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तोताराम ! किस पते पर लिखें खत, कि उन्हें मिट्टी की सोंधी महक तो मिली, घर नहीं

तलाशती हूं तोताराम, तोताराम का प्यार। न मिलने पर थक-हार कर तोताराम को खत लिखना चाहती हूं... लिख कर उससे बात करना चाहती हूं, बताना चाहती हूं उसे कि तुम मुझे याद आते हो, फिर याद आता है कि उसे खत लिखने के लिए तो पता चाहिए। पते के लिए घर और घर ही तो नहीं है तोताराम के पास।

zafar
Published on: 28 Oct 2016 1:37 PM GMT
तोताराम ! किस पते पर लिखें खत, कि उन्हें मिट्टी की सोंधी महक तो मिली, घर नहीं
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तोताराम RUCHI BHALLA

कैसे हो तुम? मुझे उम्मीद है कि तुम वैसे ही होगे जैसे थे फरीदाबाद में दो महीने पहले तक। तुम्हारे हाथ अब भी मिट्टी में सने हुए होंगे। भोले से चेहरे पर मीठी मुस्कान होगी। सधे हुए हाथों से लगातार दिए बना रहे होंगे। चाक का पहिया घूम रहा होगा। उसे तो खैर घूमना ही है वक्त के पहिए के साथ। यही सब बातें मैं लिखकर तुम्हें खत में भेजना चाहती हूं और साथ ही देना चाहती हूं अपनी भी खैरियत। बताना चाहती हूं कि तुम मुझे अक्सर याद आते हो। यहां फलटन में तुम सा कोई भी नहीं है। था तो फरीदाबाद में भी नहीं तुम जैसा कोई और।

मैं जब याद करती हूं फरीदाबाद, तुम्हारी याद खुद ब खुद चली आती है मेरे पास, जैसे मेरे पांव चले जाते थे घर से निकलने के बाद... खुद ब खुद तुम्हारे ठिकाने तक। ठिकाना ही कहूंगी उसे। उसे घर सा दिखने की तुमने तमाम कोशिशें कीं। अपने हाथ से बने गेरुआ मटकों को ईंटों की तरह लगा कर चार दीवारें तुमने खड़ी कर दीं, सरकंडों की उस पर छत डाल दी और मटकों की दीवार पर मिट्टी की पुताई भी कर दी थी डिसटेंपर की तरह। सर छुपाने लायक ठिकाना तो उसे कह सकते हो पर उतने हिस्से की जमीन हासिल नहीं कर सके, घर के नाम पर। क्या ही अच्छा होता कि एक घर होता तुम्हारे पास। घर के बाहर तुम्हारे नाम की तख्ती लटकी होती... जिसके पते पर मैं तुम्हें फलटन से लिख कर खत भेजती।

जबकि जानती हूं तुम्हें खत लिखना न लिखने के बराबर है। तुम खत पढ़ भी कैसे सकोगे। पढऩे की उम्र में चाक पर जो जा बैठे थे तुम, नन्हे हाथों से नन्हे दिए बनाने। माना तुम्हें रखनी थी अपने साथ चाक की धरोहर क्या यही वजह थी कि कलम तक तुम्हारे हाथ नहीं पहुंचे या अक्षरों की पहचान से ज्यादा जरूरी हो गया था तुम्हारे लिए, समय से पहले अन्न कमाना।

खैर! तुम मेरा खत नहीं पढ़ सकते इस बात का खासा मलाल नहीं है मुझे। वह तो किसी और से भी पढ़वा सकते हो पर एक और सवाल मेरे सामने आकर खड़ा हो जाता है कि मेरा खत तुम तक पहुंचेगा कैसे, मैं अगर लिख भी दूं। लिफाफे में लिख कर डाल भी दूं, लिफाफे पर पता क्या लिखूंगी। मिट्टी की बनी उस झोंपड़ी का ठिकाना तो जानती हूँ पर उसका पक्का पता तो तुम्हारे पास भी नहीं है। तुम्हारी झोंपड़ी खालिस मिट्टी की है और मिट्टी में मिल जाती है, जब उस पर सरकारी नजर पड़ती है कभी।

तोताराम ! किस पते पर लिखें खत, कि उन्हें मिट्टी की सोंधी महक तो मिली, घर नहीं

मिट्टी से याद आया... मिट्टी के अलावा तुम्हारे पास और है भी क्या? 365 दिन बारहों महीने मिट्टी में ही सने रहते हैं तुम्हारे हाथ, जब भी तुम्हें देखा है उस सडक़ से गुजरते हुए। तुम्हें देख कर मेरे कदम रुकते रहे हैं वहाँ। तुम तो ध्यानमग्न रहते थे दिया बनाने में पर मैं तुम्हें देखा करती थी खड़ी। देखती जाती थी दियों की लंबी कतार तुम्हें बनाते हुए। कतार को फिर लंबी चटाई में तब्दील होते हुए देखती थी और मेरा खुद का भी मन करने लगता था कि चाक पर हाथ चला कर देखूं। इसलिए नहीं कि एक दिया बनाऊं...दिया बनाना तो बाद की बात है। उससे पहले मैं मिट्टी छूना चाहती थी। कुम्हार की मिट्टी।उसके पैरों से सानी हुई... उसके हाथों से गुँथी हुई।

देखना चाहती थी तुम्हारे पास बैठ कर कैसे होता है ईश्वर का कुम्हार होना। जानना चाहती थी कबीर के दोहे का मतलब- माटी कहे कुम्हार से.... दोहे रट-रटा कर वैसे तो खूब लिखे हैं बचपन में प्रसंग सन्दर्भ भावार्थ। अब प्रत्यक्ष में देखना चाहती थी कुम्हार और मिट्टी का सम्बन्ध। छूना चाहती थी अपने हाथ से कि कैसी होती है मिट्टी जिस मिट्टी से होता है उपजना और उसमें विलय हो जाना। यही ख्वाहिशें मुझे ले जाती रहीं हैं तुम्हारे पास।

तुम्हारा ठिकाना मेरे घर से जुड़ी हुई गली के आखिरी मोड़ पर होता था। मैं अपने घर से आते-जाते तुम्हें देखा करती- पच्चीस साल का सांवला-सलोना भोला तोताराम। हमेशा एक ही मटमैली धारीदार कमीज पहने रहता था। तडक़े सवेरे से ही शुरू हो जाता था उसका दिया बनाना। सडक़ से गुजरते हुए मैं उसे देखती और हैरान होती कि एक ही कमीज पहने कैसे करोड़ों-करोड़ दिए बना डालता है यह। कितने घरों में दियों की रौशनी बिखेरता जाता है और खुद अपने लिए चकाचक उजली एक कमीज तक नहीं खरीद पाता ।

मेरे पांव मेरे मन की बात सुनते और कार की ब्रेक लगा देते। मैं कार की खिडक़ी का शीशा नीचे करके उसे आवाज़ देती -कैसे हो तोताराम। दुआ-सलाम करते जाते तोताराम अपना बन बैठा था। उसने सिखाया था मुझे दिया बनाना। पास बिठा कर खिलायी थीं मिट्टी के चूल्हे पर बनी सोंधी गर्मागर्म रोटियाँ। रोटियों पर खुले हाथों से घी चुपड़ता था जबकि जानती थी मैं दूर गाँव में बैठी उसकी माँ ने पेट काट कर घी जोड़ा है तोताराम के लिए और वह जबरन मेरे लिए रोटी पर लगा देता है। एक कटोरी सब्ज़ी अपने हिस्से की बनी हुई, यह कह कर मुझे खिला देता कि नाश्ते के वक्त पर आयी हो रोटी -सब्जी खाए बिना मैं जाने नहीं दूँगा... और मैं उसके निमत्रंण से पहले ही आसन जमा लेती।

तोताराम ! किस पते पर लिखें खत, कि उन्हें मिट्टी की सोंधी महक तो मिली, घर नहीं

कहां मिलता है ऐसा प्यार? गर्मागर्म रोटियों पर लगे घी पर मैंने तोताराम का प्यार से पिघलता हुआ दिल देखा है। जब भी उससे दिया-कुल्हड़ खरीदना चाहा- उसका हर बार एक ही रटा-रटाया जवाब होता- यह सब तुम्हारा ही है... जो चाहे ले जाओ, जितना मर्जी। मैं उसका औदार्य अचरज से देखती रह जाती... पांव जड़ हो जाते मेरे। मैं दो कुल्हड़ हाथ में उठा कर, आवां पर पका तोताराम का स्नेह घर में साथ ले आती थी।

कभी घड़ा खरीदने की चाह में जब उससे उसकी कीमत जाननी चाही- वह घड़ा हाथ में पकड़ाते हुए बोला- एक रुपए का भी नहीं है... ऐसे ही लेकर जाओ। हाथ में उसे ज़बरन पकड़ाते हुए कहता- लेकर जाओ! जाकर ठंडा पानी पिओ। पानी पीकर बताना। मैं हैरत से खड़ी उसे देखती रहती। उसके प्यार की शीतलता से भीग जाती। सोचने लगती... पानी पिलाना तो पुण्य का काम होता है और यह तोताराम तो मुझे पानी का घड़ा ही दे रहा है। उसका पवित्र मिट्टी सा प्यार मुझे नि:शब्द कर देता।

गर्मियों की कडक़ धूप में जब सडक़ें खाली होतीं, आसमान में परिंदा नहीं होता तोताराम बना रहा होता बैठा ढेरों- ढेर दिए। गर्मियों के उन दिनों में जब मैं कहीं से घर लौट रही होती, मुझे देखते ही काम रोक कर दौड़ा चला आता मेरे पास और कहता रुको! दो घड़ी बैठ कर जाओ। मैं ठंडा मंगवाता हूं, गर्मी बहुत है, ठंडा पीकर घर जाना। मैं उस फटीचर को हैरत से देखती रह जाती कि दिए बनाने की मिट्टी भी उधार पर लाता है और मुझे पिलाएगा ठंडे शर्बत की बोतल। उसकी बातें मेरी आंखों में ठंडा-मीठा पानी उतार लातीं। भीग जाता था मेरा चेहरा।

मैं वहाँ से लौटते हुए सोचती रहती कि आज के इस समय में शायद ही कोई इस तरह नि:स्वार्थ भाव से किसी को प्यार करता हो। आग्रह से कभी गर्म रोटी... कभी ठंडा पानी पिलाता हो। आज जब आस -पास रहने वाले लोग... साथ रहने वाले पड़ोसी एक-दूसरे का नाम नहीं जानते, किसी का सुख-दुख.... हाल-चाल नहीं जानते यह गरीबनवाज अनजान लोगों पर अपने प्यार की दौलत लुटाता जाता है।

मैं अक्सर उससे कहा करती थी- मिट्टी से उपजा तुम्हारा पैसा मिट्टी हो जाता है, तोताराम! कुछ भी नहीं बचता है तुम्हारे पास, जबकि कहते हैं कि मिट्टी सोना है अगर मिट्टी सोना है तो तुम क्यों नहीं हो दौलतमंद? तुम्हारा सोना मिट्टी क्यों हो जाता है? मैं पूछती रहती और वह चुपचाप दिया बनाता रहता। सवाल अब भी वही हैं मेरे पास। बस जगह बदल गई है मेरे सवालों के पूछने की। अब फलटन में रह कर जवाब तलाशती हूं। तलाशती हूं तोताराम, तोताराम का प्यार। न मिलने पर थक-हार कर तोताराम को खत लिखना चाहती हूं... लिख कर उससे बात करना चाहती हूं, बताना चाहती हूं उसे कि तुम मुझे याद आते हो, फिर याद आता है कि उसे खत लिखने के लिए तो पता चाहिए। पते के लिए घर और घर ही तो नहीं है तोताराम के पास।

ruchibhalla72@gmail.com

zafar

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