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माया से गठबंधन अखिलेश की विवशता या गहरी कूटनीति

राजनीति में स्थायी मित्र व स्थायी शत्रु नहीं होते। इस जुमले को सपा और बसपा ने उत्तर प्रदेश में 26 साल तक भले ही सच साबित कर रखा हो लेकिन ज्यों ही समाजवाद को नई और लंबी उम्र अखिलेश यादव के मार्फत मिली तब फिर यह जुमला अफसाने की जगह हकीकत हो गया।

Anoop Ojha
Published on: 19 March 2019 7:51 PM IST
माया से गठबंधन अखिलेश की विवशता या गहरी कूटनीति
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योगेश मिश्रा

राजनीति में स्थायी मित्र व स्थायी शत्रु नहीं होते। इस जुमले को सपा और बसपा ने उत्तर प्रदेश में 26 साल तक भले ही सच साबित कर रखा हो लेकिन ज्यों ही समाजवाद को नई और लंबी उम्र अखिलेश यादव के मार्फत मिली तब फिर यह जुमला अफसाने की जगह हकीकत हो गया। पारिवारिक विवाद से हुए नुकसान की भरपाई के लिए अखिलेश यादव ने बसपा के साथ गठबंधन की गांठ बांधी तो उनके पिता मुलायम सिंह यादव ही कह उठे कि बिना जीते सपा ने आधी सीटें गंवा दीं। हालांकि सपा-बसपा गठबंधन के लिए यह सच नहीं है क्योंकि 73 सीटों वाली अजेय भाजपा को इस गठबंधन से दिक्कत तो पेश आई ही है।

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लेकिन सवाल यह उठता है कि स्थायी मित्र या स्थाई शत्रु न होने के जुमले को सच साबित करने के लिए सारी पहल सपा प्रमुख अखिलेश यादव ही क्यों कर रहे हैं वह भी तब जबकि दांव पर सबसे अधिक बसपा का अस्तित्व है। मोदी के उभार ने सपा से अधिक बसपा को नुकसान पहुंचाया है। मायावती को बीते लोकसभा में एक भी सीट हासिल नहीं हुई थी।

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पिछले विधानसभा चुनाव में भी मायावती की अगुवाई में उनकी पार्टी ने आल टाइम लो प्रदर्शन किया। उसके 19 विधायक जीते एक ने पार्टी छोड़ दी, अब 18 हैं जबकि लोकसभा में वह शून्य पर है, सपा के पास कम से कम 48 विधायक और आठ सांसद हैं। बीते लोकसभा चुनाव में सपा को 22.20 फीसदी वोट मिले थे जबकि बसपा के हाथ 19.6 फीसदी वोट लगे। सिर्फ 2009 का ऐसा चुनाव था जब बसपा को लोकसभा में सपा से ज्यादा वोट मिले। बसपा को 27.42 और सपा को 23.26 फीसदी वोट हाथ लगे। पर 2004 और 2009 दोनो लोकसभा चुनाव में सपा बसपा से आगे रही।

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यही नहीं 2017, 2012 और 2007 के विधानसभा चुनाव में सपा और बसपा में भारी अंतर सिर्फ 2007 के नतीजों में था। मायावती 30.43 फीसदी वोट पाई थीं जबकि सपा को 25.43 फीसदी वोट हाथ लगे लेकिन इसके ठीक अगले ही चुनाव में सपा और बसपा का अंतर चार फीसदी वोटों से थोड़ा अधिक हो गया, सपा आगे रही। मायावती ने तीन बार भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई है। एक बार तो वह गुजरात में नरेंद्र मोदी का प्रचार करने भी जा चुकी हैं। उस समय भाजपा और बसपा की संयुक्त सरकार थी। अखिलेश यादव की पार्टी के जनाधार का सूत्र जो मुलायम सिंह ने तैयार किया था वह था माई यानी मुस्लिम और यादव। बसपा के भाजपा के साथ तीन पारी खेलने के बाद भी क्या मुस्लिम मतदाता गठबंधन को महत्व देगा, इस खतरे को भी अखिलेश यादव ने नजरंदाज किया?

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साझेदारी में भी अखिलेश यादव मायावती से कम सीटों पर हैं, उन्हें अपने खाते से भी एक सीट गठबंधन की गांठ दुरुस्त करने के लिए रालोद को देनी पड़ी। यही नहीं गठबंधन में बार बार अखिलेश यादव ही मायावती के यहां जाते हैं। गठबंधन के बाद एक ऐसा मौका था जब मायावती अखिलेश यादव के घर डिंपल यादव के जन्मदिन पर बधाई देने जा सकती थीं, हालांकि मायावती ने ऐसा नहीं किया, वह भी तब जबकि मायावती के जन्मदिन पर अखिलेश यादव उनके घर गए थे। अखिलेश यादव को गठबंधन में जो सीटें मिली हैं वह भी सपा के लिए मुफीद नहीं हैं। हद तो यह हुई कि कौन कौन सी सीटे सपा और बसपा की है इसका एलान भी मायावती ने किया। गठबंधन के एलान के समय अखिलेश ने कहा कि मायावती का सम्मान मेरा सम्मान है, उनका अपमान मेरा अपमान। सपा से गठबंधन का फैसला करने के लिए मै उनका आभारी हूं। समाजवादी पार्टी जिन सीटों पर दूसरे नंबर पर थीं, वह भी बसपा के खाते में चली गईं।

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राष्ट्रीय लोकदल के गठबंधन का फैसला भी मायावती की हरी झंडी के लिए अटका रहा। सूत्र बताते हैं कि अगर अखिलेश यादव की चलती तो कांग्रेस भी गठबंधन का हिस्सा होती इसके लिए बातचीत बाकायदा कई चक्रों में चली भी, लेकिन मायावती की न के आगे अखिलेश आगे बढ़ ही नहीं पाए। विधानसभा चुनाव के दौरान यूपी को साथ पसंद है के नारों के साथ एक दूसरे के करीब आए अखिलेश और राहुल गांधी लोकसभा चुनाव में दूरी बनाए हुए हैं। हद तो यह है कि कांग्रेस को लेकर मायावती जो ट्विट करती हैं, उसी ट्विट को अखिलेश यादव आगे बढ़ाने का काम करते हैं, यानी कांग्रेस से रिश्तों को डोर अखिलेश नहीं, मायावती के हाथ है। इस गठबंधन के बाद मायावती के चेहरों के सूचकांक भी बहुत तेजी से उछले। मायावती बिग ब्रदर की भूमिका में दिख रही हैं। वह भी तब जब हमेश सपा का प्रदर्शन बसपा से बेहतर रहा है।

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दो साल बाद अखिलेश को सूबे में सरकार बनाने का दावा पेश करने के लिए अपनी पार्टी को जब तैयार करना था तब वह नरेंद्र मोदी को रोकने के अभियान में जुट गए हालांकि रणनीतिक तौर पर यदि वह एक बड़ा गठबंधन बनाकर मोदी को रोकने में कामयाब होते तो उन्हें एक दूरदर्शी राजनेता माना जाता और भाजपा के खिलाफ लड़ाई में वह प्रतीक पुरुष होते लेकिन ऐसा भी नहीं दिख रहा है। माया की चालें चतुर हैं। पर अखिलेश की चालों मे विवशता नजर आती है। एक निजी चैनल को दिये लंबे इंटरव्यू में पूछे गए सवालों का जवाब देते हुए जब वह यह कहते हैं कि गठबंधन के फैसले के लिए परिस्थितियों का दबाव था मतलब सीधा था कि परिस्थितियां इतनी ज्यादा प्रतिकूल और गहरी हैं कि माया के साथ के बिना अखिलेश यादव अकेले उबर नहीं सकते हैं उनका अपनी अगुवाई वाला पहला चुनाव है।



Anoop Ojha

Anoop Ojha

Excellent communication and writing skills on various topics. Presently working as Sub-editor at newstrack.com. Ability to work in team and as well as individual.

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