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INDEPENDENCE DAY SPECIAL: सरहद की हिफाजत में जिंदगी बनी व्हीलचेयर

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का बाकी यही निशां होगा। मौजूदा परिस्थितियों में लगता है यह पंक्तियां सिर्फ दिखावे

tiwarishalini
Published on: 13 Aug 2017 5:19 PM IST
INDEPENDENCE DAY SPECIAL: सरहद की हिफाजत में जिंदगी बनी व्हीलचेयर
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लखनऊ: शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का बाकी यही निशां होगा। मौजूदा परिस्थितियों में लगता है यह पंक्तियां सिर्फ दिखावे को रह गई हैं। जाबाज जवानों के सम्मान में लिखे गए इस शेर के मायने वक्त के साथ बदल गए हैं। 15 अगस्त यानी स्वाधीनता दिवस पर आसमान से लेकर जमीन तक देशभक्ति उमड़ पड़ती है। भाषणों में जयहिंद और जय जवान, जय किसान का नारा गूंजता है। लेकिन यह भी विडंबना है कि आजादी के 70 सालों में हालात इतने बुरे हो गए हैं कि सरकारों को वंदेमातरम गाने के लिए राजाज्ञा जारी करनी पड़ती है।

देशवासियों की यह कैसी देशभक्ति है हम कह नहीं सकते हैं। लेकिन सिर्फ एक दिन के बाद देशभक्ति कहां गुम हो जाएगी, पता नहीं चलता। इसके बाद खुद में हम इतने खो जाते हैं कि हमें राष्ट्र के प्रति खुद के कर्तव्यों और दायित्वों का बोध नहीं रहता है। सीमा और सुरक्षा में लगे लाखों जवान हमारे लिए प्रेरणा और आदर्श स्रोत हैं। राष्ट्र के लिए शहीद होने वाले और जिंदगी को अपाहिज बनाने वाले ऐसे लाखों जवान हमारे बीच हैं जो गुमनामी की जिंदगी बसर कर रहे हैं।

जाबाज जवानों की सुध लेने वाला कोई नहीं है। सरकार प्रशस्ति पत्र और पेंशन देकर अपने दायित्वों की इतिश्री कर लेती है। बाद में ऐसे जवानों पर क्या गुजरती है, उनकी समस्याओं की निगरानी करने के लिए कोई संस्था नहीं है।

स्वाधीनता संग्राम की बड़ी घटनाओं और देशभक्तिों की शहादत को हम बड़े गर्व से याद करते हैं। ऐसे लोगों पर इतिहास की मोटी-मोटी किताबें लिखी गई हैं। स्वतंत्रता दिवस पर हम उन्हें याद करते हैं। लेकिन आजाद भारत में आतंकवाद, नक्सलवाद और सीमासुरक्षा, लैंडमाइन और दूसरे प्राकृतिक आपदाओं में जो शहीद हो गए और पूरी जिंदगी बैसाखियों पर टिका दिया, वह आज हाशिए पर हैं।

सेना, सीआरपीएफ संग दूसरी सुरक्षा एजेंसियों के जवान गुमनामी की जिंदगी जी रहे हैं। हमारे पास उनके लिए कोई ठोस नीति नहीं है। ऐसे जवानों की अहमियत शहीद होने वाले जवानों से किसी भी मायने में कम नहीं है, लेकिन हम उनका खयाल नहीं रखते हैं। समाज में उन्हें जो सम्मान मिलना चाहिए, वह नहीं मिल पाता है।

देश में इस तरह के लाखों जवान हैं, जिनकी जिंदगी व्हीलचेयर के इर्द-गिर्द घूमती है। व्हीलचेयर पर जिंदगी गुजारने वालों में एक हैं उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले में स्थित मलेथूखुर्द गांव के जांबाज राकेश कुमार सिंह। वह जिंदगी भर के लिए अपाहिज हो गए। 12 सालों से उनकी जिंदगी व्हीलचेयर पर बीत रही है, वह चल फिर नहीं पाते हैं।

फैजाबाद के इस जांबाज जवान से सेना का रिश्ता 1995 में जुड़ा था। वह सेना के बंगाल इंजीनियरिंग कोर में ज्वाइनिंग की थी। बाद में उनका तबादला राष्ट्रीय राइफल्स की 39वीं बटालियन में हुआ।

राकेश सिंह के अनुसार, जिस दिन यह घटना हुई वह 2005 की 15 अप्रैल थी। उनकी नियुक्ति जम्मू एवं कश्मीर में पुंछ जिले के मेंढर सेक्टर में लगी थी। सात जवानों की टोली रात 11 बजे कांबिंग के लिए जंगलों में जा रही थी। उसी दौरान छतराल गांव में एक मकान में छुपे आतंकवादियों ने सेना के गश्ती दल पर हमला बोल दिया, जिसकी वहज से जवानों और आतंकियों में मुठभेंड़ शुरू हो गई, जिसमें दो जवान शहीद हो जबकि दो घायल हो गए।

उसी दौरान भारत मां के जांबाज सपूत राकेश सिंह को आतंकियों की एके-47 से चली तीन गोली जा लगी। एक गोली रीढ़ की हड्डी में जा घुसी, जिसकी वजह से उनकी पूरी जिंदगी अपाहिज हो गई और व्हीलचेयर उनका हम सफर बन गया। इस घटना के बाद सेना की तरफ से दो साल तक ऊधमपुर, नई दिल्ली, पूना और लखनऊ स्थित कमांड अस्पताल में दो साल तक इलाज चला, लेकिन रीढ़ में लगी गोली की वजह से वह सामान्य नहीं हो पाए और पैरालीसीस के शिकार हो गए।

बकौल राकेश सिंह बड़े गर्व से कहते हैं, "मुझे गोली लगने का कोई गम नहीं है। सेना की सेवा चुनने वाला हर जवान और उसकी सांस देश के लिए होती है। लेकिन सरकार और समाज की तरफ से ऐसे हालत में पहुंचे जवानों को जो सम्मान मिलना चाहिए, वह नहीं मिलता। देश की सेवा करते हुए मैं अपाहिज हो गया हूं, लेकिन समाज और अफसरों की तरफ से जो सम्मान मिलना चाहिए, उसकी उम्मीद वह सहानूभूति नहीं दिखती। खुद का काम कराने के लिए आम आदमी की तरह जद्दोजहद करनी पड़ती है। हमारे लिए कोई विशेष काउंटर और सुविधाएं उपलब्ध नहीं होती है।"

हालांकि राकेश सिंह को सरकार की तरफ से पेंशन मिलती है, लेकिन आज के हालात को देखते हुए यह नाकाफी है। वह अपने पिता समरजीत सिंह और मां सत्यवती के साथ फैजाबाद में रहते हैं। जहां उनकी पत्नी सुमन सिंह उनकी देखभाल करती हैं। सुमन अंग्रेजी और राजनीति विज्ञान में परास्नातक हैं। वह नौकरी भी कर सकती थीं, लेकिन पति की इस हालात को देखते हुए उन्होंने उनकी सेवा का संकल्प लिया।

जून, 2016 में उनके यहां डकैती पड़ी। लेकिन विकलांग जवान और पूरे परिवार ने डकैतों से मुकाबला लिया। बाद में उन्होंने फैजाबाद जिलाधिकारी के यहां खुद की सुरक्षा के लिए शस्त्र लाइसेंस के लिए आवेदन किया, लेकिन जिला प्रशासन की तरफ से इसकी स्वीकृति नहीं दी गई। इस बात का उन्हें बेहद गम है। रक्षा मंत्रालय की तरफ से ऐसे जवानों के लिए कोटे के तहत पेट्रोल पंप और गैस एजेंसी सहित दूसरी सुविधाएं भी उपलब्ध हैं।

जवानों के लिए 24 फीसदी का कोटा भी निर्धारित है। राकेश सिंह ने गैस एजेंसी के लिए आवेदन किया था, लेकिन लॉटरी सिस्टम के चलते गैर सैनिक वर्ग के व्यक्ति को गैस एजेंसी आवंटित कर दी गई, जबकि यह जांबाज वंचित रह गया। 2016 में सातवें वेतन की संस्तुतियां लागू कर दी गई हैं, लेकिन विकलांगता पेंशन का लाभ अभी तक जवानों को नहीं मिल रहा है।

देश के प्रति वफादार जवानों की इस व्यथा में राकेश सिंह जैसे लाखों हैं जो गुमनामी की जिंदगी बसर करने को मजबूर हैं। भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा देश है, जहां सबसे अधिक आतंकी हमले होते हैं और बेगुनाहों की जान जाती है। कश्मीर में तीन दशक से जारी आतंकवाद में 40 हजार से अधिक मौतें हुई हैं। यह घटनाएं 1990 से 2017 के बीच हुई हैं।

आरटीआई से मांगी गयी सूचना में गृहमंत्रालय की तरफ से दी गई जानकारी में कहा गया है कि 40,961 लोग आतंकी हमलों में मारे गए। जबकि 1990 से मार्च 2017 तक सुरक्षाबलों से जुड़े 13 हजार से अधिक जवान घायल हुए। इसके अलावा 5,055 जवान शहीद हुए हैं। वहीं 14 हजार नागरिक मारे गए हैं।

साल 2001 सबसे अधिक हिंसक रहा इस दौरान 3,552 मौत की घटनाएं हुई, जिसमें 996 नागरिक और 2020 आतंकी मारे गए। अब तक 22 हजार से अधिक आतंकी मारे जा चुके हैं। जबकि 536 सुरक्षाबल के जवान शहदी हुए। सबसे अधिक 1341 नागरिक 1996 में मारे गए थे।

हालांकि 2003 से इन आंकड़ों में गिरावट आ रही है। इस साल 975 आम नागरिक, 1,494 आतंकवादी जबकि 341 सुरक्षाबल के जवान शहीद हुए। 2010 से 2016 के मध्य इसमें भारी गिरावट आई है। 47 के बजाय 15 आम आदमी मारे गए।

इस दौरान अधिक जवान शहीद हुए। जवानों की संख्या 69 से बढ़कर 2016 में 82 तक पहुंच गई। अप्रैल 2017 तक 35 अतिवादी मारे गए, जबकि स्थानीय नागरिक सिर्फ पांच मारे गए और दर्जन भर जवान शहीद हुए। मार्च 2017 तक 219 जवान घायल हो चुके हैं। इस तरफ युद्ध की विभीषिका से भी खतरनाक आतंकवाद है, जिसमें हमारे जवान और आम लोग मारे जा रहे हैं।

देश की हिफाजत में शहीद होने वाले या फिर विकलांग जवानों की हमें हर हाल में फ्रिक करनी होगी। सरकार को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। राष्ट्र रक्षा के दौरान इस स्थिति में पहुंचे जवानों और उनकी सुविधाओं के साथ परिवार का खयाल रखना हमारा राष्ट्रीय और नैतिक दायित्व भी है।

अजादी की इस सालगिरह पर हमें जाबाजों के सम्मान का संकल्प लेना होगा, देश के प्रति यह सच्ची राष्ट्रभक्ति होगी। अब वक्त आ गया है जब सेना और सैनिक की समस्याओं पर घड़ियालू आंसू बहाने और दिखावटी सियासत बंद होने चाहिए। (आईएएनएस/आईपीएन)



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Excellent communication and writing skills on various topics. Presently working as Sub-editor at newstrack.com. Ability to work in team and as well as individual.

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