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बिन अधिकार,शहरी सरकार: निकाय चुनावों में जिन पदों के लिए मारामारी मची है वे महज हाथी के दांत 

raghvendra
Published on: 10 Nov 2017 11:59 AM IST
बिन अधिकार,शहरी सरकार: निकाय चुनावों में जिन पदों के लिए मारामारी मची है वे महज हाथी के दांत 
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संजय तिवारी की स्पेशल रिपोर्ट

लखनऊ: नगर निकायों के चुनाव या ‘तीसरी सरकार’ के निर्वाचन की प्रक्रिया चल रही है। ऐसी सरकार जिसे उत्तर प्रदेश की किसी भी बड़ी सरकार ने आज तक अधिकार संपन्न नहीं होने दिया है। फिर भी मेयर, सभासद आदि की अधिकार विहीन कुर्सियों के लिए मारामारी मची हुई है। किसी भी नगर निकाय के सदस्य, अध्यक्ष, सभासद या मेयर के लिए चुनाव लडऩे वाले लोगों को शायद यह भी नहीं पता है कि जिस पद के लिए वे इतनी मारामारी कर रहे हैं, वास्तव में वह महज हाथी का दांत है। फिर भी इस चुनाव को सभी राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों ने नाक का सवाल बना रखा है। तो क्या वजह है इसकी? क्या जनता की सेवा की भावना उनमें इतनी प्रचंड रूप ली चुकी है कि कोई टिकट के लिए आत्मदाह की धमकी दे रहा है तो कोई मारपीट या पार्टी से बगावत तक कर रहा है?

असलियत यह है कि प्रदेश में मेयर को कोई अधिकार ही नहीं मिला है। ये अधिकार मिलते हैं संविधान के ७४वें संशोधन विधेयक से बने कानून के जरिये, लेकिन यह कानून उत्तर प्रदेश में लागू ही नहीं किया गया है। प्रदेश में शहरों-नगरों में जो भी काम होते हैं वे या तो प्रदेश सरकार की कृपा से होते हैं या मेयर के निजी प्रयासों से।

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74वां संशोधन विधेयक लागू न होने से मेयर को हर काम के लिए प्रशासनिक अधिकारियों और राज्य सरकार का मुंह देखना पड़ता है। जनता तो उसे नगर के विकास के लिए चुनकर भेजती है, लेकिन जनता नहीं जानती कि अपने ही नगर में एक नक्शा पास करना भी मेयर के हाथ में नहीं है। विकास सम्बन्धी सभी कार्यों के लिए विकास प्राधिकरण बना दिए गए हैं जहां मेयर की कोई भूमिका ही नहीं है। इसी तरह नगर निगम का असली ‘मालिक’ नगर आयुक्त होता है।

इस पद में ऐसा क्या है कि भाजपा अपने ही बनाए सभी मानदंडों को तोडक़र इलाहबाद में प्रदेश सरकार के मंत्री नंदगोपाल नंदी की पत्नी को उम्मीदवार बनाने पर मजबूर हो गयी जो अपने पिछले कार्यकाल में बसपा से महापौर बनी थीं। ऐसी क्या वजह है कि आगरा में जैन बंधुओं में से एक को बीजेपी का टिकट मिल गया तो दूसरा निर्दल ही मैदान में कूद गया?

झांसी में कांग्रेस ने केंद्र सरकार में मंत्री रह चुके प्रदीप जैन को महापौर जैसे छोटे पद का भी उम्मीदवार बना दिया? बीजेपी से बगावत कर पिछली बार सपा से चुनाव लडऩे वाले सीताराम जायसवाल को बीजेपी ने गोरखपुर में अपना प्रत्याशी बना दिया? ऐसी क्या वजह रही कि कांग्रेस को लखनऊ में अपने तीन प्रत्याशी बदलने पड़े? इन प्रश्नों का कोई जवाब देने की स्थिति में नहीं है क्योंकि शक्तिहीन सत्ता के इस संघर्ष की वजह ‘वित्तीय लाभ’ और ‘पर्सनल राजनीति’ चमकाना है।

इन्दौर से सफाई सीख रहे, लेकिन कानून नहीं

नगर निकाय संबंधी संविधान का 74वां संशोधन या नगर निकाय कानून मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात जैसे राज्यों में लागू किया गया है और यही वजह है कि वहां के नगर निगम खूब विकसित हुए। इसी स्वायत्तता का परिणाम है कि इंदौर को सबसे स्वच्छ शहर का तमगा मिला। इसी इन्दौर की व्यवस्था सीखने के लिये राजधानी लखनऊ के अधिकारी वहां का दौरा करते हैं, लेकिन वहां के नगर निकाय कानून की कोई चर्चा तक नहीं की जाती। जहां नगर निकाय कानून या 74वां संविधान संशोधन लागू है वहां विकास प्राधिकारण, फायरब्रिगेड, पानी-बिजली, सडक़, बस सेवा- ये सबकुछ महापौर के अधीन होते हैं। वह शहर के प्रति जिम्मेदार और जवाबदेह होता है और अन्य विभागों पर जिम्मेदारी टाल नहीं सकता।

बदहाल शहरों में जोड़तोड़ की सियासत

लखनऊ, मेरठ, गोरखपुर, बनारस, कानपुर और अन्य शहर कहने को अलग-अलग हैं, लेकिन सबकी हालत एक समान है। इन शहरों का कॉमन फैक्टर है-बेलगाम अतिक्रमण, ध्वस्त ट्रैफिक व्यवस्था, जर्जर पब्लिक ट्रांसपोर्ट, गंदगी का अंबार। दशकों से इन्हीं शहरों में नगर निकाय व्यवस्था चलती चली आ रही है और इस साल फिर आगे बढ़ रही है। इन शहरों में शहर की सूरत बदलने की बजाय निकाय चुनाव में सिर्फ जोड-तोड़ और समीकरण की ही बात चल रही है।

वाराणसी

दांव पर मोदी की साख

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पीएम के संसदीय क्षेत्र वाराणसी के सियासी अखाड़े में उतरने वालों दिग्गजों के चेहरे भी साफ हो गए हैं। खासतौर से बीजेपी के लिए निकाय चुनाव अग्निपरीक्षा की तरह है। चुनावी नतीजों से साफ होगा कि विकास की कसौटी पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रयास कितने खरे उतरते हैं। वहीं कांग्रेस, सपा और बीएसपी सरीखी पार्टियों के पास खोने के लिए कुछ नहीं है, लेकिन चुनाव में कामयाबी मिलती है तो इसका संदेश पूरे देश में जाना तय है। बनिया वर्ग को शहर के अंदर बीजेपी का सबसे बड़ा सर्मथक माना जाता है। लिहाजा पार्टी ने इस बार बड़ा दांव खेलते हुए पूर्व सांसद शंकर प्रसाद जायसवाल की बहू मृदुला जायसवाल को मैदान में उतार दिया। जियोलॉजी से एमएससी कर चुकीं मृदुला अपने पिता के कारोबार में हाथ बंटाती हैं। वो संघ कीभी करीबी रही हैं। बीजेपी की कोशिश है कि पार्टी के परंपरागत वोट बैंक को गोलबंद करके जीत हासिल की जाए।

निकाय चुनाव कांग्रेस के लिए किसी चुनौती से कम नहीं है। टिकट के लिए वैसे तो कई दावेदार थे, लेकिन आलाकमान ने पूर्व केंद्रीय मंत्री स्व.श्यामलाल यादव की पुत्रवधू को मैदान में उतारा। कांग्रेस की सियासत के अंदर श्यामलाल एक ऐसा नाम थे जो हर किसी के लिए स्वीकार्य था। कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती पार्टी की गुटबाजी को दूर करना है। इसके अलावा मोदी विरोधियों को अपने पाले में लाना। मुस्लिमों का एक बड़ा तबका अब भी कांग्रेस के साथ है। विधानसभा चुनाव में भी सपा और बसपा के मुकाबले मुस्लिमों ने कांग्रेस का हाथ थामा। सियासी पंडित यह मान रहे हैं कि अगर कांग्रेस मुस्लिमों के साथ अपने परंपरागत वोटबैंक को साथ लाने में कामयाब होती है तो कुछ हद तक बात बन सकती है।

समाजवादी पार्टी ने मेयर पद के लिए साधना गुप्ता को मैदान में उतारा है। दिग्गज राजनीतिक परिवार से जुड़ी साधना की गिनती सपा की तेजतर्रार नेताओं में होती है। हाल के दिनों में उनका कद पार्टी में लगातार बढ़ रहा था। मेयर का पद भले ही बीजेपी के पास रहा हो, लेकिन पार्षदों की संख्या में सपा हमेशा ही बीस साबित रही है। पिछले चुनाव में भी संख्या बल में सपाई बीजेपी के मुकाबले आगे थे। दूसरी पार्टियों के मुकाबले सपा के अंदर गुटबाजी कुछ कम है,लेकिन सवाल इस बात का है कि क्या पार्टी बीजेपी को टक्कर देने में कामयाब हो पाएगी। वहीं अगर बीएसपी की बात करें तो पार्टी पहली बार निकाय चुनाव में हिस्सा ले रही है। पार्टी ने मेयर पद के लिए अधिवक्ता सुधा चौरसिया के नाम पर मुहर लगाई है। बीकॉम, बीएड और एलएलबी कर चुकीं सुधा 2009 से पार्टी से जुड़ी हैं और संगठन में कई महत्वपूर्ण पदों पर रह चुकी हैं।

गोरखपुर

योगी के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न

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भाजपा से सीताराम जायसवाल, सपा से राहुल गुप्ता, बसपा से हरेन्द्र यादव और कांग्रेस से राकेश यादव ने पर्चा दाखिल कर दिया है। वहीं आप की तरफ से श्रवण जायसवाल दावेदारी कर रहे हैं। भाजपा के सीताराम जायसवाल पिछले पांच साल से गोरखनाथ मंदिर की परिक्रमा कर रहे थे। योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद से उनकी सक्रियता काफी बढ़ गई थी। गोरखपुर की महापौर की सीट पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित हुई तो कयास लगाया जाने लगा कि संगठन में काम करने वाले और योगी के करीबी धर्मेन्द्र सिंह या फिर पूर्व मेयर अंजू चौधरी का चुनाव लडऩा तय है। सियासी गुणा-भाग के बीच योगी के इशारे के बाद सोशल मीडिया पर पहली नवम्बर से धर्मेन्द्र सिंह को महापौर प्रत्याशी बनने की बधाइयां मिलने लगी थीं, लेकिन संघ के हस्तक्षेप के बाद तस्वीर बदल गई।

4 नवम्बर को सोशल मीडिया पर सीताराम महापौर प्रत्याशी घोषित हो गए। सीताराम की प्रत्याशिता से साफ है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने या तो खुद को किनारे कर लिया या फिर संघ के चयन को मौन सहमति दे दी। दरअसल, मूलत: बिहार के रहने वाले सीताराम जायसवाल का गोरखपुर में अच्छा-खासा कारोबार है। उन्होंने नौ करोड़ से अधिक की सम्पत्ति की घोषणा भी की है। वे लंबे समय से व्यापारियों की राजनीति कर रहे हैं। मुख्यमंत्री का गृह जिला, व्यापारियों में पकड़ के बलबूते सीताराम जायसवाल को मजबूत प्रत्याशी माना जा रहा है। उधर, संगठन ने धर्मेन्द्र सिंह को गोरखपुर में निकाय चुनाव का प्रभारी बनाकर साफ संकेत दे दिया है, जीत का समीकरण बिगड़ा तो जिम्मेदारी तय होगी।

सपा ने कई बार पार्षद रहीं राजकुमारी देवी और सत्यनारायण गुप्ता के पुत्र राहुल गुप्ता को टिकट दिया है। अखिलेश खेमे ने विधानसभा चुनाव में भी राहुल को गोरखपुर शहर से टिकट दिया था, लेकिन बाद में समझौते के तहत सीट कांग्रेस को मिल गई थी। बसपा ने हरेन्द्र यादव व कांग्रेस ने राकेश यादव को टिकट दिया है। हालांकि कांग्रेस मतदान से पहले ही प्रत्याशी चयन को लेकर सवालों को घेरे में है। जिलाघ्यक्ष डॉ. सैयद जमाल ने जहां शनिवार को पार्टी नेतृत्व का निर्णय बताते हुए धर्मराज चौहान का पर्चा दाखिला करा दिया था वहीं सोमवार को प्रदेश अध्यक्ष राजबब्बर का अधिकार पत्र लेकर राकेश यादव ने पर्चा दाखिला किया।

मेरठ

इस बार भाजपा की राह आसान नहीं

मेरठ में भाजपा पिछले दस सालों से महापौर पद पर कब्जा किए हुए है, लेकिन इस बार भाजपा की राह आसान नहीं लग रही है। विपक्षी दलों ने जिस तरह अपने उम्मीदवार चुनावी मैदान में उतारे हैं उससे तो यही लगता है कि विपक्ष भाजपा के खिलाफ परोक्ष रूप से लामबंद होकर चुनावी रणभूमि पर भाजपा को पटकनी देने के लिए उतरा है। मसलन, भाजपा के अलावा बसपा और रालोद ने जहां जाटव कार्ड खेला है वहीं सपा,कांग्रेस और आप ने वाल्मीकी बिरादरी पर दांव लगाया है।

वाल्मीकी वोट बैंक भाजपा का माना जाता है मगर तीन विपक्षी वाल्मीकी प्रत्याशियों के कारण इस वोट बैंक में सेंध लगती नजर आ रही है। इस स्थिति में भाजपा को उसका परंपरागत वैश्य, ब्राह्मण, पंजाबी, त्यागी व अन्य पिछड़ा वोट मिलेगा। जहां तक जाट मतदाताओं की बात है तो रालोद उसमें कुछ न कुछ सेंधमारी जरूर करेगा। इसी तरह कांग्रेस भी कहीं ना कहीं भाजपा को नुकसान पहुंचाएगी।

वैसे मेरठ में अब तक हुए तमाम चुनावों में भाजपा की जीत में जाटव मतदाताओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। वह चाहे चुनाव लोकसभा, विधानसभा का हो या महापौर का। पिछले चुनाव में भी जाटव वोट बैंक भाजपा के साथ गया था जिसके चलते कमजोर उम्मीदवार होने के बावजूद भाजपा जीत गई थी। इस बार ऐसी संभावना कम है क्योंकि पिछली बार बसपा चुनाव नहीं लड़ी थी। ऐसे में जाटव वोट बैंक भाजपा की तरफ खिसक गया था, लेकिन इस बार बसपा बकायदा सिंबल पर चुनाव लड़ रही है। ऐसे में बसपा का परंपरागत जाटव वोट बैंक सिंबल पर चुनाव लडऩे के कारण उसके खाते में जाने के आसार दिख रहे हैं। यही नही सपा ने भी सिंबल पर चुनाव नहीं लड़ा था।

लेकिन इस बार सपा भी सिंबल पर चुनाव लड़ रही है। मेरठ नगर निगम में करीब 11 लाख मतदाता हैं जिसमें करीब चार लाख मुसलमान वोटों के साथ ही डेढ़ लाख वैश्य और इतने ही दलित मतदाता हैं। इनके अलावा ब्राह्मण, त्यागी, जाट, गुर्जर आदि के साथ अन्य पिछड़ा वर्ग के मतदाता शामिल हैं। पिछले चुनाव में मेरठ महापौर सीट पिछड़ी जाति के लिए आरक्षित थी। बसपा ने चुनाव में भाग नहीं लिया था।

सपा चुनाव जरूर लड़ी मगर सिंबल पर नही। सपा ने निर्दलीय उम्मीदवार रफीक अंसारी (वर्तमान सपा विधायक) को चुनाव मैदान में उतारा था। इस चुनाव में रफीक अंसारी समेत पांच मुसलमान चुनाव लड़े थे। कांग्रेस ने जाट उम्मीदवार देवेन्द्र प्रधान को मैदान में उतारा था। दलितों के भाजपा में जाने और मुसलमानों के बिखराव के कारण भाजपा के हरिकांत अहलूवालिया,जो कि कमजोर उम्मीदवार आंके जा रहे थे, चुनाव जीत गये थे। चुनाव में भाजपा को 198579 और रफीक अंसारी को 120773 वोट मिले थे।

कानपुर

भाजपा की दबंग प्रत्याशी सबके लिए चुनौती

इस चुनाव में सबसे दिलचस्प बात यह है कि किसी पार्टी की प्रत्याशी हॉउसवाइफ है तो कोई बिजनेसमैन की वाइफ तो कोई जमीनी स्तर की नेता। सभी पार्टियों के अपने-अपने मुद्दे हैं। मेयर के लिए भाजपा ने प्रमिला पांडेय,कांग्रेस ने वंदना मिश्रा, सपा ने माया गुप्ता और बसपा ने अर्चना निषाद को मैदान में उतारा है। बसपा में पहले पूर्व मंत्री अंटू मिश्रा की पत्नी शिखा मिश्रा का नाम चल रहा था, लेकिन उन्हें दरकिनार करते हुए बहन जी ने अर्चना निषाद को प्रत्याशी बनाया है। अर्चना निषाद हॉउस वाइफ थीं और उनकी राजनीति में यह पहली पारी है। कानपुर के मैनावती मार्ग में रहने वाले वाली अर्चना निषाद को इससे पहले कोई नही जनता था, लेकिन प्रत्याशी बनने के बाद वह अचानक सुर्खियों में आ गयीं।

बीजेपी से मेयर प्रत्याशी प्रमिला पांडेय रिवाल्वर दादी के नाम से मशहूर हैं। लाइसेंसी रिवाल्वर लगाकर चलने वाली प्रमिला भाजपा की सक्रिय कार्यकर्ता हैं। जब रिवाल्वर और बन्दूक के साथ सोशल मीडिया पर प्रमिला पांडेय की फोटो वायरल हुई तभी से लोग उन्हें रिवाल्वर दादी व रिवाल्वर चाची के नाम से पुकारने लगे। वे महिला मोर्चा की जिलाध्यक्ष और दो बार पार्षद रह चुकी हैं।

भाजपा को ब्राह्मण महिला प्रत्याशी की तलाश थी वो पूरी हो गई है। भाजपा ने प्रमिला को मैदान में उतारकर अन्य पार्टियों का चुनावी गणित बिगाड़ दिया है। प्रमिला के साथ पूरी बीजेपी एकजुट दिखाई दे रही है। लंबे समय से संघ से जुड़ी रहीं प्रमिला सिविल लाइन वार्ड 52 से दो बार पार्षद चुनी गयीं। सोशल मीडिया पर उनका प्रचार सबसे ज्यादा दिख रहा है। प्रमिला पांडेय इंटर पास हैं और उनके खिलाफ धारा 147 ,332 ,353 ,504 ,506, 427 व 7 क्रिमिनल एक्ट का मामला लंबित है।

कांग्रेस प्रत्याशी वंदना मिश्रा के पति अलोक मिश्रा पुराने कांग्रसी नेता है। वंदना मिश्रा डीपीएस की चेयरपर्सन हैं। इसके साथ ही विद्याभवन फॉर इंजीनियरिंग टेक्नोलाजी की सचिव भी है। उन्होंने 1986 में मैथ से परास्नातक किया था। वंदना मिश्रा का कोई राजनीतिक कॅरियर नहीं है। समाजवादी पार्टी ने माया गुप्ता को मेयर पद के लिए मैदान में उतारा है। उनके पति रतन गुप्ता 2012 में सपा से मेयर का चुनाव लड़ चुके हैं। सपा ने व्यापारियों को ध्यान में रखकर यह कार्ड खेला है। माया गुप्ता ने स्नातक किया है और वे हाउसवाइफ हैं। बीएसपी प्रत्याशी अर्चना निषाद ग्रेजुएट हैं। उनकी चल अचल संपत्ति 3.45 करोड़ रुपये है।

आगरा

अरबपति भाई भी आमने-सामने

भाजपा ने पूर्व डिप्टी मेयर और प्रदेश कोषाध्यक्ष नवीन जैन को प्रत्याशी बनाया है। सपा ने पूर्व प्रदेश सचिव राहुल चतुर्वेदी पर दांव खेला है। कांग्रेस पुराने कांग्रेसी नेता विनोद बंसल के सहारे चुनाव वैतरणी पार करने की कोशिश में है तो बसपा ने दिगम्बर धाकरे को उमीदवार घोषित किया है। आम आदमी पार्टी भी राजेश गुप्ता को लेकर ताल ठोक रही है। नवीन जैन डिप्टी मेयर रह चुके हैं। वे एक कंस्ट्रक्शन कंपनी के डायरेक्टर होने के साथ अब पार्टी में उप कोषाध्यक्ष हैं। माना जा रहा है कि उनका टिकट फाइनल कराने में एससी आयोग के चेयरमैन रामशंकर कठेरिया और प्रदेश संगठन मंत्री सुनील बंसल की बड़ी भूमिका है। बीस साल से मेयर पद बीजेपी के पास होने के बावजूद शहर में विकास दिखाई न देना पार्टी के लिए चुनौतीपूर्ण साबित होगा।

सपा के युवा नेता राहुल चतुर्वेदी युवा संगठन में शहर अध्यक्ष से लेकर प्रदेश सचिव जैसे पदों पर रह चुके हैं। ब्राह्मण और मुस्लिम समाज में अच्छी पैठ रखने वाले राहुल सपा सरकार में नामित पार्षद भी थे। बसपा इस बार गुटबाजी और भितरघात से जूझती हुई नजर आ रही है। बसपा मुस्लिम-जाटव गठजोड़ के साथ ठाकुर मतों जोडक़र चुनावी वैतरणी पार करने की कोशिश में जुटी हुई है। इस चुनाव में भी कांग्रेस औपचारिकता पूरी करती दिखाई दे रही है। पार्टी ने स्कूल संचालक और पुराने कांग्रेसी विनोद बंसल को मैदान में उतारा है,लेकिन आपसी गुटबाजी की वजह से कांग्रेस अभी से मुख्य मुकाबले से बाहर नजर आ रही है। आप भी औपचारिकता पूरी करने को मैदान में है।

अरबपति तो हैं मगर वाहन नहीं

यूं तो निकाय चुनाव में कई करोड़पति प्रत्याशी चुनाव मैदान में है, लेकिन यहां बात हो रही है आगरा के बीजेपी के मेयर पद के प्रत्याशी अरबपति नवीन जैन और उनके भाई प्रदीप जैन की जो निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव मैदान में हैं। सोमवार को नामाकन के अंतिम दिन दोनों ने नामांकन किया। भाजपा प्रत्याशी नवीन जैन के पास चार अरब रुपये की चल-अचल संपत्ति है। उनके बड़े भाई निर्दलीय प्रत्याशी प्रदीप जैन के पास छह अरब रुपये की चल-अचल संपत्ति है। भले ही दोनों भाई अरबपति हों, लेकिन इनके पास कोई वाहन नहीं है।

नगर पंचायत दयाल बाग

1957 से कभी नहीं आई चुनाव की नौबत

नगरीय निकाय चुनाव में जहां एक ओर लोग गला काट प्रतिस्पर्धा करते हैं वहीं दयालबाग नगर पंचायत में आम सहमति से सभी पदों पर निर्विरोध चुनाव होता है। इस बार भी इस परंपरा को अमली जामा पहनाए जाने की कोशिश की जा रही है। इसकी तैयारी भी कर ली गई है। यहां निवर्तमान अध्यक्ष गुरप्यारी मेहरा और वार्ड में सदस्यों के नामों पर आम सहमति बनाई जा रही है। दयालबाग आध्यात्म, स्वच्छ वातावरण और हरियाली के लिए जाना जाता है। यहां साल 1957 से नगर पंचायत है।

किसी भी निकाय चुनाव में मतदान की नौबत नहीं आई। इस बार अध्यक्ष और सभासदों सहित कुल 22 नामांकन पत्र तैयार किए गए हैं। सभी पदों पर दूसरे व्यक्ति का नामांकन पत्र भी जमा कराया जाएगा। तय नाम वाले आवेदक का नामांकन पत्र जांच में रद्द होने की स्थिति में दूसरे नाम वाले आवेदक को उम्मीदवार बनाया जाएगा। सभी नामांकन पत्र जांच में सही मिले तो दूसरे नंबर वाले उम्मीदवार अपना नाम वापस लेंगे।

सहारनपुर

28 दावेदारों को पीछे छोड़ पाया बीजेपी का टिकट

सहारनपुर में भाजपा ने जिस प्रत्याशी को मैदान में उतारा है, उसने 28 दावेदारों को पीछे छोड़ा है। यहां पर कोई भी निर्दलीय उम्मीदवार मेयर पद के लिए ताल नहीं ठोक रहा है। भाजपा ने मेयर का चुनाव लडऩे वाले संभावित प्रत्याशियों से आवेदन मांगे तो 28 लोगों ने दावा पेश किया। आखिरकार पार्टी ने 2007 में सभासद रहे संजीव वालिया को मेयर पद का प्रत्याशी बनाकर मैदान में उतारा है। सपा ने साजिद चौधरी को प्रत्याशी बनाया है। साजिद शहर में खास पहचान नहीं रखते और न ही वह चर्चित नेताओं में शामिल हैं। कांग्रेस ने पार्टी के जिलाध्यक्ष शशि वालिया पर ही अपना भरोसा जताया है। शशि वालिया पिछले कई सालों से कांग्रेस के जिलाध्यक्ष हैं और पंजाबी समाज में पकड़ रखते हैं। बसपा ने मीट कारोबारी हाजी फजलुर्रहमान को मैदान में उतारा है। हाजी फजलुर्रहमान काफी समय से बसपा से जुड़े है।



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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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