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चाबहार बंदरगाह की सफलता भारत के लिए एक बड़ी उपलब्धि
प्रमोद भार्गव
पाकिस्तान और चीन की सभी कूटनीतियों को दरकिनार करते हुए भारत ईरान के रास्ते पहुंचने वाले वैकल्पिक मार्ग, अर्थात चाबहार बंदरगाह को शुरू कराने में सफल हो गया है। भारत सरकार दो लाख करोड़ के पूंजी निवेश से इस बंदरगाह पर पांच गोदियों का निर्माण कर रहा है, इनमें से दो बनकर तैयार हो गई हैं। इन्हीं में से एक पर भारत से गेहूं का भरा जहाज इस बंदरगाह पर पहुंचा, जिसकी अगवानी ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी ने की। इसी के साथ इस बंदरगाह का उद्घाटन संपन्न हो गया।
इस मौके पर भारत के जहाजरानी राज्यमंत्री पी. राधाकृष्णन सहित कई देशों के मंत्री और राजदूत भी मौजूद थे। भारत के लिए यह बंदरगाह आर्थिक, सामरिक एवं रणनीतिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण है। इस परियोजना के पहले चरण को ‘शाहिद बेहश्ती पोर्ट’ के नाम से जाना जाएगा। वैसे चाबहार का अर्थ ‘चारों ओर बहार’ अर्थात खुशहाली से है।
ईरान के सिस्तान-बलूचिस्तान परांत में स्थित इस बंदरगाह की भौगोलिक स्थिति बेहद अहम् है। यहां से महज 72 किमी दूर पाकिस्तान का ग्वादर बंदरगाह है। इसे चीन ने विकसित किया है। यह बहुत पहले से संचालित है। दरअसल पाकिस्तान ने कूटनीतिक चाल चलते हुए अपने क्षेत्र से भारतीय जहाजों को अफगानिस्तान ले जाने से मना कर दिया था। नतीजतन भारत ने वैकल्पिक मार्ग की तलाश की और चाबहार बंदरगाह ईरान के साथ हुए द्विपक्षीय समझौते के बाद अस्तित्व में आया। भारत के लिए यह रास्ता इसलिए बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि पाक और चीन की मिली-जुली रणनीति के तहत भारत को दक्षिण एशिया में हाशिए पर डालने की कुटिल चाल अपनाई हुई थी।
चीन ने दक्षिण एशिया में बड़ा पूंजी निवेश करते हुए पाक, श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल आदि देशों से मजबूत आर्थिक व सामरिक संबंध बना लिए हैं। इनके जरिए चीन एवं पाक ने भारत और अफगानिस्तान के बीच व्यापार को प्रतिबंधित करने की कोशिश की थी, जो अब नाकाम हो गई है। भारत से चाबहार बंदरगाह बनवाए जाने की बुनियाद 2002 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और ईरानी राष्ट्रपति सैयद मोहम्मद खातमी ने डाली थी, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सकारात्मक पहल के बाद अब वजूद में आ गया है।
ईरान से भारत के संबंध अमूमन ठीक-ठाक रहे हैं। ईरान-ईराक युद्घ और फिर गोपनीय परमाणु कार्यक्रम को आगे बढ़ाने के एवज में ईरान दुनिया से अलग-थलग पडऩे लग गया था। अहमदीनेजाद के राष्ट्रपति रहते हुए ईरान और अमेरिका के बीच संबंध बिगड़ गए थे। इस कारण संयुक्त राष्ट्र ने ईरान पर कई तरह के आर्थिक प्रतिबंध लगाने के साथ उसकी 100 अरब डॉलर की संपत्ति भी जब्त कर ली थी। इसके अलावा ईरान पर तेल और गैस बेचने की भी रोक लगा दी थी। लेकिन जब ईरान में हसन रूहानी राष्ट्रपति बने तो हालात बदलना शुरू हुए।
दूसरी तरफ पश्चिमी एशिया की बदल रही राजनीति ने भी ईरान और अमेरिका को निकट लाने का काम किया। नतीजतन अमेरिका व अन्य पश्चिमी देशों से ईरान के संबंध सुधरने लगे। जब भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2016 में ईरान की यात्रा की तो उस समय १२ द्विपक्षीय समझौते किए गए। इससे ईरान की वैश्विक साख मजबूत हुई और उसके लिए रास्ते खुलते चले गए।
अटल बिहारी वाजपेयी जब प्रधानमंत्री थे, तब 2003 में ईरान के तत्कालीन राष्ट्रपति खातमी दिल्ली आए थे। तभी भारत और ईरान के बीच चाबहार बंदरगाह को विकसित करने व रेल लाइन बिछाने और कुछ सडक़ें बनाने के बारे में समझौते हो गए थे, लेकिन विवादित परमाणु कार्यक्रम और अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियां अनुकूल नहीं होने के कारण भारत इन कार्यक्रमों में रुचि होने के बावजूद कुछ नहीं कर पाया था।
उस समय भारत को परमाणु शक्ति के रूप में उभरने व स्थापित होने के लिए अमेरिकी सहयोग व समर्थन की जरूरत थी। भारत राजस्थान के रेगिस्तान में परमाणु परीक्षण के लिए तैयार था। इसके तत्काल बाद पाकिस्तान और उत्तर कोरिया ने भी परमाणु बम बना लेने की तस्दीक कर दी। इसी दौर में भारत परमाणु निरस्त्रीकरण की कोशिश में लग गया। इस नाते भारत यह कतई नहीं चाहता था कि ईरान परमाणु शक्ति संपन्न देश बन जाए। भारत को परमाणु अप्रसार संधि के मुद्दे पर अमेरिकी दबाव में ईरान के खिलाफ दो मर्तबा वोट देने पड़े थे। इन मतदानों के समय केंद्र में मनमोहन सिंह प्रधनमंत्री थे। हालांकि 2012 में तेरहान में आयोजित गुट निरपेक्ष देषों के सम्मेलन में मनमोहन सिंह ईरान गए थे। उन्होंने सम्मेलन के एजेंडे से इतर ईरानी नेताओं से बातचीत भी की थी, लेकिन संवाद की करिश्माई शैली नहीं होने के कारण जड़ता टूट नहीं पाई थी और गतिरोध कायम रहा।
ग्वादर में चीन की रुचि
दरअसल चीन ने अपनी पूंजी से ग्वादर बंदरगाह का विकास अपने दूरगामी हितों को ध्यान में रखते हुए किया है। इसके मार्फत चीन एक तो चीन हिंद महासागर तक सीधी पहुंच बनाने को आतुर है, दूसरे खाड़ी के देशों में पकड़ मजबूत करना चाहता है। चीन इसी क्रम में काशगर से ग्वादर तक 3000 किलोमीटर लंबा आर्थिक गलियारा बनाने में लगा हुआ है। इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए चीन पाकिस्तान में 46 लाख अरब डॉलर खर्च कर रहा है। इससे यह आशंका भी बनी है कि चीन इस बंदरगाह से भारत की सामरिक गतिविधियों पर खुफिया नजर रखेगा। अलबत्ता अब भारत को ग्वादर के इर्द-गिर्द चीन व पाकिस्तानी गतिविधियों पर नजर रखने के लिए मचान मिल गया है।
भारत को कारोबारी फायदा
अब भारत के लिए चाबहार के मार्फत अफगानिस्तान समेत मध्य-एशियाई देशों तक आयात-निर्यात की जाने वाली वस्तुओं की पहुंच सुगम होगी। इस सिलसिले में भारत अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण के लिए जो विकास परियोजनाएं चला रहा है, उनमें गति आएगी। क्योंकि अब तक पाकिस्तान इन पुनीत कामों में रोड़े अटकाता रहा है और चीन भी नहीं चाहता कि भारत के संबंध अफगानिस्तान से मधुर बनें। लेकिन भारत ने चीन समेत उन शक्तियों को अब कूटनीतिक पटकनी दे दी है, जो भारत के मध्य एशियाई देशों से संबंध खराब बनाए रखने की कुटिल चालें चल रहे थे।
हालांकि इस बंदरगाह में निवेश के अनुपात में आर्थिक लाभ होगा ही, इसे लेकर आशंकाएं भी हैं, क्योंकि ईरान खुद चाबहार के विकास में पूंजी लगाने में कंजूसी बरतता रहा है। जबकि ग्वादर में तेल शोधन संयंत्र लगाने के लिए ईरान चार अरब डॉलर खर्च करने को तैयार है। किंतु चाबहार का सामरिक, रणनीतिक और कूटनीतिक महत्व है, इसमें कोई संदेह नहीं है। बहरहाल चाबहार नामक इस बंदरगाह के निर्माण में की गई भागीदारी से भारत को उम्मीद है कि ईरान और अफगानिस्तान से भारत के संबंधों में अर्से तक मधुरता बनी रहेगी।
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं)