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विमर्श: नेतृत्व परिवर्तन, बहुत कुछ बदल जाएगा, कांग्रेस में तब
कांग्रेस पार्टी एक बार फिर नेतृत्व परिवर्तन के दौर से गुजर रही है। राहुल गांधी अब इसके नए अध्यक्ष बन चुके हैं। कुछ औपचारिकताएं भर रह गयी हैं
राघवेंद्र दुबे
कांग्रेस पार्टी एक बार फिर नेतृत्व परिवर्तन के दौर से गुजर रही है।राहुल गांधी अब इसके नए अध्यक्ष बन चुके हैं। कुछ औपचारिकताएं भर रह गयी हैं। वह भी पूरी हो जाएंगी।राहुल जी पार्टी के सर्वेसर्वा यानि अब नए हाईकमान हैं। सोनिया जी ने खुद को रिटायर घोषित कर दिया है। राहुल की इस नयी भूमिका को लेकर वरिष्ठ पत्रकार राघवेंद्र दुबे ने किश्तों में लिखा है। उनकी सभी किश्तें यहां इसलिए प्रस्तुत की जा रही हैं ताकि परिस्थिति को समग्रता में समझा जा सके।
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प्रेस क्लब ऑफ इंडिया ( दिल्ली ) में कुछ
मित्रों के साथ की बहुत निजी और मेज की लंबाई - चौड़ाई या
गोलाई तक में ही सिमटी 5 दिसम्बर की चर्चा अकेले में , आज तक
कोंच रही थी । लिहाजा लिखने बैठ गया ।
तकरीबन सभी इस बात पर सहमत थे कि राहुल गांधी में
इन दिनों और ज्यादा साफ दिख रही राजनीतिक परिपक्वता
और नायकत्व के लिए , कोई अवधि निर्धारण या तारीख तय करने
की कोशिश भी , एक साजिश का ही हिस्सा है । वे जो खासकर अमेरिका के दौरे और बर्कले विश्वविद्यालय में भाषण के बाद
बस तीन - चार महीने से ही , राहुल में परिपक्वता और हैरत
में डाल देने वाली चमक देख रहे हैं , गलत हैं ।
एक वरिष्ठ पत्रकार का कहना था कि राहुल इतने परिपक्व बहुत
पहले से हैं लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के आपराधिक दक्षता वाले गहन , संगठित कुप्रचार और चरित्र हनन की राजनीति ने धुंध गहरा दिया था। इसलिए गोदी मीडिया से ही अपनी राय
बनाने वाले ज्यादातर लोगों ने राहुल को हल्का राजनीतिक मान लिया।
वस्तुतः राहुल , आज जो दिख रहे हैं , उतने ही परिपक्व आज से ढाई - तीन साल पहले भी थे ।
गुजरात में नतीजा जो हो,राहुल गांधी की आक्रमकता ने
प्रधान सेवक को, भरा दिल , भर्राया गला और सजल आंख वाली नाटकीयता के लिए मजबूर तो कर ही दिया। काशी में कभी के गंगा पुत्र को न केवल गुजरात का बेटा बनना पड़ गया,रीजनल और
उपराष्ट्रीय संकीर्णता को भी हवा देनी पड़ गयी।
जब से केंद्र सरकार अपने वजूद में आयी,राहुल प्रतिपक्ष की सारी जिम्मेदारी और गरिमा के साथ बहुत सधे कदम थे ।
' अच्छे दिन ' जब पूरी तरह से अ- राजनीतिक और फैशन की
बहस का उत्प्रेरक हो चुका था , जिसकी ऊर्जा कारपोरेट लॉबी और अरब-खरब के मालिक अनिवासी भारतीयों की दौलत है
मोदी की सरकार पर पहली और उन्हें तिलमिला देने वाली टिप्पणी राहुल ने ही की। आज से दो साल पहले ही मौजूदा केंद्र सरकार को
'सूट-बूट' की सरकार कहकर, राहुल ने आवारा पूंजी के वर्चस्व और उससे छनती यारी को पहली सांकेतिक चुनौती दी थी ।
राजनीति में प्रतीकात्मक संदर्भ और नारे क्या मायने रखते हैं , राहुल ने इसे पहले ही समझ लिया ।
राहुल के कांग्रेस अध्यक्ष होने के भी अपने गहरे मायने हैं ।
हो सकता है उन्होंने पार्टी में मध्यवाम( सेंटर लेफ्ट )
रुझान के उभार और
देश के लिए नियंत्रित अर्थव्यवस्था का भी कोई प्रारूप
सोच लिया हो ।
वह उन सारे समूहों को जल्दी ही चौंका देंगे जिन्हें कांग्रेस
और भाजपा की आर्थिक नीति एक सी दिखती रही है । थी , भी ।
राहुल के अध्यक्ष होने का मतलब कांग्रेस में नेहरू - इंदिरा दौर का लौटना है। इसीलिए कांग्रेस के भीतर के 'इकोनॉमिकली राइटिस्ट' भी उनका दबा विरोध कर रहे थे। प्रधान सेवक जी के माथे पर पसीना क्यों आ जाता है बार - बार
इसके मायने भी कुछ - कुछ खुलने लगे हैं ।
कुछ मित्रों का मानना था कि दक्षिणपंथ दरअसल आर्थिक - राजनीतिक
( पोलिटिकल इकोनॉमिक) अवधारणा है। इस लिहाज से देश
में कोई राइटिस्ट पार्टी है ही नहीं।भाजपा तो,नस्ली श्रेष्ठता
की अवधारणा पर काम करते रहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का
राजनीतिक अनुषांगिक है।राहुल ने,प्रधान सेवक के दुखती
नस पर उंगली रख तो दी है ।
पूर्व प्रधानमंत्री स्व . राजीव गांधी के राजनीतिक रणनीतिकार
रहे,स्कॉलर,चिंतक राजनीतिक,डीपी त्रिपाठी का भी मानना है कि
राहुल गांधी के पार्टी अध्यक्ष होने से, कांग्रेस में मध्यवाम
( सेंटर लेफ्ट) के उभार की संभावना बढ़ गयी है ।
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थोड़ा ही पहले चलें । 2016 के जनवरी- फरवरी महीने में
ही मैंने लिखा था --
' भूमि अर्जन, पुनर्वासन और पुनर्व्यवस्थापन में उचित
प्रतिकार और पारदर्शिता अधिकार संशोधन विधेयक 2015 ' ( लैंड एक्वीजीशन बिल) के विरोध में देश भर में पनपे आक्रोश के आगे
राहुल गांधी ने खुद को नेतृत्वकर्ता भूमिका में खड़ा
कर लिया था । किसानों की अब तक लक्ष्य न की गयी हर
बुनियादी समस्या को अपनी सक्रियता से जोड़ा । यह जोखिम लेकर
भी खुद को ' पोलिटिकली करेक्ट ' करने की कोशिश ही थी ।
उन्होंने दलित छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या से
नाराज और इंसाफ के लिए आंदोलनरत छात्रों का न केवल
नेतृत्व किया, साहित्य और कला संस्थाओं के भगवाकरण के
खिलाफ वाम हलकों से उठी लड़ाई को भी आगे
बढ़कर संभाल लिया ।
राजनीतिक चिंतक, स्कॉलर, डीपी त्रिपाठी कहते हैं --
बेफिक्री में बढ़ गयी दाढ़ी और तनी भौंह वाली राहुल की भंगिमा
ही , आज कांग्रेस का सबसे आकर्षक नारा है। जो असहमति की आवाज दबाने की हर कोशिश/ ताकत के खिलाफ सतत संघर्ष का ऐलान है ।
लखनऊ में 18 फरवरी 2016 को आयोजित दलित
कानक्लेब में, राहुल की मौजूदगी में पढ़े गये दलित विकास
सम्मेलन के घोषणापत्र में , दलितों की प्राइवेट सेक्टर में न्यायसंगत भागीदारी की मांग , कार्पोरेट्स को असहज
करने वाली ही थी ।
यह तब, जब कि आम चुनाव 2014 के तकरीबन एक साल
पहले अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने 2004 से अबतक , मात्र 24
प्रतिशत प्राइवेटाइजेशन के लिए, मनमोहन सिंह सरकार से
नाराजगी जतायी थी ।
राहुल देश को यह संदेश दे पाने में सफल हो चुके कि
, मौजूदा
केंद्र सरकार की एकमात्र कोशिश भारत में कारपोरेट पूंजी के
खुलकर खेलने लायक माहौल बनाने की है। जो असल राजनीति को उसके क्लोजर की ओर ले जाएगी। और यह बुरी
तरह डरा देने वाली निराधार आशंका भी नहीं है कि लोकतांत्रिक
संस्थाएं बहुराष्ट्रीय निगमों को ठेके पर दे दी जाएं ।
राहुल में बस चार महीने से चमक देखने वालों को जानना
चाहिये कि वह इतने ही परिपक्व पहले से हैं। दरअसल वह संघ और भाजपा के कुप्रचार और चरित्र हनन की राजनीति का शिकार थे। कितना श्रम करना पड़ा होगा उन्हें भाजपा के कुप्रचार को बेअसर करने में ?
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जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से स्कॉलर और वरिष्ठ
पत्रकार सुविज्ञ दुबे का मानना है कि कठमुल्लेपन, समाज के कम्यूनलाइजेशन, बहुल संस्कृति के अपने देश को
कोडिफाइड, एकरूप संस्कृति में ढालने की भगवा कोशिश और कॉरपोरेट पूंजी के नंगे नाच के खिलाफ,बेशक राहुल गांधी की
लड़ाइयों को बड़ी पहचान मिली है ।
उनका मानना है कि कांग्रेस के भीतर ही कुछ लोग राहुल के
आक्रामक कारपोरेट विरोध से खुद को असहज महसूस कर रहे थे। राहुल को अपरिपक्व प्रचारित करने की संघ और भाजपा
की संगठित मुहिम को ऐसे कांग्रेसियों की भी शह हो सकती है ।
राहुल की मुहिम से याराना पूंजीवाद के गुंजलक( क्वेल )
खुलने लगे हैं।
वरिष्ठ पत्रकार, मीडिया एकेडमिक्स और उस पर क्रिटिकल
व्यू को लेकर निकल रहे आज के सर्वाधिक साख वाले
पोर्टल ' मीडिया विजिल ' के संपादक पंकज श्रीवास्तव ने
कहा -
कभी हम जैसे भी भाजपा और कांग्रेस में कोई अंतर नहीं
मानते थे। लेकिन व्यापक सन्दर्भों में इन तीन सालों में
पता चल गया कि भाजपा और कांग्रेस में बहुत अंतर है ।
उन्होंने कहा कि राहुल के पार्टी अध्यक्ष होने से कांग्रेस में
सामाजिक न्याय की वैचारिकी को अच्छा - खासा स्पेस मिल
सकता है।जो अबतक सिरे से गायब था । ....
सबसे बड़ी बात यह है कि राहुल जो बोलते हैं, दिल से । उनमें नाटकीयता नहीं है ।
बिना हत्थे वाली कुर्सी के यानि अब तक संघर्षशील वरिष्ठ पत्रकार
अनिल चमड़िया कहते हैं कि राहुल के अध्यक्ष होने से
सामाजिक न्याय की विघटित ताकतों को एक मंच मिल सकता है।कांग्रेस उसका केंद्र हो सकती है और हम किसी जनेऊ धारी को
जल्दी ही सामाजिक न्याय के फ्रंट पर भी जोर - शोर से सक्रिय देख सकते हैं ।
वरिष्ठ पत्रकार प्रशांत टंडन ने कहा --
कांग्रेस में अब मध्यवाम रिवाइव हो सकता है। समाजवादी
अर्थव्यवस्था इस संदर्भ में कि प्रोडक्शन यानि उत्पादन के
सेक्टर की भी राजनीतिक धाक ( पोलिटिकल से ) बढ़ सकती है। अभी केवल ट्रेड सेक्टर को बढ़ावा मिल रहा है ।
काश ऐसा हो पाता। अगर कांग्रेस में ऐसा हो जाये तो तय है
केंद्र के स्तर पर जनता उसे 2019 तक ही विकल्प मान लेगी ।
राहुल से ऐसी उम्मीद बेमानी भी नहीं है ।
पूर्व प्रधानमंत्री स्व. चन्द्रशेखर के स्नेहपात्र रहे बागी बलिया के वरिष्ठ पत्रकार रवींद्र ओझा कहते हैं
मैं नहीं मानता कि 2014 में, भाजपा की जमीन धसका देने वाली
जीत की वजह कोई साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण था।
यह जीत कारपोरेट की गोद में बैठे कथित सेक्यूलरों
से जनता के मोहभंग का नतीजा था ।
जनता के उस मोहभंग और नाराजगी का नवीनीकरण
हो रहा है। कांग्रेस को उसे ही लक्ष्य करने की जरूरत है । उन्होंने कहा कि राहुल की फायर ब्रांड या नाराज युवा छवि से भाजपा घबरा
गयी है,इसलिए उन पर हमले और तेज हो गये हैं ।
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सोमवार , 11 दिसम्बर को प्रस्तावित चुनाव में
नामांकन की आखिरी तारीख थी और कोई दूसरा
उम्मीदवार न होने की सूरत
में , राहुल गांधी ,भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिये निर्वाचित हो गये।कांग्रेस नेता मुल्लापल्ली रामचंद्रन ने
उनके निर्वाचन की घोषणा की।राहुल गांधी
अपना पद / अपनी कुर्सी सम्भवतः 16 दिसम्बर को संभाल लेंगे
और हो सकता है उस दिन यह खबरची भी , यह दृश्य देख पाने के लिए 24 अकबर रोड,नयी दिल्ली स्थित पार्टी मुख्यालय पर मौजूद हो।
सोचता हूं काश यह गुजरात विधानसभा चुनाव से पहले हो
गया होता।तब हर जगह की तरह,हमेशा की तरह फिर गुजरात की जनता को भी , धार्मिक - साम्प्रदायिक,क्षेत्रीय - इलाकाई अस्मिता या उपराष्ट्रीय संकीर्णता में हांक ले जाना,भरा दिल
और भर्राया गला दिखाना,किसी के लिए इतना आसान न होता ।
गुजरात में जो कुछ हुआ या हो रहा है,लगता है आदमीयत
और लोकतंत्र को इतिहास निकाला देने
की अंतिम कोशिश है ।
सन्दर्भच्युत, अप्रासंगिक और नान पोलिटिकल मुहावरे
मुद्दे इतने बजाये जा रहे हैं कि असल और जरूरी सवाल
बेमानी हो जायें। उम्मीद एकदम नहीं है लेकिन
इन सबसे कोई अगर जीतता है, इसलिए कि
जीतना सीख गया है तो तय है फिर लोकतंत्र हारेगा ।
जिन्हें, संघ परिवार अपरिपक्व प्रचारित करता रहा है
उस राहुल की एक चौंका देने वाली छवि भी
मेरे दिमाग में अब तक है ।
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2017 में ,सहारनपुर की
एक रैली में अपने भाषण के दौरान,राहुल गांधी ने
कालजयी कवि शमशेर बहादुर सिंह की कविता उद्धृत की। हो सकता है किसी ने सुझाया हो ।
उन्होंने कहा था --
मैं हिंदी और उर्दू का दोआब हूं
मैं वह आईना हूं जिसमें आप हैं
भाइयों राहुल की राजनीतिक समझ का विकास तो
कविता से हो रहा था । किसी और का .... ?
कविता की ताकत समझने और त्रयी ( नागार्जुन , त्रिलोचन , शमशेर ) को उस समय याद करने के लिए,मैं आज
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष होने पर
राहुल गांधी को बधाई दे रहा हूं ।
बहुत याद आ रहे हैं इस समय राजनीतिक चिंतक,स्कॉलर
मेरे गुरु डीपी त्रिपाठी। उन्होंने राहुल की कूवत का सही
मूल्यांकन किया था,कभी ।