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यूपीएससी की परीक्षा ने मैथिली को दी नई ऊंचाइयां, भोजपुरी पीछे

tiwarishalini
Published on: 4 Aug 2017 2:03 PM IST
यूपीएससी की परीक्षा ने मैथिली को दी नई ऊंचाइयां, भोजपुरी पीछे
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अजीत दुबे

लखनऊ: अभी हाल ही में संघ लोक सेवा आयोग ने सिविल सर्विसेज परीक्षा 2016 परिणाम घोषित किया। इसमें मैथिली भाषा से परीक्षा में शामिल 13 अभ्यर्थी चयनित हुए हैं। चयनित छात्रों में बिहार के अलावा हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के भी छात्र हैं। यूपी के अर्चित विश्वेश, हरियाणा के अंकित भरद्वाज, राजस्थान के सतपाल और नीलिमा खोरवाल मैथिली भाषी या मिथिला निवासी नहीं होकर भी यह विषय चुना और कामयाब रहे। 2004 में संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हुई मैथिली आज इस मुकाम तक पहुंच गई है, जहां से वह सिविल सेवकों की फौज तैयार कर रही है।

यूपीएससी की परीक्षा ने मैथिली को नई ऊंचाइयां दी है। मैथिली को संवैधानिक मान्यता हेतु तमाम मैथिल अभियानियों ने अथक प्रयास किये हैं। अब यह प्रयास रंग ला रहा है। लेकिन यूपीएससी के इस परिणाम से चंद हिंदीसेवी अनर्गल प्रलाप कर रहे हैं। वे इसे हिंदी की सार्वभौमिकता के प्रति खतरे के रूप में देख रहे हैं। मैथिली के प्रति इतना दुराग्रह है कि वे हिंदी के सिलेबस से मैथिली के महाकवि विद्यापति को बाहर करने की मांग कर रहे हैं।

वे ये भूल रहे हैं कि हिंदी का अस्तित्व तभी तक है जब तक क्षेत्रीय भाषाओं का अस्तित्व जिंदा। पिछले हफ्ते इसी आशय का एक आलेख मैथिली को हिंदी में सेंध लगाने का हक क्यों एक अखबार के अंक में प्रकाशित हुआ। लेखक अमरनाथ का यह आलेख उनकी अज्ञानता व पूर्वाग्रह का प्रतीक है

वे शायद ही इस तथ्य से परिचित हों कि मैथिली की प्रथम पुस्तक 1224 की वर्णरत्नाकर है विद्यापति से 100 वर्ष पहले का विश्वकोश। विद्यापति को हिंदी का आदिकवि साबित करने की कोशिश की जाती है जबकि वे हिंदी के कवि हैं ही नहीं। जिनको भारत की वैविध्यपूर्ण संस्कृति का ज्ञान नहीं है वे ही ऐसे विक्षिप्त भाषण कर सकते हैं। हिंदी के नाम पर अपनी दुकानदारी चलाने वाले ऐसे तथाकथित हिंदी प्रेमी राज्यभाषा हिंदी के प्रति विद्वेष को भी वे जन्म दे रहे हैं जिसे अंग्रेजी का स्थान लेना है न की मातृभाषाओं का।

राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर ने कहा था। प्रत्येक के लिए अपनी मातृभाषा और सबके लिए हिंदी। लेकिन यह अबतक हो नहीं सका है। अंग्रेजी का दबदबा अब तक कायम है और अंग्रेजी की भाषाई औपनिवेश को कहीं से कोई चुनौती नहीं मिल पा रही है। उल्टे अब ये हो रहा है कि हिंदी को भोजपुरी, मैथिली जैसी लोकभाषाओं के बरक्श खड़ा करने की कोशिश की जा रही है। इसके पीछे की राजनीति को भी चिन्हित किया जाना आवश्यक है। हमें लगता है कि आजादी के सत्तर साल बाद भी हम अपनी भाषा को लेकर कोई ठोस नीति नहीं बना पाए। अब वक्त आ गया है कि भाषा संबंधी ठोस नीति बने और उसको बगैर किसी सियासत के लागू किया जा सके।

इस बार कर्नाटक की नंदिनी इस परीक्षा में अव्वल रही हैं। OBC से ताल्लुक रखने वाली नंदिनी ने सिविल सेवा परीक्षा में वैकल्पिक विषय के तौर पर कन्नड़ साहित्य लिया था। हालांकि उन्होंने बेंगलुरू के एमएस रमैया तकनीकी संस्थान से सिविल इंजीनियरिंग में स्नातक की डिग्री भी ली हुई है। पिछले साल सिविल सेवा परीक्षा में मैथिली साहित्य को वैकल्पिक विषय लेकर चयनित अधिकारियों को अखिल भारतीय मिथिला संघ द्वारा आयोजित मैथिल मनीषि महोत्सव में सम्मानित किया गया।

चयनित अधिकारियों ने इस मौके पर कहा कि मैथिली साहित्य की समृद्ध परंपरा की बदौलत वे लोग इस मुकाम तक पहुंच सके। यह सन्दर्भ इसलिए मायने रखता है कि यदि भोजपुरी को भी उसका वास्तविक दर्जा मिल गया होता तो आज भोजपुरी भाषा वाले भी अपने को गौरवान्वित पाते। लोक सेवा परीक्षाओं में क्षेत्रीय भाषाओं के माध्यम से सफलता अर्जित करने वालों की बढ़ती संख्या से एक ओर जहां भोजपुरी भाषी आशान्वित हैं तो वही हिंदी के कुछ स्वघोषित मठाधीश भोजपुरी व हिंदी के बीच छद्म दुराव का राग अलापने लगे हैं।

इनके द्वारा यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल करने से हिंदी कमजोर होगी। अब इन्हें कैसे समझाया जाय कि भोजपुरी की मान्यता से हिंदी को कोई खतरा नहीं है। यह एक बड़े जनमानस के स्वाभिमान व अस्मिता का प्रश्न है इससे हिंदी कहीं से विखंडित नहीं होंने वाली है।

ज्ञानपीठ सम्मान से सम्मानित हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार केदारनाथ सिंह बेहिचक यह स्वीकार करते हैं कि भोजपुरी मेरा घर है और हिंदी मेरा देश। न घर को छोड़ सकता हूं, न देश को। उनकी यह स्वीकारोक्ति एकदम सटीक प्रतीत होती है। हिंदी भोजपुरी के पारस्परिक संबंध को ऐसे समझा जाय कि हिंदी गंगा है और भोजपुरी जैसी अन्य लोकभाषाएं सहायक नदी हैं जिनसे जल लेकर गंगा को अपना असली वैभव प्राप्त होता है। दुखद है कि 1000 साल से भी पुरानी, 16 देशों में फैली, देश-विदेश में 20 करोड़ से भी ज्यादा लोगों द्वारा बोली जाने वाली और भारत में हिंदी के बाद दूसरी सबसे बड़ी भाषा भोजपुरी को हिंदी के कुछ स्वनामधन्य पैरोकारों द्वारा बोली कह कर नकारा जा रहा है। जबकि यह तथ्य सर्वविदित है कि हिंदी का इतिहास महज डेढ़-दो सौ साल पुराना ही है।

भारतीय सभ्यता में भाषा को माता का स्वरूप माना जाता है। शिक्षा के माध्यम को लेकर आये दिन कई बहस होती रहती है, जिसमें से अधिकांश निरर्थक होती है। अपनी मातृभाषा में शिक्षा पाना हर बच्चे का जन्मसिद्ध अधिकार भी है और उसका सौभाग्य भी। इसी के चलते भारत के कई राज्यों में भाषा बचाव आंदोलन प्राय: होते रहते हैं। सोचिये, यदि भोजपुरी को दर्जा मिल गया होता तो भोजपुरी भाषी छात्रों को कितना लाभ हो सकता था।

भोजपुरी विषय का भी परचम आज लहरा रहा होता और भोजपुरी क्षेत्र के नौजवानों को अपनी इस मातृभाषा पर गर्व होता। केंद्र की वर्तमान सरकार सबका साथ, सबका विकास को अपना ध्येय वाक्य मानती है।

लेकिन केंद्र की मौजूदा सरकार में शामिल कई केंद्रीय मंत्रियों द्वारा समय-समय पर दिये गये आश्वासनों के बावजूद भी भोजपुरी अभी तक संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं हुई है। नतीजतन सिविल सर्विसेज सहित अन्य परीक्षाओं की तैयारी कर रहे भोजपुरी भाषी छात्रों को वैकल्पिक विषय, विषय के रूप में भोजपुरी के चयन का विकल्प नहीं मिलता रहा है। परिणामत: इसका सीधा असर उनकी सफलता पर पड़ रहा है। जरूरत है इस अवसर पर सरकारी तौर संजीदगी की, ताकि भोजपुरी भी उज्ज्वल भविष्य की ओर बढ़े सके।

(लेखक विश्व भोजपुरी सम्मलेन के अध्यक्ष हैं)

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Excellent communication and writing skills on various topics. Presently working as Sub-editor at newstrack.com. Ability to work in team and as well as individual.

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