×

दलित राजनीति में बदलाव की बयार, नेतृत्व में परिवर्तन के आसार

raghvendra
Published on: 5 April 2019 2:58 PM IST
दलित राजनीति में बदलाव की बयार, नेतृत्व में परिवर्तन के आसार
X

राजीव सक्सेना

लखनऊ: उत्तर प्रदेश की दलित राजनीति में बदलाव होते दिख रहे हैं। अभी तक जो दलित राजनीति बसपा सुप्रीमो मायावती के इर्दगिर्द घूमती रही थी, उसमें ‘रावण’ ने सेंध लगा दी है। असल में भीम आर्मी भारत एकता मिशन के मुखिया चंद्रशेखर आजाद ‘रावण’ ने अम्बेडकरवाद के प्रचलित स्वरूप को एक नए कलेवर में प्रस्तुत किया है, राजनीतिक वर्चस्व के मुकाबले दलित समाज में सामाजिक न्याय और शिक्षा को वरीयता देकर। पूर्व में उन्होंने भले ही अनेकबार बहुजन समाज पार्टी की सर्वेसर्वा मायावती के प्रति अपनी प्रतिबद्धिता का इजहार किया हो मगर सहारनपुर में जातीय टकराव के चलते 15 महीने की जेल काटने वालेचंद्रशेखर खुद को अन्य दलित नेताओं की पंक्ति से पृथक रखना चाहते है। सच्चाई यही है कि मायावती के चार मुख्यमंत्रित्व काल भी दलित समाज को आत्मसम्मान दिलाने में विफल रहे।

भारतीय समाज के सबसे नीचे पायदान पर अटके दलित आज भी जीवन में वास्तविक व सार्थक उत्थान की राह तलाश रहे हैं। चंद्रशेखर को दिखाई दे रहा है कि पिछले चंद दशकों में मायावती और अन्य दलित नेता जैसे कि कांग्रेस के जगजीवन राम, उनकी पुत्री मीरा कुमार, केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान, जिग्नेश मेवानी, रामदास अठावले, प्रकाश अंबेडकर आदि ब्राह्मणवाद-मनुवाद को गरियाते हुए राजनीति की सीढिय़ां चढ़े या चढ़ते जा रहे हैं। पैसा, वंशवाद, घोटाले, भ्रष्टाचार इस सफर में दलित नेताओं के अभिन्न साथी रहे हैं पर यथार्थ में दलितों को सही मायने में हक व सम्मान दिलाने वाला कोई भी परिवर्तन मूलत: गायब ही रहा है और जब-जब भी दलित नेताओं ने सवर्ण या पिछड़ी जातियों की बैसाखी के सहारे सत्ता पाई तब-तब उन्हें धूल ही चाटनी पड़ी।

राजनीति की भेंट चढ़ा अंबेडकर का दर्शन

कोई आश्चर्य नहीं कि बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर की मात्र मूर्तियां रह गईं हैं। उनका दर्शन और विचार व्यावहारिक राजनीति की भेंट चढ़ गया है। बाबा साहेब के नाम को अधिकतम भुनाने वाली बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती अपने ही जीवनकाल में अपने ही पुतले और स्मारक बनवाकर एक नयी सांस्कृतिक परंपरा स्थापित कर रही हैं। कहीं यह पाखंड बहन जी की गहरी आतंरिक असुरक्षा का प्रतीक तो नहीं? इसी दो अप्रैल को उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामे के माध्यम से अपने मूर्ति प्रेम की जोरदार वकालत की। इस सन्दर्भ में उन्होंने जनता के टैक्स से बनी अपनी मूर्तियों की तुलना स्टेचू ऑफ लिबर्टी, सरदार वल्लभ भाई पटेल, जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, पी.वी. नरसिम्हा राव की प्रतिमाओं से की और यह भी दावा किया की यह सब जनता जनार्दन की इच्छा का सम्मान है। अहंकारोन्मांद का इससे प्रचंड प्रमाण जनतंत्र में मिलना तो दुष्कर ही है।

मायावती ने बोला चंद्रशेखर पर हमला

बहुजन समाज पार्टी के प्रणेता, संस्थापक और उनके गुरु कांशीराम अन्य दलों में ऐसे व्यवहार को ‘चमचागिरी’ की संज्ञा देते थे, किन्तु वे भी अपने जीवनकाल में ही राजनीति रूपी महाठगिनी के जाल में फंस चुके थे। राजनीतिक सत्ता को परम सत्य और प्रथम उद्देश्य मानने वाले कांशीराम ने अपने समय में समाजवादी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन की सरकार बनाई थी और अपनी परमप्रिय शिष्या मायावती को मुख्यमंत्री बनवाया था। शायद इसीलिए जब चंद्रशेखर ने दलित प्रतिनिधि के तौर पर वाराणसी लोकसभा सीट से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ चुनाव लडऩे की घोषणा की तो मायावती भडक़ उठीं।

उन्हें आजाद में दलित राजनीति में एक और सशक्त दावेदार दिखाई देने लगा। मायावती ने तुरंत आजाद को भारतीय जनता पार्टी के ‘एजेंट’तक बता दिया जो दलित वोटों में सेंध लगाना चाहता है। पलटवार में चंद्रशेखर नेमायावती के समाजवादी सहयोगियों मुलायम सिंह यादव व उनके पुत्र अखिलेश को भाजपा का एजेंट करार दिया जो बसपा के ब्राह्मण दिग्गज सतीश चंद्र मिश्रा के इशारे पर मायावती और दलित आंदोलन को खोखला बनाने की कोशिश में जुटे हैं। इतना तो स्पष्ट ही है कि मायावती दलित नेतृत्व पर अपनी पकड़ किंचित मात्र भी ढीली करने वाली नहीं हैं। चर्चा है कि वह अपने 24वर्षीय भतीजे आकाश आनंद को राजनीतिक वारिस के तौर पर तैयार कर रही हैं।

सबकी नजर सिर्फ सत्ता पर

कभी बसपा और सपा गठबंधन का यूपी में राज था, लेकिन लखनऊ के कुख्यात गेस्ट हाउस कांड से गठबंधन के परखचे उड़ गए पर राजनीतिक विडम्बना और सत्ता की भूख का जोर कुछ ऐसा रहा कि मायावती और अखिलेश यादव 2019 के लोकसभा चुनाव में बराबर भागीदार हैं। 543 लोकसभा सीटों के लिए जोर आजमाइश है पर मायावती मु_ी भर सीट पर चुनाव लडक़र ही प्रधानमंत्री के पद पर आंख गड़ाए बैठी हैं। मौजूदा दौर की राजनीतिक बिसात पर ऊंट किसी भी करवट बैठ सकता है। भानमती के पिटारे से फुदक-फुदक कर मोटी, छोटी, नन्ही पार्टियां नरेंद्र मोदी की भाजपा नीत एनडीए सरकार के खिलाफ लामबंद हो रही हैं। तोल मोल का बाजार गरम है। यद्यपि कोई भी पार्टी अकेले भाजपा के करीब नहीं है पर हालत ‘दिल है कि मानता नहीं’ जैसी है। विचार, सिद्धांत और मीठे कड़वे पुराने अनुभव बिसरा दिए गए हैं। नजर सिर्फ सत्ता पर टिकी है।

दलित नेता मालामाल मगर दलितों की स्थिति नहीं सुधरी

जाति अस्मिता और पहचान का झंडा फहराकर दलित नेताओं ने अपनी पुश्तों के लिए इंतजाम तो कर लिया है पर आज का दलित अब भी प्रेमचंद की रचनाओं के दबे कुचले किरदारों से बेहतर नहीं है। शोषित के लिए ‘पूस की रात’ आज भी पहले सी बर्फीली है और ‘गोदान’ उतना ही कष्टकारी। अनसूचित जाति का सामाजिक उत्थान और गैर बराबरी का अंत मात्र नारे हैं। ये वादे तो दलितों के तथाकथित लम्बरदारों ने दशकों तक उछालकर अपनी किस्मत चमकाई है। सत्ता और लूट के इस बेशर्म खेल में दल बदले गए, दलित समाज को तमाम उपजातियों में बांटकर अपने-अपने छोटे-मोटे रजवाड़े खड़े किए गए। बहुजन धीरे-धीरे सर्वजन बन गया। पुराने सामाजिकआतताइयों और अब भी दलितों को हेय दृष्टि से देखने वालों के साथ अवसरवादी गठबंधन किए गए और अब भी किए जा रहे हैं।

गैर-दलित भारतीय राजनेता भी भिन्न नहीं

हिंदी पट्टी पर नजर डालें तो पाएंगे कि भले ही अम्बेडकर दलितों के आराध्य हों, लेकिन इस शोषित वर्ग को स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जनराजनीति में स्थान देने का श्रेय कांग्रेस को ही जाता है। एक सोची-समझी रणनीति के तहत कांग्रेस ने अपना दांव ब्राह्मण, अनसूचित जातियों/दलितों और मुसलमानों पर खेला और अस्सी के दशक की शुरुआत तक इस वोट बैंक का खूब लाभ उठाया, किन्तु इस प्रक्रिया में सम्पूर्ण दलित समाज का भला न हो सका। चंद उपजातियां ही थोड़ा बहुत उभर सकीं और एक तरीके से वे दलितों में सवर्ण बन गयीं। कुछ उसी तरह जैसे आज पिछड़ी जातियों में हम क्रीमी (मलाईदार) लेयर (परत) की बात करते हैं। राजनीति की तिकड़म ने दलितों में भी टुकड़े-टुकड़े कर दिए।

इस राजनीति-प्रेरित विघटन ने दलित आंदोलन पर कठोर कुठाराघात किया है। 2011 की जनगणना के अनुसार 66 दलित जातियां उत्तर प्रदेश की 21 प्रतिशत जनसंख्या बनती हैं। इसमें 55 प्रतिशत हिस्सेदारी के साथ जाटव/चमार सबसे ऊपर हैं। पासी 15 फीसदी और धोबी, कोरी व वाल्मीकि 10 फीसदी तथा गोंड़, धानुक और खटिक 5 फीसदी हैं। मायावती की जाटव उपजाति से इतर अन्य दलित उपजातियां आरक्षण एवं अन्य सुविधाओं में अपने को ठगा महसूस करती हैं और गत कुछ वर्षों से अपनी अलग राह तलाश रही हैं। दलित राजनीति का पतन हो रहा है। उदाहरणार्थ पासी समाज ने 2012 के राज्य चुनाव में समाजवादी पार्टी का साथ दिया और 2014 लोकसभा चुनाव में बीजेपी का। अम्बेडकर की धरोहर में दीमक लग गयी है। कारण उपजातियों के लिए नेताओं का मोह और समग्र दलित समाज की सेवा से गुरेज करना है।

ऐसे समय और काल में मायावती धन, ऐश्वर्य, राजसी विलास, भ्रष्टाचार और भोग का पर्याय बनती जा रही हैं। दम्भ और अक्खड़पन उनका दूसरा स्वभाव बन गया है। धुर-विपरीत विचारधारा की समाजवादी पार्टी से नाता जोडक़र उन्होंने अपने समर्थकों को असमंजस में डाल दिया है। चंद्रशेखर को भाजपा का एजेंट कहकर मायावती ने युवा दलितों को अपने से दूर ही किया है।बहन जी शायद भूल चुकी हैं कि 2014 के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी खाता भी नहीं खोल पाई थी। 2017 के विधानसभा चुनाव में वह इतनी सीट भी ना जीत पाईं किराज्यसभा पहुंच सकें। अब उत्तर प्रदेश के दलित नेतृत्व में परिवर्तन के आसार दिखाई देने लगे हैं और घिसी पिटी राजनीति के दिन लदने वाले हैं।



raghvendra

raghvendra

राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

Next Story