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गज़ल : क्यों ढूँढ़ रहे हो कोई मुझसा मेरे अंदर, कुछ भी न मिलेगा तुम्हें मेरा मेरे अंदर
क्यों ढूँढ़ रहे हो कोई मुझसा मेरे अंदर
कुछ भी न मिलेगा तुम्हें मेरा मेरे अंदर
गहवार-ए-उम्मीद सजाए हुए हर रोज
सो जाता है मासूम सा बच्चा मेरे अंदर
बाहर से तबस्सुम की कबा ओढ़े हुए हूँ;
दरअस्ल हैं महशर कई बरपा मेरे अंदर
जेबाइशे-माजी में सियह-मस्त सा इक दिल
देता है बगावत को बढ़ावा मेरे अंदर
सपनों के तआकुब में है आजुरद: हकीकत
होता है यही रोज तमाशा मेरे अंदर
मैं कितना अकेला हूँ तुम्हें कैसे बताऊँ
तन्हाई भी हो जाती है तन्हा मेरे अंदर
अंदोह की मौजों को इन आँखों में पढ़ो तो
शायद ये समझ पाओ है क्या क्या मेरे अंदर
- अब्बास कमर
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