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महागठबंधन के बीच बंटवारा, असली परीक्षा सुरक्षित सीटों पर

raghvendra
Published on: 12 April 2019 3:45 PM IST
महागठबंधन के बीच बंटवारा, असली परीक्षा सुरक्षित सीटों पर
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पश्चिमी उप्र में उलटफेर को तैयार बसपा, दूसरे राज्यों में भी किया गठबंधन 

श्रीधर अग्निहोत्री

लखनऊ: महागठबंधन के बीच सीटों का बंटवारा भले ही हो गया हो, लेकिन उसके सामने असली चुनौती भाजपा से सुरक्षित सीटों को हथियाने की होगी। यूपी की 80 में से 17 सीटें आरक्षित हैं और पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने मोदी लहर के जरिये इन सभी पर कब्जा जमा लिया था। सपा-बसपा गठबंधन में आरक्षित सीटों में 10 सीटें बसपा और 7 सीटें सपा के खाते में गई हैं। अब इन दोनों दलों का जहां एक तरफ भाजपा से मुकाबला होगा वहीं इस बात की भी होड़ होगी कि इस रेस में कौन आगे निकलता है?

2014 के पहले हुए लोकसभा चुनावों में अधिकांश सुरक्षित सीटों पर इन्हीं दोनों दलों का कब्जा हुआ करता था, लेकिन मोदी लहर के चलते भाजपा ने इन सभी 17 सीटों पर एक कीर्तिमान बनाकर दोनों दलों को चारों खाने चित्त कर दिया था। इस चुनाव में मिली असफलता ने ही आगामी चुनाव में एक-दूसरे के धुर विरोधी दलों को साथ मिलाने का काम किया है। भाजपा की इसी कामयाबी का नतीजा था कि पिछले लोकसभा चुनाव में बसपा का उत्तर प्रदेश में खाता तक नहीं खुल सका था।

मोदी सरकार ने लगाई वोट बैंक में सेंध

जातिगत राजनीति से जकड़े उत्तर प्रदेश में चुनाव की दृष्टि से मोदी सरकार इस वोट बैंक में सेंध लगाने का काम करती रही है। चाहे वह एससी-एसटी कानून में संशोधन का मामला हो अथवा डा.अम्बेडकर की प्रतिमा के अलावा उनके नाम पर दूसरी योजनाएं क्यों न हों।

जहां एक ओर बहुजन समाज पार्टी ने दलितों के वोट बैंक को कई सालों तक संजोए रखा वहीं समाजवादी पार्टी ने 1993 के चुनाव में पिछड़ों को अपने पक्ष में कर बसपा के साथ प्रदेश में सरकार बनाई। इसी वोट बैंक के सहारे 1996 में मुलायम सिंह देश के रक्षामंत्री बने थे मगर अब मुलायम सिंह यादव समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष न होकर केवल संरक्षक की भूमिका में है। उन्हें लग रहा है कि पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव उस तरह से संगठन का काम नहीं कर पा रहे हैं जिसकी वह अपेक्षा कर रहे हैं।

11 सीटों पर बसपा दूसरे नंबर पर

2014 के लोकसभा चुनाव पर गौर करें तो सूबे की 17 सुरक्षित सीटों में 11 सीटों पर बहुजन समाज पार्टी दूसरे नंबर पर रही थी। समाजवादी पार्टी पांच सीटों पर तथा एक सीट पर कांग्रेस का सीधा मुकाबला भाजपा के जीते हुए प्रत्याशी से हुआ था। यदि 2009 के लोकसभा चुनाव पर नजर डालें तो आरक्षित 17 सीटों में 10 पर समाजवादी पार्टी का कब्जा रहा था। दो पर बसपा, दो पर कांग्रेस, दो पर भाजपा और एक पर रालोद का कब्जा हुआ था।

2014 से पहले बंटती रही हैं सीटें

लोकसभा चुनाव में सुरक्षित सीटों को देखा जाए तो 1998 में भाजपा को 11, 1999 में 7, 2004 में 3, 2009 में 2 तथा 2014 में सभी 17 सुरक्षित सीटों पर विजय हासिल हुई थी। बसपा को 1998 में 2, 1999 में 5, 2004 में 5, 2009 में 2 तथा 2014 में कोई सीट हासिल नहीं हो सकी थी। इसी तरह समाजवादी पार्टी को 1998 में 5, 1999 में 5, 2004 में 7,2009 में 10 तथा 2014 की मोदी लहर में एक भी सीट हासिल नहीं हो सकी थी जबकि कांग्रेस को 1998 में शून्य, 1999 में 1, 2004 में 2, 2009 में 3 तथा 2014 के लोकसभा चुनाव में एक भी सीट नहीं मिली थी।

2014 के चुनाव को देखा जाए तो बसपा 11 सीटों और सपा पांच सीटों पर दूसरे स्थान पर रही थी। बाराबंकी सीट पर कांग्रेस दूसरे स्थान पर थी। सपा-बसपा गठबंधन में इसी फार्मूले के आधार पर सीटों का बंटवारा हुआ है। सिर्फ दो चुनावों को उदाहरण के तौर पर लिया जाए तो वर्ष 2009 के चुनाव में इन 17 सीटों में सबसे अधिक सपा ने 10 सीटों पर जीत दर्ज की थी।

इसके बाद बसपा, भाजपा और कांग्रेस के खाते में दो-दो सीटें गईं और रालोद को एक सीट ही मिल सकी। इसके बाद 2014 के चुनाव में आरक्षित सीटों के वोटरों ने भाजपा का साथ दिया और सभी सीटें उसके खाते में गईं।

भाजपा ने किए कई सम्मेलन

पिछड़े और दलित वर्ग को साधने के लिए भाजपा ने पिछले साल अगस्त महीने में लोधी किसान समाज सम्मेलन, भुर्जी समाज, निषाद, कश्यप, बिंद (मल्लाह), मोदनवाल (हलवाई), कुर्मी, पटेल, वर्मा, गंगवार गिरी गोस्वामी, यादव समाज के सम्मेलनों के साथ ही ओबीसी की कई अन्य जातियों तेली, साहू समाज, नाई, राठौर, विश्वकर्मा समाज और बघेल-पाल समाज के सम्मेलन का आयोजन किया था। इसका मकसद इन वर्गों से जुड़े मतदाताओं को भाजपा की ओर आकर्षित करना था।

आरक्षित सीटों से निकलेगा दिल्ली का रास्ता

लोकसभा की 545 सीटों में से 84 सीटें अनुसूचित जाति और 47 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं। इन 131 आरक्षित सीटों में से 67 सीटें भाजपा के पास हैं। कांग्रेस के पास 13 सीटे हैं। इसके अलावा तृणमूल कांग्रेस के पास 12, अन्नाद्रमुक और बीजद के पास सात-सात सीटें हैं।

देश के कुल मतदाताओं में इन वर्गों की हिस्सेदारी 20 फीसदी से अधिक है। इसमें भी दलित मतदाता करीब 17 फीसदी हैं। यही कारण है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में हर राजनीतिक दल की नजर इस वर्ग के वोट बैंक पर है। मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ एवं कुछ अन्य राज्यों के विधानसभा चुनाव में इस वर्ग ने निर्णायक भूमिका निभाई थी।

उत्तर प्रदेश की सुरक्षित लोकसभा सीटें

नगीना, बुलंदशहर, हाथरस, आगरा, शाहजहांपुर, हरदोई, मिश्रिख, मोहनलालगंज, इटावा, जालौन, कौशांबी, बाराबंकी, बहराइच, बासगांव, लालगंज, मछलीशहर, राबट्र्सगंज।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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