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व्यंग्य: तुम ऐसे क्यों आईं लक्ष्मी
प्रेम जनमेजय
लोग दीपावली पर लक्ष्मी पूजन करते हैं, मेरा सारे वर्ष चलता है। फिर भी लक्ष्मी मुझपर कृपा नहीं करती। मैं लक्ष्मी-वंदना करता हूँ, हे भ्रष्टाचार प्रेरणी, हे कालाधनवासिनी, हे वैमनस्यउत्पादिनी, हे विश्वबैंकमयी! मुझपर कृपा कर! बचपन में मुझे इकन्नी मिलती थी पर इच्छा चवन्नी की होती थी, परंतु तेरी चवन्नी भर कृपा कभी न हुई। यहाँ तक मुझमें चोरी, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी आदि की सदेच्छा भी पैदा न हुई वरना होनहार बिरवान के होत चिकने पात को सही सिद्ध करता हुआ मैं अपनी शैशवकालीन अच्छी आदतों के बल पर किसी प्रदेश का मंत्री/किसी थाने का थानेदार/किसी क्षेत्र का आयकर अधिकारी/आदि-आदि बन देश-सेवा का पुण्य कमाता और लक्ष्मी नाम की लूट ही लूटता। युवा में मैं सावन का अंधा ही रहा। जिस लक्ष्मी के पीछे दौड़ा, उसने बहुत जल्द आटे-दाल का भाव मुझे मालूम करवा दिया। हे कृपाकारिणी मुझपर इस प्रौढ़ावस्था में ही कृपा कर। मैं मानता हूँ कि मैंने मास्टर बनकर तेरी आराधना के समस्त द्वार बंद कर दिए हैं परंतु हे रिश्वकेशी तेरे प्रताप से जेलों के ताले खुल जाते हैं, एक दी-हीन मास्टर के द्वार क्या चीज है। एक दरवाजा मेरी तरफ ही खोल दे।
तभी दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी। पत्नी बोली, ‘सुनते हो, देखो शायद लक्ष्मी आई है।’ मैं मुद्रस्फीति-सा एकदम उठकर लक्ष्मी के स्वागत को बढ़ा परंतु रुपए की अवमूल्यन-सा लुढक़ गया। क्यों कि मेरी पत्नी ने जिस लक्ष्मी के स्वागत के लिए दरवाजा खोलने का अलिखित आदेश दिया था, वह उस समय के अनुसार हमारी कामवाली हो सकती थी जिसके स्वागत की परंपरा हमारे परिवारों में कतई नहीं है।
‘दरवाजा तुम ही खोल दो।’ मेरे स्वर में आम भारतीय की हताशा थी।
पत्नी ने दरवाजा खोला, सामने लक्ष्मी नहीं, लक्ष्मीकांत वर्मा थे। उनका चेहरा सरकारी कर्मचारी को महंगाई-भत्ता मिलने के समाचार-सा खिला हुआ था। लक्ष्मीकांत बोले, ‘भाभी जी, आज तो फटाफट मिठाई मँगवाइए, बढिय़ा चाय पिलवाइए और घर में बेसन हो तो पकौड़े भी बनवा दीजिए।’
उसकी इस मंगवाइए/बनवाइए आदि योजनाओं पर अपनी तीव्र प्रतिक्रिया देते हुए मैंने कहा, ‘क्यों शर्मा, क्या तू विश्व बैंक का प्रतिनिधि है जो तेरा अभूतपूर्व स्वागत करने को हम बाध्य हों?’
‘यही समझ ले घोंचूलाल! देख, मैं भाभी जी से बात कर रहा हूँ, तू बीच में अपनी टाँग क्यों अड़ा रहा है? भाभी जी, मैं आपके लिए हजारों रुपए मिलने की ख़बर लाया हूँ और ये है कि,’ लक्ष्मीकांत ने अमेरिकी स्वर में कहा।
‘तुम चुप रहो जी!’ पत्नी ने ससम्मान मुझे डाँटा और लक्ष्मीकांत की तरफमुस्कराकर देखा तथा कहा, ‘आप बैठिए न भाई साहब मैं अभी आपके लिए सबकुछ बनाकर लाती हूँ। आप हजारों मिलने वाली बात बताओ न।’ पत्नी में ऐसा सेवाभाव मैंने कभी नहीं देखा था।
‘भाभी जी, आपको याद होगा कि मैंने आपसे एक हजार रुपए लेकर एक कंपनी के शेयर भरवाए थे, उसका अलोटमेंट लैटर आ गया है।’
‘यानी हमारे हज़ार रुपए डूब गए। तुझे तो खुशी ही होगी हमारे रुपए डूबने की, तू हमारा सच्चा दोस्त जो है।’ मैंने इस मध्य आह भरी।
‘अरे बौड़म, रुपए डूबे नहीं हैं, उस हजार रुपए के तीन महीने में दस हजार हो गए हैं। कंपनी का दस रुपए का शेयर आज सौ में बिक रहा है सौ में कुछ समझे संत मलूकदास जी।’
पत्नी विवाहित जीवन के पच्चीस वसंत देखने से पूर्व या तो चहकी थी या फिर उस दिन लक्ष्मीकांत उवाच के कारण चहकी और चहकते हुए उसने पूछा, ‘हमारे कितने शेयर हैं।’
‘सौ शेयर।’
‘सौ शेयर! और अगर हम उन्हें बेचें तो हमें दस हजार रुपए मिलेंगे दस हजार! अजी सुनते हो लक्ष्मी भैया की बदौलत हमें दस हजार मिलेंगे।’ (सुधीजन नोट करें, धन लक्ष्मी मैया के अतिरिक्त लक्ष्मी भैया की बदौलत भी मिल सकता है। अत: हे संतों, सदैव लक्ष्मी का स्मरण करें।) ये दस हजार हमें कब मिलेंगे लक्ष्मी मैया!’
‘भाभी जहाँ इतना इंतज़ार किया वहाँ थोड़ा इंतजार और कर लो। आप देख लेना कुछ दिनों में ये दो-सौ नहीं तो डेढ़ पौने दो पर तो जाएगा ही। सिर्फ दस-पंद्रह दिन की बात है। दौड़ते घोड़े को चाबुक नहीं मारनी चाहिए। आप तो अब पार्टी की तैयारी कर लो और पंद्रह बीस हजार गिनने की भी तैयार कर लो।’ लक्ष्मीकांत ने आशीर्वादात्मक मुद्रा में कहा।
‘पार्टी तो आप जितनी ले लो। पंद्रह-बीस हजार! भाई साहब मुझे लगता है कि आप मेरा मन रखने के लिए ऐसा कह रहे हैं, मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा है। बेसन नहीं मैं आपके लिए ब्रजवासी की पिस्तेवाली बरफी मँगवाती हूँ कोला तो आपको पीकर ही जाना होगा। तुम आराम से सोफे पर क्या बैठे हो जल्दी से बाज़ार हो आओ हे भगवान!’
लक्ष्मीकांत तो अपना सत्कार कर के चले गए परंतु हम पति-पत्नी एक अंतहीन बहस में उलझ गए। पत्नी अंतर्राष्ट्रीय सहायता कोषरूपा हो गई और उसने बजट बनाने के दिश निर्देश मुझे जारी कर दिए। माता-पिता को भेजी जाने वाली राशि में कटौती करवाई, मुझसे अनेक वायदे लिए तथा चाय-पानी जैसी जरूरी चीजों को बेकार सिद्ध किया। पत्नी के सुप्रयत्नों से मेरा भुगतान-संतुलन बिगड़ गया और मित्रों की निगाह में दीन-हीन बन गया।
भविष्य के लिए वह जो भी बजट बनाती, वह पंद्रह हज़ार से कम बन ही नहीं रहा था। पंद्रह अभी आए नहीं थे पर उसकी आशा में उधारी के छह-सात हज़ार शहीद हो चुके थे। बड़ी चादर की अपेक्षा में पैर फैल रहे थे। पत्नी रोज सुबह मुझे उठाती, हाथ में अखबार पकड़ाती और जैसे मैं कभी माँ को रामायण सुनाया करता था वैसी ही श्रद्धा से पत्नी को शेयरों के भाव पढक़र सुनाया करता। हम घंटों उस पेज को घूरते रहते। देश में कहाँ हत्या हो रही है, किसका घर जल रहा है और कौन जला रहा है ऐसे समाचारों में हमें कोई दिलचस्पी नहीं रह गई थी। जिस दिन शेयर का भाव बढ़ जाता उस दिन पत्नी अच्छा नाश्ता और भोजन खिलाती और जिस दिन घट जाता उस दिन घर में जैसे मातम छा जाता। बच्चे पिट जाते और पति-पत्नी के बीच महाभारत का लघु संस्करण खेला जाता। पत्नी का रक्तचाप पहले केवल मेरे कारण बढ़ता-घटता रहता था, आजकल शेयर बाज़ार की उसमें महत्वपूर्ण भूमिका रहती।
महीना बीत गया। शेयर डेढ़ सौ पर जाने की बजाय साठ पर आ गया यानी नौ हजार का कागजी नुकसान हमें हो गया। पत्नी ने संतोषधन नामक मंत्र का जाप किया और आदेश दिया कि प्रिय तुम शेयर-संग्राम में जाओ और इसका कुछ कर आओ। मैंने लक्ष्मीकांत से अनुरोध किया तो उसने हमारी हड़बड़ी पर लेक्चर दे डाला तथा सहज पके सो मीठा होय नामक मंत्र का जाप करने को कहा। उसने आत्मविश्वासात्मक स्वर में कहा कि कंपनी के रिज़ल्ट अच्छे आने वाले हैं और तब यह निश्चित ही दो सौ पर जाएगा। हम अपना परिणाम भूल कंपनी के परिणाम पर ध्यान देने लगे। लक्ष्मीकांत ने हमारे मन में लालच का दीपक पुन: जगा दिया था। मेरा पढऩा-लिखना बंद हो गया और मन विदेश-भ्रमण के लालच-सा सदैव शेयर बाज़ार के ईद-गिर्द ही मँडराता रहता।
जिस तरह से लक्ष्मी भैया ने लक्ष्मी मैया के आने का धमाका किया था वैसे ही उसके जाने का किया। कंपनी के परिणाम ठीक नहीं आए, उसे घाटा हुआ था अत: शेयर लुढक़ता-फुडक़ता ग्यारह पर आ टिका। हमने भागते चोर की लंगोटी नामक मुहावरे की सार्थकता सिद्ध की तथ शुक्र मनाया की गाँठ से पैसा नहीं गया। पत्नी ने सवा पाँच रुपए का प्रसाद चढ़ाया और ऋण भुगतान में जुट गया।
अब मैं लक्ष्मी वंदना नहीं करता हूँ, बस लक्ष्मी मैया से एक प्रश्न करता हूँ ‘तुमने आने का अभिनय क्यों किया लक्ष्मी! कहीं तुम भी तो चुनाव नहीं लड़ रही हो!’