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सृजन: मानवीय रिश्तों पर आधारित कहानी: समझ गया तुम्हे

raghvendra
Published on: 21 Oct 2017 12:12 PM IST
सृजन: मानवीय रिश्तों पर आधारित कहानी: समझ गया तुम्हे
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प्रभात दीक्षित

मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि वह अचानक एक दिन चला जाएगा। मैं तो उस दिन भी रोज की तरह उसके फोन का इंतजार कर रही थी, लेकिन वह इंतजार अब तलक इंतजार ही बना हुआ है। मन में बार-बार यह हूक उठती है कि आखिर क्या वजह रही होगी? उस दिन तक तो सब ठीक था। फिर अचानक ऐसा क्या हुआ? बात भी तो कुछ खास नहीं हुई थी उस दिन। वही रोज की तरह क्या खाया क्या पिया, कुछ फिल्मी और ऑफिस की बातें।

बात रोजाना की तरह और देर तक होती, लेकिन वह भी सफर में था और मैं भी। मैं होली मनाकर घर से लौट रही थी। मैंने पूछा भी तो था-ऑफिस से इतनी जल्दी? उसने यह कहकर बात खत्म कर दी कि किसी शूट पर जा रहा हूं। फिर उधर से ही रूम पर निकल जाएगा। सफर में होने से दोनों को ही आवाज सुनने में परेशानी हो रही थी। मैंने ही कहा-ठीक है कल बात अच्छे से करूंगी।

अभी आवाज सुनने में दिक्कत आ रही है। सोचती हूं कि कहीं यही कह देना तो उसे बुरा नहीं लग गया? लेकिन फिर दिमाग में आता है कि उसने भी तो फोन रख देने की हामी भरी थी और आखिर इसमें नाराज होने वाली क्या बात थी? जल्दबाजी में फोन रखने की ऐसी स्थिति तो पहले भी कई बार आई थी, लेकिन पहले कभी ऐसा तो नहीं हुआ। आखिर हम दो साल से एक-दूसरे को जानते हैं। लेकिन ऐसा क्या हुआ कि फोन नहीं लग रहा है।

इसी उधेड़बुन में संजना तीन दिन से उलझी थी। कॉलेज में मन नहीं लगता था। हर बार उसकी नजर घड़ी पर टिकती और फिर मोबाइल पर। उसका प्रोग्राम खत्म हो गया होगा। शायद स्टूडियो से निकलकर अब फोन मिलाए। लेकिन घंटों किया जाने वाला उसका इंतजार निरर्थक साबित होता। एक दिन संजना ने मन बनाया कि क्यंू ना उसके हर दिल्ली चला जाए। लेकिन कुछ मिनट बाद ठिठक गई। नहीं, नहीं, उसका पता उसे नहीं मालूम है, दिल्ली जैसे शहर में वह उसे कैसे ढूंढेगी? उससे तो वह सिर्फ नाम और मोबाइल से जुड़ी थी।

न कोई तस्वीर न पता। वह तो मेरे लिए निराकार है। एक एहसास है जो सिर्फ आंखें बंद करूं तो ही महसूस होता है। खुली आंखों में तो उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है। काश, फेसबुक पर उसको प्रोफाइल पिक्चर लगाने को कह दी होती। लेकिन हमारा प्लान था कि हम पहली बार सचमुच में ही एक-दूसरे को देखेंगे। संजना एक पल को सिहर गई। लगा जैसे वह गिर जाएगी।

सोफे की टेक लेकर उसने खुद को संभाला और कॉलेज के साथ आईएएस की तैयारी कर रही कोचिंग की किताब देखकर सोचने लगी। पापा ने तो मेरे लिए यह सपना देखा था और मैं किसी राह पर चल निकली हूं। नहीं सोचा था कि कभी ऐसा भी होगा। कल्पना भी नहीं की थी कि उसे कोई इतना अच्छा लगने लगेगा।

तो क्या प्रणव ने उसे छोड़ दिया? उसे कुछ याद आया। जल्दी से उठी और लैपटॉप ऑन कर नेट कनेक्ट किया। जीमेल अकाउंट से उसकी आईडी ओपन की। शायद किसी मेल में उसके ऑफिस का नम्बर हो। लेकिन उसे सोचकर हंसी आ गई कि ऑफिस का नम्बर ना मिला तो क्या, प्रणव दिल्ली के इतने बड़े चैनल में काम करता है। वह ऑफिस तो ढूंढ ही लेगी।

संजना पूरी रात घर, कॅरियर और प्यार के त्रिकोण में फंसी रही। जाने कब नींद आ गई। आंखें खुली तो ध्यान आया कि सारा काम छोड़ पहले रिजज़्वेषन करा लूं। अगले दिन शाम की ट्रेन थी। लोवर बर्थ पर खिडक़ी के पास बैठी संजना सोचने लगी। कैसे प्रणव उसे चिढ़ाता था कि कभी अकेले सफर मत करना।

इतनी सुंदर हो कि अगर कहीं खो गई तो....। संजना के चेहरे पर हल्की मुस्कान की रेखा उभर आई। घड़ी देखा रात के दस बज रहे थे। यानी सुबह 7 बजे तक दिल्ली स्टेशन पर होगी। कई दिन से परेशान संजना की आंखें लगीं तो सुबह ही खुलीं।

स्टेशन पर उतरते ही उसे लगा वह किसके लिए दिल्ली आई है। किसी शख्स के लिए या किसी आवाज का मोह उसे यहां खींच लाया है। तभी ऑटो वाले ने आवाज दी-दीदी ऑटो। हाथ से बुलाने का इशारा करते हुए संजना ने ऑटो वाले से पूछा-एबीसी चैनल, ले चलोगे? ऑटो वाले ने कहा-300 रुपये।

संजना सामान लेकर बैठ गई। ऑटो ज्यों-ज्यों आगे बढ़ रहा था संजना की उलझनों के समंदर गहराने लगे। कहीं प्रणव न मिला तो? कहीं उसे मेरा आना अच्छा न लगा तो? कहीं उसे कोई और लडक़ी.... सोच के समंदर में डूबी संजना तब जागी जब ऑटो वाले ने मैडम उतरिए कहा।

अनमनाई संजना ने ऑटो वाले को पैसे देकर सामान उतारा। सडक़ किनारे खड़े होकर थोड़ी देर में वह स्थिर हुई, तभी उसकी नजर सामने एक बड़ी सी बिल्डिंग पर पड़ी जिस पर लिखा था एबीसी चैनल। रास्ता पारकर संजना ने गार्ड से पूछा,प्रणव जी से मिलने आई थी। मिलेंगे क्या?

गार्ड ने अंदर रिसेप्शन की ओर इशारा किया। संजना ने रिसेप्शन पर जाकर वही प्रश्न दोहराया। रिसेप्शनिस्ट ने कहा-फस्र्ट प्लोर कमरा नम्बर 21। सामान रखकर वह सीढ़ी की तरफ बढ़ चली। वह सोच रही थी कि कहीं प्रणव उसे पहचानने से इनकार न कर दे। अगर कर भी दिया तो वह कैसे बताएगी कि वह ही संजना हैं। ख्वाबों और सपनों की बातों पर भला कौन भरोसा करता है?

इन संशयों की गलियों से जब संजना बाहर निकली तो उसने खुद को फस्र्ट फ्लोर पर पाया। ठीक दाहिनी ओर कमरा नंबर 21 था। कांच के केबिन में एक गोरा सा शख्स नीचे सिर करके फोन पर बात कर रहा था। संजना ने दरवाजा पुश किया। बात-बात करते ही प्रणव ने उसे बैठने का इशारा किया। इधर संजना उसे गौर से निहार रही थी। खूबसूरत नाक नक्ष, उत्सव सरीखी बात-बात पर मुस्कुराने की

अदा, आकर्षक

भाषा शैली।

कहीं गुम थी संजना तभी उस शख्स ने फोन रखते हुए कहा- जी बताइए। प्रणव, मैं संजना। इतना सुनकर प्रणव ने कहा-‘संजना तुम.... लेकिन यहां कैसे? कब आई? तुम्हें आने में दिक्कत तो नहीं हुई? कुछ पल तक दोनों एक-दूसरे को देखते रहे। कुछ कहना चाह रहे थे दोनों, लेकिन एक हिचक थी कि बातों का सिलसिला शुरू कौन करेगा। प्रणव ने एक कॉल कर छुट्टी मांगी और संजना के साथ निकलने के लिए तैयार हो गया। वह ज्यों ही टेबल के नीचे रखी बैसाखियों का सहारा लेकर उठा संजना अवाक रह गई।

फटी आंखों से देख रही संजना से कोई सवाल नहीं पूछा गया। उसके दिल की हलचल पढ़ लिए प्रणव ने कहा-सोच रही होगी कि न कि लडक़ा तो बैसाखियों के सहारे चलता है और मुझे कभी बताया नहीं। नहीं-नहीं प्रणव, लेकिन यह सब कैसे? कब? तुमने बताया नहीं। पहली बार संजना को देख रहा प्रणव कार में बैठते ही बोला-तुम बहुत प्यारी हो। मैं तुम्हें उस दिन भी कॉल करता, लेकिन उस दिन... और आगे के शब्द कहीं घुल गए। कहा- चलो संजना कहीं कॉफी पीते हैं। फिर तुम्हें जिंदगी का फलसफा सुनाता हूं। ड्राइवर को गाड़ी रोकने का इशारा किया।

रेस्तरां में बिल्कुल खामोश बैठे दोनों एक-दूसरे के मनोभावों को पढऩे और समझने की कोशिश कर रहे थे। प्रणव ने कॉफी का ऑर्डर दिया। संजना की तरफ देखते हुए कहा-उस दिन ऑफिस से शूटिंग के लिए निकला था । तुम्हारा फोन रखने के बाद बस में बैठा। बस से उतरकर रास्ता पार करने को हुआ तभी एक ट्रक ने टक्कर मार दी। घंटों सडक़ पर तड़पता रहा। जब अस्पताल ले जाया गया तब तक अनहोनी हो चुकी थी और डॉक्टर को मेरी एक टांग काटनी पड़ी। यह कहते हुए प्रणव का गला रुंध गया।

संजना ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा- तुम मेरे जिन्दगी में पहले ऐसे शख्स हो जिसे मैंने शिद्दत से चाहा है। पिछले दो सालों से भगवान की तरह पूजा है। रास्ते में पडऩे वाले हर मंदिर में तुम्हारी सलामती की मुराद मांगी है। लेकिन अफसोस है कि तुम मुझे समझ नहीं पाए। तुम जिस रूप में मुझे मिलो स्वीकार है क्योंकि प्यार बार-बार नहीं हो सकता। अब तक संजना कि सिसकियां बढ़ चुकीं थीं।

प्रणव ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोला-संजना मैं तुम्हारा दिल नहीं तोडऩा चाहता था। मैंने यह सोचकर बात करना बंद कर दिया था कि मुझे पता था कि तुम सुंदर हो और मैं अपाहिज होने के बाद भी तुमसे पहले की तरह बातें करता तो यह नांइसाफी होती। अचानक संजना बोल उठी-यह नाइंसाफी कम है? मुझे तुम चाहिए। किसी भी कीमत पर। कैसे समझाऊं तुम्हें? प्रणव पास आकर बोला-समझ गया तुम्हे।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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