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अन्तरराष्ट्रीय योग दिवस (21 जून) पर: योग भगाए रोग
पूनम नेगी
बीते कुछ समय में योग ऐसी वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति के रूप में तेजी से उभरा है जो जीवन में संतुलन साधने में काफी कारगर है। योग को लेकर देश-विदेश में पिछले कुछ अरसे में कुछ ऐसे शोध हुए हैं जो इसकी महत्ता को साबित करते हैं। अब यह माना जाने लगा है कि योग स्वास्थ्य संरक्षण की एक ऐसी पद्धति है जो जीवन में गुणात्मक सुधार लाने के साथ हमारी जीवनशैली को भी बेहतर करती है। विभिन्न शोधों में पाया गया है कि प्रतिदिन 30 मिनट के नियमित योगाभ्यास से शरीर में सक्रियता आती है और इससे तनाव दूर होने के साथ याददाश्त भी बेहतर होती है। योग का अभ्यास सभी के लिए लाभप्रद है। यह योग की सर्वव्यापी लोकप्रियता का ही नतीजा है कि आज महानगरों व छोटे-बड़े शहरों में ही नहीं, कस्बों व तमाम गांवों में भी योग प्रशिक्षण केन्द्र खुल गये हैं। सुबह-शाम पार्कों में भी योगाभ्यास करने वाले दिख जाते हैं। यह एक सुखद संकेत भी है कि लोग अच्छी सेहत के लिए जागरूक हो रहे हैं और योग को उपयोगी मान रहे हैं।
शरीर को मिलती है लयात्मक गति
आज की तेज रफ्तार जिंदगी में हमारे जीवन को स्वस्थ व ऊर्जावान बनाए रखने में योग की उपयोगिता आज देश ही नहीं बल्कि वैश्विक मंच पर भी साबित हो चुकी है। अस्त-व्यस्त होती दिनचर्या, तनाव व अवसाद और तेजी से गहराते प्रदूषण ने इंसानी सेहत को ग्रहण लगा दिया है। असंयमित आचार-विचार व अनुचित खानपान के कारण बड़ी संख्या में लोग हृदय, लीवर, किडनी की गिरफ्त में हैं। शरीर में हारमोनल असंतुलन के कारण डायबिटीज व थायराइड का खतरा बीते एक दशक में जिस तेजी से उभरा है, वह इंसानी सेहत के लिए खतरे की घंटी है। तथाकथित आधुनिकता में जकड़ा आज का व्यथित मनुष्य मन व देह में संतुलन नहीं साध पा रहा। इन सारी समस्याओं से मुक्ति का कारगर समाधान है योग। तमाम शोध नतीजों से आज यह तथ्य प्रमाणित हो चुका है कि योग एक ऐसा माध्यम है जो मस्तिष्क को शांत व शरीर को स्वस्थ व ऊर्जावान बनाए रखता है और इसके अभ्यास से शरीर को एक लयात्मक गति मिलती है।
साम्प्रदायिक रंग देना अज्ञानता
पिछले दिनों एक वर्ग विशेष के कुछ लोगों द्वारा योग को हिंदुत्व की उपज बताकर समाज में साम्प्रदायिक वैमनस्य पैदा करने की कोशिश की गयी। यह पूरी तरह अज्ञानता है। योग विज्ञानियों की मानें तो कुछ संकीर्ण सोच के लोगों द्वारा योग विज्ञान पर हिंदुत्व का लेबल इसलिए लगा दिया गया है क्योंकि इस विज्ञान और तकनीक का विकास भारत की सनातन हिन्दू संस्कृति में हुआ। ऐसे में इसे हिंदू जीवनशैली से जोडक़र देखा जाना स्वाभाविक है। चूंकि हिंदू शब्द सिंधु शब्द से निकला है, जो एक नदी का नाम है। इसलिए इस संस्कृति को हिंदू नाम दे दिया गया। इस विषय में व्यापक दृष्टि से विचार करें तो पाएंगे कि हिंदू न कोई वाद है और न ही कोई धर्म का नाम है, अपितु सनातन जीवन मूल्यों में यकीन रखने वाले एक भौगोलिक भूखंड की सांस्कृतिक पहचान है।
सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर वैदिक एवं उपनिषद की विरासत, बौद्ध एवं जैन परंपराओं, दर्शनों, महाभारत एवं रामायण नामक महाकाव्यों, शैवों, वैष्णवों की आस्तिक परंपराओं एवं तांत्रिक परंपराओं में भी योग की मौजूदगी मिलती है। योग विशारदों की मान्यता है कि वैदिक काल के दौरान सूर्य को सबसे अधिक महत्व मिलने के कारण सम्भवत: योग में सूर्य नमस्कार की प्रथा का आविष्कार हुआ हो। वैदिक संस्कृति में प्राणायाम दैनिक संस्कार का हिस्सा था।
आदि योगी शिव व पहला योग कार्यक्रम
भारत की योग संस्कृति में शिव को आदि योगी माना जाता है। योग विशारदों की मान्यता है कि सदियों पहले सर्वप्रथम देवाधिदेव शिव ने हिमालय के दिव्य वातावरण में योग की सिद्धि प्राप्त की और हिमालय पर एक प्रचंड और भाव विभोर कर देने वाला नृत्य किया। फिर शांत होकर पूरी तरह से निश्चल हो गये। महादेव शिव का तांडव देख सालों से वहां अचल बैठे सात ऋषियों में इस बारे में जानने की चाहत हुई। आदि योगी शिव ने उनकी पात्रता परखी और अपनी यौगिक विद्या उन सात ऋषि साधकों को दी जिन्हें हम सप्त ऋषि के नाम से जानते हैं। इन्हीं सात ऋषियों ने शिव से परम प्रकृति में खिलने की तकनीक और ज्ञान प्राप्त किया और उसे समूची दुनिया में प्रचारित किया। यहीं दुनिया का पहला योग कार्यक्रम हुआ। इन ऋषियों ने योग के इस विज्ञान को एशिया, मध्य पूर्व, उत्तरी अफ्रीका एवं दक्षिण अमरीका सहित विश्व के भिन्न-भिन्न भागों में पहुंचाया मगर योग ने अपनी सबसे पूर्ण अभिव्यक्ति भारत में ही प्राप्त की।
योगविद्या के पुरातन साक्ष्य
गौरतलब हो कि पूर्व वैदिक काल (2700 ईसा पूर्व) में योग की मौजूदगी के कई ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध हैं। इनमें वेद, उपनिषद, स्मृतियों, बौद्ध व जैन धर्म का साहित्य प्रमुख है। व्यास द्वारा योगसूत्र की टीका में भी योग पर महत्वपूर्ण जानकारियां दी गयी हैं। महावीर के पंच महाव्रतों एवं बुद्ध के अष्टांग मार्ग की संकल्पना में भी योग साधना की शुरुआती प्रकृति को देखा जा सकता है। गीता में योग की तीन परिभाषाएं दी गई हैं-कर्म में कुशलता योग है, समभाव में स्थित होकर कर्म करना योग है और दुख के संयोग के वियोग का नाम योग है। जिज्ञासा है कि यदि कोई व्यक्ति बड़ी कुशलता के साथ दुराचार या कदाचार कर रहा है तो क्या वह योग कर रहा है?
गीताकार कहते हैं- नहीं। दक्षता या चतुराई के साथ किया गया कोई भी काम कर्म योग नहीं है। चूंकि पाप-पुण्य दोनों आसक्त कर्म हैं। अत: सभी आसक्त कर्मों का त्याग योग है। योग कर्तव्य कर्म करने की उस कुशलता का नाम है जिससे कर्म का फल लिप्त नहीं होता है। योगिराज कृष्ण कहते हैं कि सर्वोच्च लक्ष्य के साथ संबंध जोड़ लेना ही योग है। गीता कहती है कि सुख-दुख, दोनों स्थितियों में सम रहने वाले योगी को न सुख स्पर्श करता है और न दुख। भगवद्गीता में प्रस्तुत ज्ञान, भक्ति और कर्म योग की संकल्पना वाकई अद्भुत है। यही योग का मर्मार्थ है।
800 से 1700 ईसवी के बीच की अवधि में योग विज्ञान का उत्कृष्ट विकास हुआ। इस अवधि में आदि शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, सुदर्शन, पुरंदर दास, हठयोग परंपरा के गोरखनाथ, मत्स्येंद्रनाथ, गौरांगी नाथ,श्रीनिवास भट्ट आदि ने हठ योग की परंपरा को लोकप्रिय बनाया। इसके बाद 1700-1900 ईसवी के बीच रमन महर्षि, रामकृष्ण परमहंस, परमहंस योगानंद, लाहिड़ी महाशय व विवेकानंद जैसे महान योगाचार्यों आदि ने राजयोग के विकास में योगदान दिया है। इस अवधि में वेदांत, भक्तियोग, नाथयोग व हठयोग समूचे देश में फला फूला। बीसवीं सदी में श्री टी.कृष्णम आचार्य, स्वामी कुवालयनंदा, श्री योगेंद्र, स्वामी राम, श्री अरविंदो, महर्षि महेश योगी, आचार्य रजनीश, पट्टाभिजोइस, बी.के.एस.आयंगर, स्वामी सत्येंद्र सरस्वती, बाबा रामदेव आदि ने योग को पूरी दुनिया में फैलाया।
आचार्य पतंजलि व योगसूत्र
आज योग का जो स्वरूप देश व दुनिया में प्रचलित है, उसका श्रेय आचार्य पतंजलि को जाता है। उन्होंने ही सबसे पहले योग विद्या को व्यवस्थित रूप दिया। उपलब्ध साक्ष्य बताते हैं कि महर्षि पतंजलि ने उस समय विद्यमान योग की विधियोंं, परम्पराओं व संबंधित ज्ञान को व्यवस्थित रूप में लिपिबद्ध किया। एक समय ऐसा आया कि योग की तकरीबन 1700 विधाएं तैयार हो गयीं। योग में आई जटिलता को देख कर पतंजलि ने मात्र 200 सूत्रों में पूरे योग शास्त्र को समेट दिया। इंसान की अंदरूनी प्रणालियों के बारे में जो कुछ भी बताया जा सकता था वो सब इन सूत्रों में शामिल है। पतंजलि के अष्टांग योग में धर्म और दर्शन की सभी विद्याओं के समावेश के साथ-साथ मानव शरीर और मन के विज्ञान का भी सम्मिश्रण है।
200 ईसा पूर्व के दौरान ही पतंजलि ने योग क्रियाओं को योग-सूत्र नामक ग्रन्थ में लिपिबद्ध कर दिया था। योगदर्शन चार विस्तृत भागों में विभाजित है- 1.समाधिपद 2. साधनपद 3. विभूतिपद 4. कैवल्यपद। पतंजलि के अष्टांग योग से तात्पर्य योग के इन आठ अंगो से हैं- 1. यम 2. नियम 3. आसन 4. प्राणायाम 5. प्रत्याहार 6. धारणा 7. ध्यान 8. समाधि। हालांकि वर्तमान समय में योग के जिन तीन को प्रमुखता दी जाती है वे हैं- 1. आसन 2. प्राणायाम 3. ध्यान मुद्राएं।