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खादी देगी बेरोजगारी से आजादी, सच कर रही गांधी का सपना

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Published on: 28 Sept 2017 2:36 PM IST
खादी देगी बेरोजगारी से आजादी, सच कर रही गांधी का सपना
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सुमन मिश्रा

लखनऊ : वैदिक काल से ही खादी हमारी सभ्यता में समाहित है। आज हम भले ही इसे गांधी जी की देन मानने के साथ स्वावलंबी होने का मूल मंत्र मानते हों, लेकिन वास्तव में कपास की खेती, सूत की कताई-बुनाई वैदिक कालीन है। विश्व पटल पर भारत ने खादी को पहचान दी।

बापू हमारे पहले खादी के ब्रांड एंबेस्डर रहे, जिन्होंने न केवल खादी की ताकत को समझा बल्कि सूत के कच्चे धागे से समाज को स्वावलंबी होने का मंत्र भी दिया। कहते हैं जितनी पुरानी हमारी सभ्यता है, उतना ही पुराना सूत कातना और कपड़ा बुनना है। प्राचीन काल में महिलाएं सूत कातकर कपड़े बनाने के साथ सुविचारों व सत्कर्मो का संदेश देती थी।

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त्रेतायुग कालीन वाल्मिकी रामायण में रेशमी वस्त्रों का जिक्र आता है, तो द्वापरयुग की महाभारत में बारीक सूती वस्त्रों के विषय में जानकारी मिलती है। बौद्ध काल में काशी के सुंदर बनारसी वस्त्रों का जिक्र आता है।

मतला-उल-अनवार में अमीर खुसरो ने अपनी बेटी को फारसी के निम्न पद में सीख दी है :

'दो को तोजन गु' जाश्तन न पल अस्त, हालते-परदा पोक्षकश बदन अस्त।

पाक दामाने आफियत तद कुन, रुब ब दीवारो पुश्त बर दर कुन।

गर तमाशाए-रो जनत हवस अस्त, रो-जनत चश्मे-तोजने तो बस अस्त।।

(बेटी! चरखा कातना तथा सीना-पिरोना न छोडऩा। इसे छोडऩा अच्छी बात नहीं है क्योंकि यह परदापोशी का, शरीर ढकने का अच्छा तरीका है। औरतों को यही ठीक है कि वे घर पर दरवाजे की ओर पीठ कर के घर में सुकून से बैठें। इधर-उधर ताक-झांक न करें। झरोखे में से झांकने की साध को 'सुई' की नकुए से देखकर पूरी करो। हमेशा परदे में रहा करो ताकि तुम्हें कोई देख न सके)। संदेश यह दिया गया था कि जब कभी आने जाने वाले को देखने का मन करे तो ऊपरी मंजिल में परदा डालकर सुई के धागा डालने वाले छेद को आंख पर लगाकर बाजार का नजारा देखा करो।

चरखा कातना इस बात को इंगित करता है कि घर में जो सूत काता जाए उससे कढ़े या गाढ़ा (मोटा कपड़ा) बुनवाकर घर के सभी मर्द तथा औरतें पहना करें। महात्मा गांधी ने तो बहुत सालों के बाद सूत कातकर खादी तैयार करके खादी के कपड़े पहनने पर जोर दिया था। लेकिन अमीर खुसरो ने बहुत पहले तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी में ही खादी घर में तैयार करके खादी कपड़े पहनने के लिए कह दिया था।

गांधीजी ने साउथ अफ्रीका से लौटने के बाद साबरमती आश्रम की स्थापना कर श्रम आधारित जीवन जीने की शुरुआत की। स्वयं करघे पर बैठकर कातना, बुनना और कपड़ा बनाना शुरू किया। यह स्वावलंबन ही गांधीजी को खादी के निर्माण की ओर ले गया। 1920 तक खादी केवल गांधी आश्रम तक सीमित था, लेकिन उसके बाद जन सहयोग से गांधी जी ने खादी के संदेश पूरे देश में फैलाया।

1923 में अखिल भारतीय खद्दर बोर्ड की स्थापना हुई। जिसे खादी का सारा काम दिया गया। बाद में गांधीजी को लगा कि खादी कांग्रेस तक सीमित है तो उन्होंने इसे बदलकर 1925 में अखिल भारतीय चरखा संघ बना दिया और फिर देश में खादी को लेकर काम ने तेजी पकड़ी। गांधीजी की नजर में खादी का मतलब देश की जनता को आर्थिक स्वावलंबन और समानता देना था। लेकिन क्या हम आज उद्देश्य को पूरा कर पाए हैं, जो काम खादी को लेकर 18-19 वीं सदी में तीव्र हुआ था। क्या आज उसकी गति वैसी है या बस हम नाम को जिंदा रखने में सफल हैं। इससे जानने की कोशिश में हमने कुछ प्रबुद्ध लोगों विशेषकर वो जो खादी को लेकर आज भी प्रयासरत हैं, उनसे बात की कि क्या सच में आज खादी जिंदा है या बस नाम की माला जपने में लगे हैं?

सच कर रहीं हैं गांधी का सपना

रेगिस्तान में फूल खिलाने की कहावत को चरितार्थ करती है टोंक जिले की लाड़ कंवर। जो कई सालों से समाज सेवा के साथ गांधीजी के सपने को सच करने के लिए प्रयासरत है। लाड़ कंवर आज के समय में खादी औनपचारिक शिक्षा केंद्र की समन्वयक हैं और हजारों महिलाओं को शिक्षा के साथ खादी के कपड़े बनान सूत कातना सिखा चुकी है। उम्र के इस पड़ाव पर भी उनका जोश कम नहीं है वो आज भी उसी लगन से काम कर रही हैं जो कई सालों पहले उन्होंने संघर्ष के साथ शुरू किया था।

वो पुराने दिनों को याद करते हुए कहती है कि जब महिलाएं घर से बाहर नहीं आना चाहती थीं, लोग उनपर हंसते थे, तब उनके मन में सूत कातने और शिक्षा देने का विचार आया। धीरे-धीरे किए गये प्रयासों का नतीजा है कि आज जिनको उन्होंने खादी बनाना सिखाया। वो आज स्वावलंबी होकर खुद के साथ दूसरों का भी भरण-पोषण कर रही है। वो कहती है कि लगता नहीं कि वो कोई बड़ा काम कर रहीं हैं पर जब लोग सम्मान देते हैं, तब लगता है, कुछ किया है साथ ही समाज के लिए कुछ और करने की इच्छा हमेशा प्रबल रहती है।

सालों से खादी से जुड़े और इसको आगे बढ़ाने के लिए सतत प्रयत्नशील वनस्थली विद्यापीठ के डिजाइन डिपार्टमेंट के डीन/डायरेक्टर प्रोफेसर डॉ. हिमाद्रि घोष का कहना है कि खादी हमारे देशी प्राचीन सभ्यता की देन है। ये आर्यों के पहले से हमारे देश में है। हम इसे गांधीजी से जोड़कर देखते हैं जो सही नहीं है। आज के समय में खादी तो नहीं रह गई है। बस हम उसके नाम और ब्रांड को भुना रहे हैं। पहले चद्दर और फिर खद्दर और उसके बाद बनी खादी। लेकिन आज सब कमीशन की भेंट चढ़ गया है। जो खादी के ब्राइट फ्यूचर को नहीं दिखाता है।

मशीनीकरण होने से स्वावलंबन का जो उद्देश्य हमें खादी बनाने से था, आज खत्म हो चुका है। आज खादी के लिए हमारे देश में सही प्रयास नहीं हो रहा। यहां की व्यवस्था में भ्रष्टाचार व्याप्त हो गया है। विदेशों में खादी को प्रचलित करने में क्रिस्टन दोसा विशेष रूप से योगदान दे रही हैं। क्रिस्टन की 26 दुकानें दुनिया भर में फैली हैं, जो असली खादी के कपड़े बेचती हैं। क्रिस्टन हमारे देश आकर खादी के हाथ से बुने कपड़े बनवाती हैं। कारीगरों को उचित मूल्य देने के साथ इन कपड़ों की लागत भी अधिक होती है। यही एक वजह है कि विदेशों में इन कपड़ों का सही मूल्य मिल पाता है। प्रो. घोष के मुताबिक जब बाहर के लोग हमारे देश से खादी को ले जाकर मुनाफा कमा सकते हैं, तो हमें भी उसी तरह के प्रयास करने की जरूरत है।

फैशन और ट्रेंड के साथ बदलाव जरूरी

रेमंड के पूर्व वाइस प्रेसिडेंट और वर्तमान में डिजाइन डिपार्टमेंट के विभागाध्यक्ष के.डी. जोशी के मुताबिक खादी इंडिया का हाथ से बना नेचुरल फाइबर कपड़ा है। यह और कपड़ों के मुकाबले ज्यादा इकोफ्रैंडली है और हर मौसम में आरामदायक है। इसे ट्रेंड में लाने के लिए इसकी ब्रांडिंग करना भी जरूरी है तभी लोग इसके प्रति जागरूक होंगे। ये गांवों से जुड़ा व्यवसाय है, जिसे सरकार को शहरों तक पहुंचाने का काम करना चाहिए। साथ ही इसमें स्वरोजगार के अवसर देकर लोगों को स्वावलंबी बनाना चाहिए। यूथ इसकी तरफ आकर्षित हों, इसके लिए खादी को फैशन और ट्रेंड के हिसाब से बनाने की जरूरत है।

इकोफ्रेंडली है खादी

खादी व टेक्सटाइल के क्षेत्र में काम कर रही दीपिका पुरोहित का कहना है कि करीब 20 साल पहले खादी की उतनी डिमांड नहीं थी या ये कहें कि ये कुछ विशेष तबके-वर्ग तक ही सीमित थी। लेकिन आज खादी का मॉडर्नाइजेशन हो गया है। लोग इसे खरीदना और पहनना दोनों चाहते हैं। इसके पीछे वजह ये रही है कि खादी पहनने से जो रॉयल लुक आता है, वो शायद ही किसी और कपड़े आता हो। खादी इकोफ्रेंडली भी है। आज के लग्जरी लाइफ में ये शामिल है और कभी इससे कतराने वाले यूथ अब इसे पहनना अपना स्टाइल समझते हैं इसकी कीमत ज्यादा होने की वजह से आमलोग इसे चलन में नहीं ला पाते हैं।

खास समारोहों में अभी भी खादी से परहेज

फैशन डिजाइनिंग से जुड़ी आशिमा अरोड़ा का कहना है कि खादी को लेकर आज भी जागरूकता की कमी है। खादी में ब्राइटनेस यानी चमक नहीं होने की वजह से लोग इसे खास समारोह में नहीं पहनते हैं। आज फैशन इंडस्ट्री में खादी को लेकर प्रयोग किए जा रहे हैं। डिजाइनर खादी को लेकर डिफरेंट फैब्रिक तैयार कर रहे हैं, जिससे अधिक से अधिक इसकी डिमांड हो। वैसे, फैशन शो में भी अब खादी रिफाइंड होकर आ रहा है। बस खादी में एक और प्रयोग की जरूरत है ताकि शादियों में भी इसका इस्तेमाल कर सके, लेकिन अभी बहुत ज्यादा काम करने की जरूरत है।

रोजगार देने वाला व्यवसाय

खादी पर रिसर्च कर रहे एसोसिएट प्रोफेसर मेघश्याम गुर्जर का मानना है कि खादी गांधी जी की देश को देन है। यह बहुआयामी वस्त्र है, जो पूर्णत: हाथों द्वारा बनाया जाता है। यह गर्मी में ठंडा और सर्दी में गर्म होता है। खादी का गांवों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका है। यह स्वावलंब बढ़ाने के साथ रोजगार देने वाला व्यवसाय है। वर्तमान में इसकी लोकप्रियता लगातार कम होती नजर आती है। इसके कई कारण हैं, जिनमें निम्न स्तर की बुनाई, अलंकरण व नयेपन का अभाव, रंगों का धुलाई के दौरान उतरना, रंग फेड हो जाना, नये पैटर्न का अभाव, पसंद व मांग के अनुसार बदलाव नहीं होना आदि है। नैसर्गिक रंग तथा ईकोफ्रेंडली रंग अपनाने से पर्यावरण प्रदूषण बचाने में मदद हो सकती है।

कैशलेस भारत को अपनाएं खादी

एसोसिएट प्रोफेसर शर्मिला गुर्जर कहती हैं कि आज का उपभोक्ता 21वीं सदी का है। पूरे विश्व के साथ भारत आज एक बड़े परिवर्तन की ओर बढ़ रहा है। आज बाजार कैशलेस हो गए हैं, लेकिन खादी से जुड़े लोग आज भी पुरातन परंपराओं को ढो रहे हैं। वर्तमान भारत में युवाओं की संख्या विश्व में सर्वाधिक है। यह युवा पर्यावरण के प्रदूषण के प्रति संवेदनशील हैं। यह इकोफ्रेंडली खादी का बड़ा उपभोक्ता वर्ग हो सकता है।

इसे अपनी ओर आकर्षित करने के लिए खादी को उनकी आवश्यकता व पसंद के अनुकूल बनाना होगा। इसलिए युवाओं की आवश्यकता, पसन्द, वर्तमान में नित नए होने वाले तकनीकी बदलाव इत्यादि का अध्ययन व उससे उसके अनुसार खादी के प्रकार, अलंकरण, रंग में बदलाव लाना आवश्यक है। युवाओं की बड़ी हिस्सेदारी को देखते हुए खादी में आवश्यक बदलाव से खादी को बड़ा बाजार प्राप्त हो सकता है। साथ ही लाखों लोगों को रोजगार प्राप्त हो सकता है।

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