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सृजन : हिंदी-उर्दू के अज़ीम शायर थे कैफ़ी आजमी, आज भी रुलाती है ये कविता
लखनऊ : सैय्येद अख्तर हुसैन रिजवी उर्फ़ कैफ़ी आजमी एक उर्दू-हिंदी शायर और लाखों दिलों की धड़कन है। उनके शब्द आज भी लोगों के दिलोंदिमाग में गूंजते हैं। उन्होंने हिन्दी फिल्मों के लिए भी कई प्रसिद्ध गीत व ग़ज़लें भी लिखीं, जिनमें देशभक्ति का अमर गीत -"कर चले हम फिदा, जान-ओ-तन साथियों" भी शामिल है।
उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले छोटे से गाँव मिजवां में 14 जनवरी 1919 में जन्मे। गाँव के भोलेभाले माहौल में कविताएँ पढ़ने का शौक लगा। भाइयों ने प्रोत्साहित किया तो खुद भी लिखने लगे। 11 साल की उम्र में उन्होंने अपनी पहली गज़ल लिखी।
आज हम पढ़ाएंगे आपको उनकी एक ऐसी ही भावुक कविता, जिसे पढ़कर आज भी लोगों की आँखें नाम हो जाती है।
तुम परेशां न हो बाब-ए-करम-वा न करो
और कुछ देर पुकारूंगा चला जाऊंगा
इसी कूचे में जहां चांद उगा करते थे
शब-ए-तारीक गुज़ारूंगा चला जाऊंगा
रास्ता भूल गया या यहां मंज़िल है मेरी
कोई लाया है या ख़ुद आया हूं मालूम नहीं
कहते हैं कि नज़रें भी हसीं होती हैं
मैं भी कुछ लाया हूं क्या लाया मालूम नहीं
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यूं तो जो कुछ था मेरे पास मैं सब कुछ बेच आया
कहीं इनाम मिला और कहीं क़ीमत भी नहीं
कुछ तुम्हारे लिए आंखों में छुपा रक्खा है
देख लो और न देखो तो शिकायत भी नहीं
फिर भी इक राह में सौ तरह के मोड़ आते हैं
काश तुम को कभी तन्हाई का एहसास न हो
काश ऐसा न हो ग़ैर-ए-राह-ए-दुनिया तुम को
और इस तरह कि जिस तरह कोई पास न हो
आज की रात जो मेरी तरह तन्हा है
मैं किसी तरह गुज़ारूंगा चला जाऊंगा
तुम परेशां न हो बाब-ए-करम-वा न करो
और कुछ देर पुकारूंगा चला जाऊंगा