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लोकसभा चुनाव 2019: इस बार चुनावी पर्व से गायब हैं कई बड़े चेहरे

raghvendra
Published on: 26 April 2019 7:49 AM GMT
लोकसभा चुनाव 2019: इस बार चुनावी पर्व से गायब हैं कई बड़े चेहरे
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लखनऊ: हर पांच साल बाद होने वाले चुनावी पर्व में नेताओं का निकलकर सामने आना एक परम्परा रही है। यूपी में कई ऐसे चेहरे हैं जो पहले के चुनाव के दौरान काफी सक्रिय भूमिका अदा करते थे मगर इस बार वे चुनावी परिदृश्य से पूरी तरह बाहर हैं। एक दौरा ऐसा था कि चुनाव में अपनी पार्टी को जिताने के लिए ये नेता पूरा जोर लगाते थे मगर समय के साथ उनकी प्रासंगिकता खत्म हो गयी। आइए जानते हैं कुछ ऐसे नेताओं के बारे में जो इस बार चुनाव में नहीं दिख रहे हैं।

लालकृष्ण आडवाणी

देश की आजादी के बाद हुए अब तक के लोकसभा चुनावों में यह पहला चुनाव है जिसमें वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी की भूमिका बिल्कुल भी नहीं है। पिछले चुनाव में भी आडवाणी ने यूपी में कई स्थानों पर जनसभआ की थी। किसी जमाने में भाजपा के पीएम पद का चेहरा रहे आडवाणी इस बार चुनाव में पूरी तरह अलग-थलग पड़े हुए हैं। पार्टी के कद्दावर नेताओं में शुमार रहे आडवाणी की पहले टिकट वितरण से लेकर चुनावी जनसभाओं के लिए खूब मांग हुआ करती थी। उनकी पुरानी सीट पर इस बार पार्टी अध्यक्ष अमित शाह चुनाव मैदान में उतरे हैं। इस चुनाव में पूर्व उपप्रधानमंत्री एवं भाजपा अध्यक्ष रह चुके आडवाणी को पार्टी ने जबरन ‘रिटायर’ कर दिया है।

डा. मुरली मनोहर जोशी

कभी अटल व आडवाणी के बाद तीसरे नम्बर के भाजपा नेता डा. मुरली मनोहर जोशी का काफी बड़ा कद हुआ करता था। छह बार लोकसभा के सांसद बने डा.मुरली मनोहर जोशी की हर चुनाव में जनसभाओं को लेकर डिमांड हुआ करती थी। वह अटल सरकार में मानव संसाधन मंत्री तथा पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे। पिछली बार कानपुर से सांसद चुने गए, लेकिन इस बार भाजपा ने उम्र का हवाला देते हुए उन्हें टिकट नहीं दिया। वे इस चुनाव में पूरी निष्क्रिय बने हुए हैं।

कल्याण सिंह

एक समय यूपी में भाजपा की राजनीति का पर्याय रहे कल्याण सिंह अब राजस्थान के राज्यपाल की भूमिका में है। एक दौर ऐसा भी था कि वे यूपी में भाजपा के सबसे ताकवर नेता माने जाते थे। 1991 के उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने के बाद वह विधान सभा में विपक्ष के नेता भी बने। सितम्बर 1997 से नवम्बर 1999 तक पुन: उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। दिसम्बर 1999 में कल्याण सिंह ने पार्टी छोड़ दी और जनवरी 2004 में पुन: भाजपा से जुड़े। 2009 में उन्होंने पुन: भाजपा को छोड़ दिया और एटा लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से निर्दलीय सांसद चुने गये। इसके बाद 2014 में मोदी सरकार बनने के बाद उन्हें 2015 में राजस्थान का राज्यपाल बना दिया गया। पिछले दिनों वे मोदी को वोट देने की अपील के कारण विवादों में भी आ गए थे।

केशरीनाथ त्रिपाठी

यूपी विधानसभा में तीन बार अध्यक्ष बनने वाले केशरी नाथ त्रिपाठी के टक्कर का कोई भी संवैधानिक जानकार नहीं है। पांच बार विधानसभा का चुनाव जीतने वाले केशरी नाथ को भाजपा यूपी में ब्राह्मण चेहरे के रूप में पेश करती रही, लेकिन पश्चिम बंगाल का राज्यपाल बनने के कारण इस बार वह चुनावी राजनीति से पूरी तरह दूर हैं।

लालजी टंडन

कल्याण सिंह और राजनाथ सिंह की सरकार में नगर विकास मंत्री और लखनऊ के सांसद रहे लालजी टंडन अपने बेटे आशुतोष टंडन को राजनीतिक विरासत सौंपने के बाद सक्रिय राजनीति से अलग है। इस समय वह बिहार के गवर्नर पद पर कार्यरत हैं। पिछले विधानसभा चुनाव तक यूपी की राजनीति का एक केन्द्र टंडन जी का आवास भी हुआ करता था। पूर्व पीएम अटल बिहारी के लखनऊ से चुनाव लडऩे के दौरान टंडन की चुनाव प्रचार में प्रमुख भूमिका हुआ करती थी।

ओमप्रकाश सिंह

चार दशक तक प्रद्रेश की राजनीति में सक्रिय रहे ओमप्रकाश सिंह की पहचान भाजपा में पिछड़े नेता के तौर पर की जाती रही है। वह 1977 में जनता पार्टी सरकार में मंत्री रहने के बाद भाजपा की प्रदेश सरकारों में लोकनिर्माण, सिंचाई और उच्च शिक्षा मंत्री पर रहने के साथ ही पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष भी रहे। 2012 का विधानसभा चुनाव हारने के बाद से वह लगातार पार्टी में निष्क्रिय हैं। इस बार के लोकसभा चुनाव में उनकी कोई भूमिका नहीं दिख रही है।

बेनी प्रसाद वर्मा

कभी समाजवादी पार्टी में रहे बेनी प्रसाद वर्मा की तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव के साथ जबरदस्त जुगलबंदी हुआ करती थी। वह प्रदेश सरकार में मंत्री रहने के साथ ही केन्द्र सरकार में भी दो बार मंत्री रहे। उन्होंने अपनी पार्टी भी बनाई और बाद में कांग्रेस में भी रहे मगर फिर कांग्रेस में भी उनकी नहीं बनी। इन दिनों वह सक्रिय राजनीति से बिल्कुल अलग हो चुके हैं।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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