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लोकसभा चुनाव 2019: साहिब के घर में ही बसपा तलाश रही जमीन
दुर्गेश पार्थसारथी
अमृतसर: इसे समय का फेर कहा जाए या राजनीति का पेंच कि जिस बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती उत्तर प्रदेश की राजनीति की धुरी बनी हुई हैं उसी पार्टी को पंजाब में जमीन तलाशनी पड़ रही है। सियासत के शिलालेख पर लिखी यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि बसपा के संस्थापक कांशीराम जिन्हें पार्टी के समर्पित कार्यकर्ता साहिब के नाम से जानते हैं, का पुश्तैनी घर पंजाब के रोपड़ जिले के गांव ख्वासपुर में है। इसी ख्वासपुर की माटी में 15 मार्च 1934 को जन्मे मान्यवर कांशी राम ने 1971 में डीआरडीओ की सरकारी नौकरी छोड़ कर 14 अक्टूबर 1971 को अपना पहला संगठन ‘शिड्यूलकास्ट, शिड्यूल ट्राइब, अदर बैकवर्ड क्लासेज एंड माइनॉरिटी एंप्लाइज वेल्फेयर एसोसिएशन’ का गठन किया था और इसे नाम दिया डीएस-4, मतलब दलित, शोषित संघर्ष समाज समिति।
लोकसभा चुनाव २०१९ में सभी क्षेत्रीय दल अस्तित्व के संघर्ष में हैं। बसपा सुप्रीमो मायावती भी सभी गिले-शिकवे भूल समाजवादी पार्टी के साथ अपने खोए हुए वजूद को बचाने की कोशिश कर रहीं हैं। अपनी राजनीतिक शाख को बचाने की जद्दोजहद में मायावती, ‘साहिब’ (कांशी राम) की ‘रियासत’ पंजाब को भूल गई हैं। जहां डीएस-4 (अब बहुजन समाज पार्टी) के गठन के 49 साल बाद भी पार्टी जमीन और सम्मान तलाश रही है। यह बात दीगर है कि 1992 में हुए पंजाब विधानसभा चुनाव में पार्टी को 9 सीटें मिली थीं। इसी पंजाब से कांशीराम को 1996 में एक बार संसद के दहलीज तक पहुंचने का मौका। इसके बाद पार्टी का वोट बैंक ऐसा खिसका कि आज तक संभल नहीं पाया।
बसपा के स्वर्णिम युग था 1992 का दौर
सियासत के जानकारों का कहना है कि पंजाब में 1992 का दौर बहुजन समाज पार्टी के लिए स्वर्णिम दौर था। इसी साल हुए विधानसभा के चुनाव में पार्टी का वोट प्रतिशत 16.33 के करीब रहा। प्रदेश की कुल 117 सदस्यों वाली विधानसभा में बसपा ने 9 सीटों पर जीत दर्ज कराई थी। लोकसभा के चुनाव में पार्टी को 19.72 प्रतिशत वोट मिले और 1996 में लोकसभा की आरक्षित सीट होशियारपुर से कांशीराम सांसद चुने गए। 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी का वोट प्रतिशत 1.92 प्रतिशत गिरा। 2002 के विधानसभा चुनाव में वोट बैंक खिसक गया और 2012 के विधानसभा चुनाव में मात्र 4.28 प्रतिशत वोट मिले। इसके बाद से पार्टी का ग्राफ लगातार गिरता जा रहा है।
विश्लेषकों का यह भी कहना है कि 1992 में भी बसपा को पंजाब में 9 सीटें इसलिए मिल गईं कि अकालियों ने चुनाव का बहिष्कार करते हुए किसी भी सीट से अपने प्रत्याशी नहीं उतारे थे। तब पंजाब आतंकवाद के दौर से गुजर रहा था।
उस समय जेल में बंद आतंकियों के रिश्तेदार भी चुनाव मैदान में थे लेकिन चुनाव आयोग ने उनके चुनाव ही रद्द कर दिए थे। इसके बाद हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की भारी जीत हुई थी और बेअंत सिंह ने मुख्यमंत्री के रूप में पंजाब की सत्ता की कमान संभाली।
जीत का दावा, संगठन को सहेजने की चुनौती
यह पूछे जाने पर कि पंजाब में बसपा को जमीन तलाशने की नौबत क्यों आ पड़ी है, इस सवाल पर पार्टी के पंजाब प्रभारी रंधीर सिंह बैनी पाल का कहना है कि ग्राउंड लेवल पर काम हुआ है। युवाओं को पार्टी से जोड़ा जा रहा है। हम लोकसभा की तीन सीटों पर जीत दर्ज करेंगे। हम तो अभी करीब दो माह पहले प्रदेश प्रभारी के तौर पर आए हैं। पंजाब में हमारा डेमोक्रेटिक अलाइंस के साथ समझौता हुआ है। इसमें आम आदमी पार्टी से अलग होकर बनी सुखपाल सिंह खैहरा की पंजाब एकता पार्टी, बैंस ब्रदर्स की लोक इंसाफ पार्टी और आप से ही अलग हो कर पटियाला से सांसद धर्मवीर गांधी की पंजाब निर्माण मोर्चा व सीपीआई के साथ मिल कर हम तीन सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं।
पंजाब में बसपा का जनाधार खिसकने का दोष पार्टी के कुछ नेता मीडिया पर मढ़ते हैं। इन नेताओं का कहना है कि मीडिया उनकी पार्टी को महत्व नहीं दे रही। पूर्व में बसपा के कई नेता कांग्रेस, अकाली दल और भाजपा में जा चुके हैं। इस पर बसपा के नेता कहते हैं कि ये लोग मौका परस्त थे जो केवल अपने स्वार्थ के लिए बसपा में आए थे। कुछ संगठन की भी कमी रही है लेकिन अब समय बदल चुका है। नई पीढ़ी काम कर रही है लेकिन मीडिया को नहीं दिख रहा है। मीडिया बसपा को कवरेज नहीं करती। सोशल मीडिया पर दुष्प्रचार हो रहा है।
32 प्रतिशत दलित वोटर्स को साथ नहीं जोड़ पा रही बसपा
पंजाब की कुल जनसंख्या में लगभग 32 प्रतिशत दलित हैं, फिर भी बहुजन समाज पार्टी के पंजाब इकाई के नेता इसे अपने साथ जोड़ पाने में असफल साबित हो रहे हैं। मायावती ने अवतार सिंह करीमपुरी को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश से राज्यसभा का सदस्य बना कर उच्च सदन तक जरूर पहुंचाया लेकिन वह पंजाब में संगठन को मजबूत करने में कोई खास सफलता हासिल नहीं कर पाए। इसके विपरीत भाजपा में केंद्रीय मंत्री विजय और सूफी गायक हंसराज हंस जैसे दलित चेहरा हैं तो अकाली और कांग्रेस में कई ऐसे दलित नेता हैं, जिनकी प्रदेश स्तर पर पहचान है।