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गज़ल : गमे-इश्क तो अपना रफीक रहा, कोई और बला से रहा-न-रहा

raghvendra
Published on: 10 Nov 2017 12:56 PM GMT
गज़ल : गमे-इश्क तो अपना रफीक रहा,  कोई और बला से रहा-न-रहा
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बहादुर शाह जफर

नहीं इश्क में इसका तो रंज हमें,

किशिकेब-ओ-करार जरा न रहा

गमे-इश्क तो अपना रफीक रहा,

कोई और बला से रहा-न-रहा

दिया अपनी खुदी को जो हमने मिटा,

वह जो परदा-सा बीच में था न रहा

रहे परदे में अब न वो परदानशीं,

कोई दूसरा उसके सिवा न रहा

न थी हाल की जब हमें अपने ख़बर,

रहे देखते औरों के ऐबो-हुनर

पड़ी अपनी बुराइयों पर जो नज़र,

तो निगाह में कोई बुरा न रहा

हमें सागरे - बादा के देने में अब,

करे देर जो साकी तो हाय गजब

कि यह अहदे-निशात ये दौरे-तरब,

न रहेगा जहां में सदा न रहा

उसे चाहा था मैंने कि रोक रखूं,

मेरी जान भी जाए तो जाने न दूं

किए लाख फरेब करोड़ फसूं,

न रहा, न रहा, न रहा, न रहा

‘ज़फर’ आदमी उसको न जानिएगा,

हो वह कैसा ही साहबे, फहमो-ज़का

जिसे ऐश में यादे-खुदा न रही,

जिसे तैश में खौफे खुदा न रहा

raghvendra

raghvendra

राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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