली बार अभिनय करने का अवसर मिला था। बड़े कैनवास की फिल्म होने के कारण राजकपूर ने इस फिल्म पर दरियादिली से पैसा खर्च किया था। किंतु जब फिल्म पर्दे पर आई तो फ्लॉप साबित हुई। इससे राजकपूर को गहरा सदमा लगा। इस सदमे और कर्ज से उबरने के लिए राजकपूर ने ऋषि कपूर और डिंपल कपाडिय़ा को लेकर बॉबी फिल्म बनाई। इसका निर्माण ही बॉक्स ऑफिस पर खरी उतारने की परिकल्पना से किया गया था। लिहाजा यह फिल्म सुपरहिट रही और राजकपूर कर्ज से मुक्त हुए।

राजकपूर के तीनों बेटे रणधीर, ऋषि और राजीव के अलावा दोनों बेटियों रीमा जैन व ऋतु नंदा एक स्वर से अब इस बेशकीमती संपत्ति को बेचने पर सहमत है। इन लोगों ने संपत्ति के दलालों के एक समूह को सौदा तय करने का काम सौंप दिया है। तय है कि इस संपत्ति को रियल एस्टेट के कारोबारी या कोई औद्योगिक घराना ही खरीद पाएगा। जमीन बिकने के बाद इसमें आवासीय और व्यावसायिक परिसर विकसित होंगे, जो इस परिसर की वर्तमान उस पहचान को लील जाएंगे, जिसे कला प्रेमी एक मंदिर मानते हैं। मुंबई के गेटवे ऑफ इंडिया, ताज होटल, मुंबा देवी मंदिर, विनायक मंदिर, वानखेड़े स्टेडियम और चौपाटी की तरह आरके स्टूडियो भी एक पर्यटन स्थल है। इसे भी देखने सैंकड़ों कलाप्रेमी रोजाना इसके द्वार पर दस्तक देते हैं।

कला और संस्कृति की बड़ी पहचान होने के साथ इस स्टूडियो की पहचान इसलिए भी बनी रहना जरूरी है, क्योंकि इसने देश-विदेश में हिंदी भाषा की पहचान बनाने में भी अहम भूमिका का निर्वाह किया है। गोया, कपूर परिवार इसे सुरक्षित नहीं रख पा रहा है तो महाराष्ट्र सरकार इस भूमि का अधिग्रहण कर ले ताकि विश्व में हॉलीवुड के बाद सबसे अधिक लोकप्रिय हिंदी फिल्मों की पहचान बने बॉलीवुड को सरंक्षण मिल सके। हमारे देश में अनेक ऐसे नेताओं के घर संग्रहालयों में बदले गए हैं, जिनकी पहचान से जुड़ी धरोहरें बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है। राजा-महाराजाओं के विलासी जीवन से जुड़े संग्रहालय भी हमारे देश में हैं। ये संग्रहालय केवल भौतिक सुख प्राप्ति की प्रेरणा देते हैं। किंतु आरके स्टूडियो सिने जगत की एक ऐसी पहचान है, जो बदलते सांस्कृतिक मूल्य, रीति-रिवाज, पहनावा और फिल्म निर्माण की तकनीक से जुड़े कैमरे और अन्य उपकरणों का ऐतिहासिक गवाह रहा है। लिहाजा फिल्मों का यह श्रेष्ठ संग्रहालय बन सकता है। केंद्र सरकार भी इसके निर्माण में आर्थिक मदद करे तो यह पहल सोने में सुहागा सिद्घ होगी।

पुणे में राजकपूर की स्मृति में एक संग्रहालय बनाया गया है। यह संग्रहालय उस 125 एकड़ भूमि के शैक्षिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक परिसर भूमि में निर्मित है, जिसे राजकपूर ने इस संस्थान के संस्थापक विश्वनाथ डी.कराड को दान में दिया था, लेकिन राजकपूर की शर्त थी कि शिक्षा के साथ-साथ इस संस्थान को ऐसे भारतीय संस्कृति के प्रतिबिंब के रूप में प्रस्तुत किया जाए, जिसमें भारतीय संस्कृति की विरासत झलके। शायद राजकपूर के इसी स्वप्र को साकार करने के लिए इसके कल्पनाशील संस्थापकों ने महाराष्ट्र इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमआईटी) जैसे विशाल शिक्षा संस्थान को आकार दिया। फिर इस परिसर में संगीत कला अकादमी एवं वाद्य-यंत्र संग्रहालय, सप्त-ऋषि आश्रम और भारतीय सिनेमा के स्वर्णयुग से साक्षात्कार कराने वाला राजकपूर संग्रहालय अस्तित्व में लाए गए।

उनकी मृत्यु के 25 साल बाद इस संग्रहालय का उद्घाटन करते हुए उनके पुत्र रणधीर कपूर ने भावविभोर होते हुए कहा था, ‘इस परिसर में मुझे ऐसा अनुभव हो रहा है कि मेरे महान पिता की आत्मा यहां हर जगह वास कर रही है। वे हरेक पेड़ और फूल में जीवन की तरह जीवित हैं। इस स्मारक के निर्माण के लिए मैं श्री विष्वनाथ कराड के प्रति हृदय से आभारी हूं। इस संस्थान के जरिए उन्होंने मेरे पिता के सपने को साकार रूप दिया है। रणधीर कपूर यदि चाहें तो अपने इसी कथन से अभिप्रेरणा लेकर आरके स्टूडियो में संग्रहालय के निर्माण की आधारशिला रख सकते हैं। ऐसा नहीं है कि उनके आर्थिक रूप से सक्षम अन्य भाई-बहन अपने पिता की स्मृति में एक स्मारक बनाने के लिए राजी न हो जाएं। यदि वे इसके निर्माण का संकल्प ले लें तो बॉलीवुड की तमाम हस्तियां और मुंबई के टाटा व अंबानी जैसे उद्योगपति भी इस याद को यादगार बनाए रखने में अपना योगदान देने को आगे आ सकते हैं।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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