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राक्षस फांसी से भी कहां डरते हैं, दुष्कर्म रोकने के लिए उठाओ कुछ और कदम

मध्य प्रदेश में एक के बाद एक घट रही दुष्कर्म की जघन्य घटनाओं के चलते सरकार का चिंतित होना स्वाभाविक है। कैबिनेट ने 12 वर्ष तक की बच्चियों के साथ दुष्कर्म करने के अपराध

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Published on: 28 Nov 2017 2:17 PM IST
राक्षस फांसी से भी कहां डरते हैं, दुष्कर्म रोकने के लिए उठाओ कुछ और कदम
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जयराम शुक्ल

मध्य प्रदेश में एक के बाद एक घट रही दुष्कर्म की जघन्य घटनाओं के चलते सरकार का चिंतित होना स्वाभाविक है। कैबिनेट ने 12 वर्ष तक की बच्चियों के साथ दुष्कर्म करने के अपराध की सजा फांसी देने की बात कही है। आईपीसी, सीआरपीसी और एवीडेंस एक्ट में बदलाव का अधिकार केंद्र को है क्योंकि ये मुकदम़े सत्र न्यायालयों से शुरू होकर सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचते ह़ैं। फांसी को लेकर दया याचिका का निपटारा राष्ट्रपति करते ह़ैं। इसलिए मध्य प्रदेश सरकार के पास सिवाय ऐसा प्रस्ताव पारित करके केन्द्र सरकार के पास भेजने के अलावा शेष कुछ नहीं बचता। मुख्यमंत्री और उनके कैबिनेट के सदस्यों की चिंता म़ें मैं खुद को शामिल मानता हूं। बच्चियों के साथ दुष्कर्म से बड़ा जघन्य पाप और अपराध इस पृथ्वी म़े और कुछ भी नहीं है। फांसी से भी कोई बड़ी सजा हो तो वो भी इस अपराध की सजा के लिए तुच्छ है।

आरोपी को अपराधी साबित करने से लेकर सजा दिलाने तक की कानूनी प्रक्रिया इतनी दुरूह है कि मुकदमा लड़ते-लड़ते सामान्य आदमी का धैर्य जवाब दे जाता है। पुलिस की विवेचना रसूख और धन से प्रभावित हो जाती ह़ैं। प्रभावशाली छूट जाते हैं और कितने निर्दोष जेल में सड़ते रह जाते ह़ै। वहीं दुष्कर्म और हत्या जैसे जघन्यतम मामलों में सुप्रीम कोर्ट से भी फांसी की सजा बरकरार रहने के बावजूद भी कई नराधम राक्षस फांसी के फंदे से लटकने से बच गए ऐसी भी विचित्र व्यवस्था हमारे देश में है।

राष्ट्रपति पद से निवृत्त होते होते प्रतिभा देवीसिंह ताई पटिल ने 2012 में ऐसे ही 35 दुर्दांत अपराधियों की फांसी माफ कर दी थी, जिनमें 30 बलात्कार व हत्या के अपराधी थे। इनमें से एक प्रकरण मध्य प्रदेश के रीवा जिले का था। दो अपराधियों मोलई कोल और संतोष यादव की फांसी माफ कर दी गई, जो एक स्कूली छात्रा की बलात्कार के बाद नृशंस हत्या के अपराध म़े़ं सुनाई गई थी। यह प्रकरण नवीना हत्याकांड के नाम से जाना गया। स्कूली छात्रा नवीना जेलर की बेटी थी। मोलई जेल का प्रहरी व संतोष कैदी जिसे बाहर के काम के लिए छूट मिली थी। दोनों ने जेलर के बंगले म़ें अकेली बच्ची के साथ दुष्कर्म किया, फिर सब्जी काटने वाले चाकू से उसका पेट चीरकर लैट्रिन टैंक म़े़ं डाल दिया। चौबीस घंटे के भीतर दोनों पकड़े गए। सत्र न्यायालय ने फांसी की सजा सुनाई, सुप्रीम कोर्ट ने बहाल रखी। पर महामहिम प्रतिभा पाटिल ने इन्हें माफी दे दी।

हम दो बार रोए। एक बार उस फूल जैसी बच्ची की हत्या पर, दूसरी बार राष्ट्रपति द्वारा उन दरिंदों की फांसी माफ होने पर। नई घटना पुरानी घटनाओं को स्मृतियों में दफन कर देती है। सरकार पुरानी घटनाओं से सबक ले तो नई घटनाओं पर विराम लगे। नवीना हत्याकांड और उसके गुनहगारों की फांसी माफी सरकार को शायद ही याद हो। यदि यह याद होती तो एक प्रस्ताव कैबिनेट से और पास होता। वह यह कि देश का राष्ट्रपति दया याचिका पर निर्णय लेने से पहले पीड़ित परिवार की भी व्यथा सुने, संविधान म़ें ऐसा संशोधन किया जाए।

प्रदेश सरकार के प्रस्ताव पर केंद्र विचार करती रहे। उसके अलावा भी काफी कुछ है जो प्रदेश सरकार कर सकती है। दांडिक कानूनों में प्रतिबंधक कार्रवाइयों का बड़ा महत्व है। इनका प्रावधान ही इसलिए किया गया है कि गंभीर अपराध होने से पहले ही कानून अपना काम करे। दुष्कर्म जैसे अपराध न हों इसके लिए प्रतिबंधक कार्रवाइयों की गहन समीक्षा की जानी चाहिए।

इस समीक्षा म़ें सिर्फ़ पुलिस ही नहीं, मनोविज्ञानी, समाजशास्त्री, मानवशास्त्री, साहित्य व संस्कृतिकर्मियों के साथ हर आयवर्ग के समझदार अभिभावकों को भी शामिल करना चाहिए। जो निष्कर्ष निकले उसपर कड़ाई से पालन हो। आप देखेंगें कि इसका कितना जादुई असर पड़ता है। निर्णय फास्टफूड की तरह नहीं लिए जाने चाहिए और यदि सत्ता में हैं तो खुद को कभी सर्वग्य नहीं मान लेना चाहिए।

आज स्थिति यह कि मध्यप्रदेश ही नहीं देश में ऐसी घटनाओं की बाढ़ सी आई है। क्या गांव, क्या कस्बे कश्मीर से कन्याकुमारी तक ये राक्षसी दौर चल रहा है। चर्चाओं में एक हजार में एक ही ऐसी घटनाएं आ पाती हैं। पचास फीसद घटनाएं तो थाने तक नहीं पहुंच पातीं। जो पहुंच पाती हैं, उनमें से नब्बे फीसदी की विवेचना इतनी लचर होती है कि अपराधी छूट जाते हैं।

निर्भया केस के बाद ऐसे मामले में अपराध कानूनों को सख्त बनाने व बलात्कारी साबित होने पर अधिकतम सजा फांसी देने की बातें की गई। कई विधि विशेषग्यों, व समाजशास्त्रियों ने ये अंदेशा जताया था कि कानून का भय पैदा करने से समस्या और विकट हो जाएगी। जो अभागिनें बलात्कार के बाद कैसे भी बच जाया करती थीं वे अब जान से मार दी जाया करेंगी। निर्भया केस के बाद से यही ट्रेंड बढ़ा है। ज्यादातर मामले में शिकार हुई युवतियां मार दी जाती हैं।

कानून और सजा समाज को अपराध से अंशतः ही बचाते हैं। हर साल फांसियां होती हैं। आजीवन कारावास होते हैं पर अपराध की रफ्तार और बढ़ जाती है। भगवान भी एक राक्षस को मारते थे तो और पैदा हो जाते थे। राक्षस को समूल मारना है तो राक्षसी प्रवृति को मारना होगा। उन परिस्थितियों पर ध्यान देना होगा जो राक्षसी भाव जगाती हैं। कानून में प्रतिबंधक कार्रवाइयों को इसीलिए बड़ा महत्व होता है।

अब यह बताने की जरूरत नहीं कि बलात्कार फिर हत्या जैसे अपराधों का सैलाब यकायक क्यों फूट पड़ा। जवाब है वर्जनाएं टूटती हैं, तो सबकुछ बहा ले जाती हैं । पहले कैसेट्स में ब्लू फिल्में आईं, फिर ये कंप्यूटर में घुसीं और अब इनकी जगह जेब के मोबाइल फोन में बन गई।

बीबीसी की एक रिपोर्ट बताती है कि कुल नेट सामग्री में तीस फीसद पोर्न सामग्री। है। दो साल पहले मैक्स हास्पिटल ने स्कूली छात्रों के बीच सर्वे के बाद पाया कि 47 फीसद छात्र रोजाना पोर्न की बात करते हैं। नेट के सामान्य उपयोगकर्ता को प्रतिदिन कई बार पोर्न सामग्री से वास्ता पड़ता है। वजह प्रायः नब्बे फीसद समाचार व अन्य जानकारियों की साइट पोर्नसाइट्स से लिंक रहती हैं या बीच में विज्ञापन घुसे रहते हैं। कई बहु प्रतिष्ठित अखबारों पर यह आरोप लग चुका है कि वे यूजर्स, लाईक, हिट्स बढ़ाने के लिए पोर्न सामग्री का इस्तेमाल करते हैं क्योंकि यूजर्स की संख्या के आधार पर ही विज्ञापन मिलते हैं। यानी कि वर्जनाओं को वैसे ही फूटने का मौका मिला जैसे कि बाढ़ में बांध फूटते हैं। सारी नैतिकता इसके सैलाब में बह गई।

कमाल की बात यह कि सांस्कृतिक झंडाबरदारी करने वाली सरकार ने इस पर दृढ़ता नहीं दिखाई। इंदौर हाईकोर्ट के वकील कमलेश वासवानी की जनहित याचिका में अगस्त 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने 850 पोर्नसाइट्स पर प्रतिबंध लगाने को कहा। सरकार ने दृढ़ता के साथ कार्रवाई शुरू तो की लेकिन जल्दी ही कदम पीछे खींच लिए।

कथित प्रगतिशीलों और आधुनिकता वादियों ने इसे निजत्व पर हमला बताया और कहा कि इससे अनुच्छेद 21 का उल्लंघन होता है। नेशनल क्राईम ब्यूरों के भयावह रिकॉर्ड के बाद भी सरकार ने आसानी से कदम पीछे खींच लिए। जनहित के अपने निर्णय पर वैसी नहीं ड़टी जैसी कि नोटबंदी में डट गई। तत्कालीन एटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी चीफ जस्टिस की अध्यक्षता वाली बेंच के समक्ष कहा- पोर्नसाइट्स पर प्रतिबंध लगाने को लेकर समाज और संसद में व्यापक बहस की जरूरत है। सरकार की ओर से रोहतगी ने कहा कि जब प्रधानमंत्री डिजटलाजेशन की बात कर रहे हैं, तब पोर्न को बैन करना संभव नहीं है। अभी सिर्फ चाईल्ड पोर्न पर पाबंदी है।

प्रायः समाजशास्त्री और मनोवैज्ञानिक यह मानते हैं कि यौनिक अपराधों की बढोत्तरी के पीछे पोर्नसाइट्स हैं, जो हर उम्र के लिए खुली हैं। गूगल ट्रेंड के मुताबिक पोर्न शब्द की खोज करने 10 शीर्ष देशों में एक भारत भी है। नैतिक श्रेष्ठता का दम भरने वाली सरकार को चाहिए कि इस मामले में चीन से सीख ले। चीन ने अश्लीलता के खिलाफ अभियान चलाते हुए 1,80,000 ऑनलाइन प्रकाशन रोके। पोर्नसाइट्स के खिलाफ कड़ी कार्रवाइयां की। कैमरून जब इंग्लैलैंड के प्रधानमंत्री थे, तब माइक्रोसॉफ्ट और गूगल को धमकाया था कि यदि पोर्नसाइट्स पर लगाम नहीं लगाई तो उनका डेरा डकूला देश से बाहर फेक देंगे।

दुनिया के हर समझदार देश इस गंदी सोच के खिलाफ हैं एक सिवाय भारत के। तमाम घटनाओं के बाद भी कोई सबक नहीं ले रहा। आधुनिकता और प्रगतिवादी सिर्फ पोर्नसाइट्स के मामले में ही सुने जाते हैं। अन्य मामलों में तो ये भौंकते ही रह जाते हैं, सरकार को जो करना होता है कर लेती है। कौन पता लगाए इसके पीछे क्या रहस्य है? समाज और नई पीढ़ी को पतनशीलता से बचाना है तो नोटबंदी जैसी दृढ़ता के साथ ही टोटल पोर्नबंदी करनी होगी।



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