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गुरु तेग बहादुर के बलिदान दिवस पर विशेष, जानिए उनसे जुड़े अनसुने फैक्ट्स

विश्व इतिहास में मानव धर्म एवं आदर्श जीवन मूल्यों की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति देने वालों में सिख धर्म के नवें पातशाह गुरु तेग बहादुर का स्थान अद्वितीय है।

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Published on: 24 Nov 2017 7:44 AM GMT
गुरु तेग बहादुर के बलिदान दिवस पर विशेष, जानिए उनसे जुड़े अनसुने फैक्ट्स
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पूनम नेगी

लखनऊ: विश्व इतिहास में मानव धर्म एवं आदर्श जीवन मूल्यों की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति देने वालों में सिख धर्म के नवें पातशाह गुरु तेग बहादुर का स्थान अद्वितीय है। आतातायी मुगल शासक औरंगजेब की धर्म विरोधी और वैचारिक स्वतंत्रता का दमन करने वाली नीतियों के विरुद्ध गुरु तेग बहादुरजी (18 अप्रैल 1621 - 24 नवंबर 1675) की शहादत एक अभूतपूर्व ऐतिहासिक घटना मानी जाती है। स्वधर्म की वेदी पर बलिदान देने वाले इस महामानव का जीवन धार्मिक अडिगता और नैतिक उदारता का उच्चतम उदाहरण है। बलिदान दिवस (24 नवंबर) पर आइए स्मरण करते हैं इनके जीवन के उन प्रेरणास्पद प्रसंगों को जो आज भी हर सच्चे राष्ट्रनिष्ठ भारतवासी को राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानने की प्रेरणा देते हैं।

प्रेरणादायी सांसारिक जीवन

गुरु नानक देव के बताये मार्ग का अनुसरण करने वाली इस दिव्य आध्यात्मिक विभूति का जन्म पंजाब के अमृतसर नगर में हुआ था। ये गुरु हरगोविन्द जी के पांचवें पुत्र थे। आठवें गुरु हरकिशन जी की अकाल मृत्यु के बाद जनमत के आधार पर उन्हें नवम गुरु चुना गया। इन्होंने आनन्दपुर साहिब का निर्माण कराया और वहीं रहने लगे थे। इनके बचपन का नाम त्यागमल था मगर मुगलों के हमले में 14 वर्ष की आयु में उन्होंने अपने पिता के साथ युद्ध में जिस वीरता का परिचय दिया, उससे प्रभावित होकर पिता ने उनका नाम त्यागमल से तेग बहादुर रख दिया। तेग बहादुर यानी तलवार का धनी। यद्यपि उस युद्ध में मुगल सेना को पराजय का मुख देखना पड़ा किन्तु युद्धस्थल में हुए भीषण रक्तपात का आध्यात्मिक विचारों वाले भावनाशील तेग बहादुर जी के वैरागी मन पर गहरा प्रभाव पड़ा और अपने उद्विग्न मन को शांत करने के लिए उन्होंने लगातार 20 वर्ष तक "बाबा बकाला" नामक स्थान पर एकांत साधना की।

तत्पश्चात अंत में ज्ञान के उदय के उपरान्त उन्होंने धर्म के मूल तत्व के प्रचार प्रसार लिए पूरे देश में भ्रमण किया। कीरतपुर, रोपण, सैफाबाद होते हुए वे खिआला (खदल) पहुंचे। यहां उपदेश देते हुए दमदमा साहब से होते हुए कुस्र्क्षेत्र की धर्मयात्राएं कीं। कुरुक्षेत्र से यमुना के किनारे होते हुए कड़ामानकपुर पहुंचे और यहीं पर उन्होंने साधु भाई मलूकदास का उद्धार किया। उसके बाद वे प्रयाग, बनारस, पटना, असम आदि क्षेत्रों में गए, जहां उन्होंने समाज के आध्यात्मिक, सामाजिक व आर्थिक उन्नयन के लिए अनेक रचनात्मक कार्य किए तथा आध्यात्मिकता का ज्ञान बांटा तथा रूढ़ियों, अंधविश्वासों की आलोचना कर नये समाजिक आदर्श स्थापित किए। आध्यात्मिक स्तर पर धर्म का सच्चा ज्ञान बाँटा और कई जनकल्याणकारी आदर्श स्थापित किए।

शांति, क्षमा, सहनशीलता के गुणों वाले गुरु तेग बहादुरजी ने लोगों को प्रेम, एकता, भाईचारे का संदेश दिया। किसी ने गुस्र्जी का अहित करने की कोशिश भी की तो उन्होंने अपनी सहनशीलता, मधुरता, सौम्यता से उसे परास्त कर दिया। उनके जीवन का प्रथम दर्शन यही था कि धर्म का मार्ग सत्य और विजय का मार्ग है। उन्होंने परोपकार के लिए कई कुएं खुदवाए तथा धर्मशाला भी बनवायीं। इन्हीं यात्राओं के दौरान 1666 में धर्मोपदेश देते हुए जब वह पटना साहब पहुंचे तो वहां उनके पुत्र का जन्म हुआ जो आगे चलकर सिक्खों के अंतिम गद्दीनशीं गुरु गोविन्द सिंह" बने और खालसा पंथ की बुनियाद रखी। पुत्र जन्म के बाद उन्होंने आनन्दपुर साहिब का निर्माण कराया और पुत्र की उचित परिवरिश के लिए वहीं रहने लगे। सर्वधर्म समभाव को जीवित रखने के लिए उन्होंने कई रचनाएं भी कीं। उनके द्वारा रचित 115 पद्य गुस्र् ग्रन्थ साहिब में भी संग्रहीत हैं। गुरु तेग बहादुर जी की बहुत सी रचनाएँ ग्रंथ साहब के महला 9 में संग्रहित हैं। इन्होंने शुध्द हिन्दी में सरल और भावयुक्त "पदों" और "साखी" की रचना की।

इस्लाम स्वीकार न करने के कारण 1675 में मुगल शासक औरंगजेब ने सबके सामने उनका सिर कटवा दिया। हजारों लोगों के धर्म को बचाने के लिए अपने प्राणों का बलिदान देने गुरु तेग बहादुर स्वयं औरंगज़ेब के दरबार पहुंचे; जहां हजारों लालच और यातनाएं झेलने के बाद भी जब उन्होंने धर्म परिवर्तन से इनकार कर कर दिया तो 24 नवम्बर 1675 को दिल्ली के चाँदनी चौक के बीचों बीच जहां उनका सिर धड़ से अलग कर दिया गया। उसी जगह पर आज शीश गंज गुरुद्वारा मौजूद है। इस बलिदान के प्रतिदान रूप में उन्हें ससम्मान एक नया नाम मिला, "हिन्द की चादर"। गुरुद्वारा शीश गंज साहिब तथा गुरुद्वारा रकाब गंज साहिब आज भी इस महान गुरु के महान त्याग का स्मरण दिलाते हैं जहां गुरुजी की हत्या के बाद उनका अन्तिम संस्कार किया गया। गुरुजी का यह बलिदान केवल धर्मपालन के लिए ही नहीं अपितु महान सांस्कृतिक विरासत और इच्छित जीवन विधान के पक्ष में एक परम साहसिक अभियान था।

अप्रतिम बलिदान गाथा

वाकया कट्टर धर्मान्ध मुगल बादशाह औरंगज़ेब के शासन काल का है। हठधर्मी औरंगजेब को इस्लाम के अतिरिक्त किसी दूसरे धर्म की प्रशंसा में एक जुमला तक तक सहन न होता था। उसने न जाने कितने ही मंदिर और गुरुद्वारे और तोड़कर मस्जिदें बनवा दीं। मंदिरों की मूर्तियों को तोड़कर देव पूजन बंद करवा दिया। बड़ी संख्या में गोहत्याएं होने लगीं। औरंगज़ेब ने इस्लाम अपनाने और हिन्दुओं पर जजिया कर (धर्मयात्रा पर टैक्स) का शासनादेश जारी कर दिया। औरंगजेब ने यह हुक्म दिया कि किसी हिन्दू को राज्य के कार्य में किसी उच्च स्थान पर नियत न किया जाये। इस भय से अनेक हिन्दू मुसलमान हो गये। हिन्दुओं के पूजा-आरती आदि सभी धार्मिक कार्य बंद होने लगे। कहा जाता है कि सनकी बादशाह औरंगजेब रोजाना सवा मन यज्ञोपवीत उतरवा करके ही भोजन करता था। औरंगज़ेब ने कहना था कि उसके राज्य के लोग या तो इस्लाम धर्म कबूल करें या मौत को गले लगाने को तैयार रहें। इस प्रकार की जोर-जबर्दस्ती से अन्य धर्म के लोगों का जीवन बहुत कठिन हो गया था।

कहा जाता है कि कश्मीर के पंडित औरंगज़ेब के इन घोर अत्याचारों से त्रस्त होकर भगवान अमरनाथ की शरण में गये। और पवित्र अमरनाथ गुफा में एक पुरोहित ने संकट निवारण के लिए उनको गुरु तेग बहादुर जी के जाने को कहा। जुल्म से ग्रस्त कश्मीर के पंडितों ने नवें पातशाह को बताया कि इस्लाम को स्वीकार करने के लिए किस प्रकार उनपर घोर अत्याचार किया जा रहा है, भारी यातनाएं दी जा रही हैं। उन्होंने गुरुजी से इस आपदा से मुक्ति दिलाने की मांग की। कहते हैं कि गुरुजी सभा में जब कश्मीरी पंडितों के साथ गंभीर विचार विमर्श चल रहा था तभी उनका नौ वर्षीय पुत्र बाला प्रीतम (कालांतर में गुरु गोबिंद सिंह) दरबार में आया। उसने सभा में सभी को गंभीर व चिंतित देखकर पिताजी से पूछा-"पिताजी, ये सब इतने उदास क्यों हैं? आप क्या सोच रहे हैं?" इस पर गुरु तेगबहादुर ने कश्मीरी पंडितों की सारी समस्या पुत्र को बतायी। इसपर पुत्र ने पुन: पूछा- "इसका हल कैसे होगा?" गुरु साहिब ने कहा- "इसके लिए बलिदान देना होगा।" तब बाला प्रीतम ने कहा-" इस समय आपसे महान पुरुष दूसरा कोई नहीं है। इसलिए आप बलिदान देकर इन सबके धर्म को बचाइए।"

उस बच्चे की बातें सुनकर वहां उपस्थित लोगों ने उससे कहा, "यदि आपके पिता बलिदान दे देंगे तो आप यतीम हो जाएंगे और आपकी मां विधवा।" तब बाला प्रीतम ने बेहद गंभीरता से कहा, "यदि मेरे अकेले के यतीम होने से लाखों बच्चे यतीम होने से बच सकते हैं या अकेले मेरी माता के विधवा होने जाने से लाखों माताएं विधवा होने से बच सकती है तो मुझे अपने पिता का यह बलिदान स्वीकार होगा।" पिता ही नहीं अपितु उस सभा के सभी लोग बच्चे का यह साहसिक प्रत्युत्तर सुन मौन रह गए।

तत्पश्चात कुछ क्षण विचार करके गुरु तेगबहादुर जी ने पंडितों से कहा कि आप जाकर औरंगज़ेब से कह दें कि यदि गुरु तेगबहादुर ने इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया तो उनके बाद हम भी इस्लाम ग्रहण कर लेंगे। पंडितों की यह बात सुन कर औरंगज़ेब ने गुरुतेग बहादुर के पास फरमान भेजा। इस गुरु जी दिल्ली में औरंगजेब के दरबार में गये। औरंगज़ेब ने उन्हें बहुत से लालच दिए पर वे अपने निर्णय पर अडिग रहे। तब उन्हें व उनके साथियों को कैद कर लिया गया परन्तु उन्होंने पराजय नहीं मानी। उन्होने औरंगजेब से कहा- यदि तुम ज़बर्दस्ती लोगों से इस्लाम धर्म ग्रहण करवाओगे तो तुम सच्चे मुसलमान नहीं हो क्योंकि इस्लाम धर्म यह शिक्षा नहीं देता कि किसी पर जुल्म करके मुस्लिम बनाया जाए। धर्मांध औरंगजेब उनका यह उत्तर सुनकर क्रोध से आग बबूला हो उठा। उसने गुरु तेगबहादुर के शिष्यों मतिदास, सतीदास और दयाला से कहा कि यदि तुम लोग इस्लाम धर्म कबूल नहीं करोगे तो कत्ल कर दिये जाओगे।

उसने खौलते हुए गरम तेल के कड़ाहे दिखाकर उनके मन में भय उत्पन्न करने का प्रयत्न किया, परंत जब औरंगजेब की सभी धमकियां बेकार गयीं तो वह चिढ़ गया। उसने काजी को बुलाकर पूछा, "बताओ इसे क्या सजा दी जाये?" काजी ने कुरान की आयतों का हवाला देकर हुक्म सुनाया कि "इस काफिर को इस्लाम ग्रहण न करने के आरोप में आरे से लकड़ी की तरह चीर दिया जाये।" इस तरह दिल्ली के चांदनी चौक में भाई मतिदास को दो खंभों के बीच रस्सों से कसकर बाँध कर आरे से चिरवा दिया। आज भी वह चौक "भाई मतिदास चौक" के नाम से प्रसिद्ध है। साथी की यह गति देखकर दयाला बोलाः "औरंगजेब ! तूने बाबर वंश को और अपनी बादशाहियत को चिरवाया है। यह सुनकर औरंगजेब ने दयाला को उबलते पानी के कढाहे में डलवाकर जिंदा ही जला दिया। इसी तरह इस्लाम कबूल न करने पर भाई सतीदास के शरीर पर रुई लपेटकर आग लगा दी गयी। कहते हैं कि अपने शिष्यों के इस उत्सर्ग ने गुरु का सीना चौड़ा कर दिया। उन्होने धर्म के नाम पर शीश कटा दिया पर झुकना न स्वीकरा- "धरम हेत साका जिनि कीआ/ सीस दीआ पर सिदक न दीआ।"

मुगल आक्रांताओं के बर्बर अत्याचार से देश की सांस्कृतिक अस्मिता बचाने के लिए गुरु तेग बहादुर के प्राणोत्सर्ग से पूरा देश विचलित हो उठा और मुगल सत्ता को चुनौती मिली। आज धर्मनिरपेक्षता और आधुनिकता के नाम पर धर्म का मखौल उड़ने वाले और गालियां देने वाले लोगों को गुरु तेग बहादुर के इस महान बलिदान से प्रेरणा लेनी चाहिए। आज ऐसे बलिदानियों का मिलना दुर्लभ है। कश्मीरी पंडित और सम्पूर्ण मानवता उनके बलिदान को कभी विस्मृत नहीं कर सकते परन्तु दुर्भाग्य कि आज कश्मीरी विस्थापित, हमारी व्यवस्था के पंगु भीरु और अकर्मण्य होने के कारण अपने घर से दूर और लाचार हैं।निःसंदेह गुस्र्जी का यह बलिदान राष्ट्र की अस्मिता एवं धर्म को नष्ट करने वाले आघात का प्रतिरोध था। उनके इस अद्वितीय बलिदान ने धार्मिक, सांस्कृतिक, वैचारिक स्वतंत्रता के साथ निर्भयता से जीवन जीने का अभिनव मंत्र दिया।

पूनम नेगी

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