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लोकसभा चुनाव : कड़ी चुनौती झेल रहे मंझे हुए खिलाड़ी चंद्रबाबू नायडू
अमरावती। आंध्र प्रदेश की तेलुगु देशम पार्टी यानी टीडीपी का भारत की समकालीन राजनीति में वही केंद्रीय महत्व है जो तमिलनाडु की डीएमके एआईएडीएमके, यूपी की एसपी - बीएसपी, महाराष्ट्र की एनसीपी और बंगाल की टीएमसी का रहा है। टीडीपी को इस मुकाम पर पहुंचाने वाले नेता हैं पार्टी के अध्यक्ष चंद्रबाबू नायडू।
1999 में गठबंधन राजनीति की अहम धुरी बनकर चंद्रबाबू नायडू की पार्टी ने केंद्र में एनडीए सरकार के साथ शिरकत की। 2014 में भी वो एनडीए के साथ बने रहे लेकिन पिछले साल एनडीए और मोदी सरकार के रवैये से कथित रूप से नाराज होकर अलग हो गए। राज्य स्तर पर कांग्रेस के साथ गठजोड़ की उनकी सैद्धांतिक सहमति बनी है और गैरएनडीए विपक्षी दलों के गठबंधन में वह अहम किरदार के रूप में सक्रिय हैं।
अगर क्षेत्रीय राजनीति में वर्चस्व की लड़ाइयों को देखें तो ऐसा भी नहीं है कि आंध्र प्रदेश में अकेले सर्वमान्य और सबसे लोकप्रिय नेता नायडू हैं। तेलंगाना बनने से पहले टीएस चंद्रशेखर राव और असदउद्दीन औवेसी उनके सामने थे और आज की सबसे बड़ी चुनौती के रूप में उनके सामने हैं वाईएसआर कांग्रेस के 46 साल के तेजतर्रार नेता जगन रेड्डी, जो विधानसभा में विपक्ष के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री दिवंगत वाईएस राजशेखर रेड्डी के पुत्र हैं।
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जगन रेड्डी २०१९ के चुनावों के लिए लंबे समय से तैयारी कर रहे हैं। यह चुनाव उनके लिए बनने या खत्म हो जाने सरीखा है। जगन काफी लोकप्रिय भी हैं और ओपीनियन पोल के मुताबिक वह नायडू पर भारी पड़ रहे हैं लेकिन यही स्थिति २०१४ में थी और अंत समय में जगन की पार्टी को टीडीपी ने ध्वस्त कर दिया था। उस चुनाव में जगन के पास नायडू जैसे अनुभव, राजनीतिक चतुरता और संगठानात्मक मजबूती की कमी थी लेकिन बीते ५ साल में जगन ने इन कमियों को दूर करने का भरपूर प्रयास किया है, कम से कम ऊपर से यही दिखता है।
जगन ने नायडू की तर्ज पर राज्य भर में पदयात्राएं की हैं और ग्रामीणों व किसानों को अपने साथ जोड़ा है। इसके अलावा उन्होंने प्रभावशाली रेड्डी समुदाय के अलावा ईसाई व मुसलमानों को अपनी ओर खींचने की कोशिश खूब की हैं। जगन के खिलाफ जो बात जाती है वह है उन पर लगे भ्रष्टाचार के तमाम आरोप। टीडीपी ने जगन को रईस बिजनेसमैन दिखाने वाले कई वीडियो चलाए हैं। उनपर यह ठप्पा लगाने की कोशिश की गई है कि जब उनके पिता मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने खूब पैसा बनाया।
२०१९ के चुनावों में नायडू यह भांप चुके हैं कि राज्य में एंटी इनकम्बैंसी भावना है। वह रोजगार, आर्थिक मोर्चे व राज्य की भव्यतम राजधानी बनाने के मुद्दे पर अपने वादे पूरे नहीं कर पाए हैं। नायडू सभी समस्याओं के लिए मोदी को दोषी ठहराते हैं।
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गठबंधन सरकारों के दौर में टीडीपी एक महत्वपूर्ण कड़ी बनी रही है। भाजपा की अगुवाई वाला एनडीए गठबंधन हो या कांग्रेस की अगुवाई वाला यूपीए गठबंधन, टीडीपी की आवाजाही और पहुंच दोनों में रही है। 37 साल पुरानी ये पार्टी, एनटी रामाराव यानी एनटीआर की विरासत से फली-फूली है और एनटीआर के बाद चंद्रबाबू नायडू के प्रताप और जबर्दस्त संगठनात्मक कौशल की बदौलत व्यापक हुई है। 2018 में चंद्रबाबू ने राजनीति में अपने चार दशक पूरे किए हैं। चंद्रबाबू 27 साल की उम्र के थे, जब 1978 में वह चुनाव जीतकर अविभाजित आंध्र प्रदेश की विधानसभा में दाखिल हुए थे। उस समय सरकार कांग्रेस की थी और चंद्रबाबू उसमें 'सिनेमैटोग्राफी मंत्री बनाए गए थे। सबसे कम उम्र वाले मंत्री का रिकॉर्ड उनके नाम है।
राजनीति में सफलता और तरक्की की सीढिय़ां चढऩे में लंबे कद के चंद्रबाबू ने देर नहीं की। अपने दौर के प्रखर राजनीतिज्ञ और लोकप्रिय फिल्म अभिनेता एनटी रामाराव की बेटी के साथ उनका विवाह हुआ। एनटीआर ने टीडीपी का गठन किया तो चंद्रबाबू उनके दामाद ही नहीं बल्कि उत्तराधिकारी के रूप में उनके बगलगीर थे। मध्यवर्गीय परिवार और सामान्य आर्थिक पृष्ठभूमि वाले और गॉडफादर रहित चंद्रबाबू का आंध्र की सत्ता राजनीति के शीर्ष पर पहुंच जाना, चमत्कार ही था। इसमें किस्मत से ज्यादा सत्ता राजनीति की ऊंच नीच को भांपने का चंद्रबाबू के कौशल का हाथ था।
कई रिकार्ड हैं इनके नाम
चंद्रबाबू के नाम आंध्र की राजनीति के कई रिकॉर्ड हैं। राज्य में चार दशक की राजनीतिक सक्रियता के अलावा सबसे अधिक लंबी अवधि तक मुख्यमंत्री पद पर बने रहने का (१९९५ से २००४) रिकार्ड भी उनके नाम है। वर्ष 2004 से 2014 के दौरान चंद्रबाबू ने विधानसभा में विपक्ष के नेता के रूप में सबसे लंबी अवधि का भी रिकॉर्ड बनाया है।
अब मुख्यमंत्री के रूप में 2014-2019 का ताजा कार्यकाल उनके पास है और एक बार फिर चंद्रबाबू नायडू अपने रिकॉर्ड को सुधारने की जीतोड़ मेहनत में जुटे हैं। जैसे बंगाल की राजनीति से ममता बनर्जी ने वाम दलों को किनारे धकेल दिया उसी तरह आंध्र में नायडू ने कांग्रेस के वर्चस्व और एकछत्र शासन को खत्म किया है। ये बात अलग है कि आज आंध्र में उसी कांग्रेस के साथ की उन्हें जरूरत पड़ रही है। एचडी देवेगौड़ा और इंद्रकुमार गुजराल जैसे गैर कांग्रेसी नेताओं को प्रधानमंत्री बनवाने में उनका योगदान अग्रणी था।
नायडू की लोकप्रियता और मुख्यमंत्री के रूप में उनकी सफलताओं के पीछे एक बड़ी वजह उद्योग जगत के साथ उनकी ठोस दोस्ती और किसानों के प्रति उनकी व्यवहारिक संवेदनशीलता रही है। हैदराबाद को आईटी हब बनाकर साइबराबाद का नाम देने वाले, मुख्यमंत्री पद में औद्योगिक तत्परता और कॉरपोरेटी मिजाज के गुणों को समाहित करके सीईओ-सीएम कहलाने वाले चंद्रबाबू नायडू अपनी नेतृत्व क्षमताओं और चतुर रणनीतियों के दम पर अपना सिक्का मनवाते आए हैं।
नायडू पार्टी के खेवनहार भी माने जाते हैं। 1984 में जब एन. भास्कर राव ने तख्ता पलट कर, कांग्रेस की मदद से एनटीआर को सत्ता से हटवा दिया तो नायडू ही थे जिन्होंने अपने ससुर को कुछ सहारों के साथ वापस सत्ता पर बैठाया, गैर कांग्रेसी विपक्षी दलों की मदद से उन्होंने ये मुमकिन कर दिखाया। दूसरी बार नायडू ने तो और बड़ा कमाल किया। एनटीआर की दूसरी पत्नी लक्ष्मी पार्वती के साथ वर्चस्व की लड़ाई होने लगी तो उन्होंने अपने ससुर के खिलाफ ही एक तरह से बगावत कर दी लेकिन सत्ता का हस्तांतरण उनकी ओर सहजता से हो गया जब 1999 के चुनावों में उनकी वापसी हुई।
विपक्षी एकता का चेहरा
टीडीपी के अस्तित्व पर बड़ा संकट, तेलंगाना राज्य आंदोलन के दौरान भी आया। तेलुगु आत्मगौरव के सम्मान के नारे के साथ अस्तित्व और बाद में सत्ता में आई पार्टी, तेलंगाना, रायलसीमा और तटीय आंध्र जैसे इलाकों में अपनी पुरानी एनटीआरवादी राजनीतिक कुशलता को बना कर नहीं रख पाई। ये इलाके उससे छूटते गए। पार्टी के ही तत्कालीन नेता के चंद्रशेखर राव ने तेलंगाना राज्य के लिए आंदोलन चला दिया और टीडीपी आंध्र की पार्टी के रूप में सिमट गई। 2014 में जब तेलंगाना अलग हुआ तो किसी तरह विभाजन के खिलाफ भावनात्मक ज्वार को भुनाते हुए नायडू की पार्टी सत्ता में लौट पाई।
44 साल की उम्र में चंद्रबाबू ने एनटीआर से पार्टी की कमान संभाली थी। 2014 में चुनाव के दौरान उन्होंने 2300 किलोमीटर की पैदल यात्रा कर राज्य का गांव गांव नाप दिया जिसका उन्हें फायदा भी मिला और आज जब वो 67 साल के हो रहे हैं तो बताया जाता है कि 18-18 घंटे काम करते हैं। टीएमसी, बसपा या अन्नाद्रमुक में उत्तराधिकार के जो संकट रहे हैं, टीडीपी में वैसा न हो, यह भी चंद्रबाबू नायडू सुनिश्चित कर चुके हैं। परिवारवादी राजनीति के तहत ही नायडू अपने बेटे, बहू को राजनीति में उतार चुके हैं।
२०१४ के चुनाव में टीडीपी ने भाजपा से गठजोड़ कर विधानसभा की १७५ सीटों में से १०६ पर जीत दर्ज की थी जबकि वाईएसआर कांग्रेस को ६८ सीटें मिली थीं। लोकसभा की २५ सीटों में से टीडीपी को १६, भाजपा को २ तथा वाईएसआर कांग्रेस को ७ पर जीत मिली थी।
इस बार के चुनावों में सोशल मीडिया और पब्लिसिटी का जबर्दस्त इस्तेमाल किया जा रहा है। इस बार की विशेषता बायोपिक्स हैं। जहां नंदमूरी बालाकृष्ण ने अपनी पिता एïनटी रामाराव पर दो पार्ट की बायोपिक बनाई है वहीं जगन ने अपने पिता पर बनी बायोपिक उतार दी है।