जीवन पर आधारित संस्मरण: कर्ज उतर जाता है एहसान नहीं उतरता

raghvendra
Published on: 22 Dec 2017 11:05 AM GMT
जीवन पर आधारित संस्मरण: कर्ज उतर जाता है एहसान नहीं उतरता
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राही मासूम रजा

‘‘यहां (बंबई में) कई दोस्त मिले जिनके साथ अच्छी-बुरी गुजरी। कृष्ण चंदर, भारती, कमलेश्वर, जो शुरू ही में ये न मिल गए होते तो बंबई में मेरा रहना असंभव हो जाता। शुरू में मेरे पास कोई काम नहीं था और बंबई में मैं अजनबी था। उन दिनों इन दोस्तों ने बड़ी मदद की। इन्होंने मुझे जिंदा रखने के लिए चंदा देकर मेरी तौहीन नहीं की। इन्होंने मुझे उलटे-सीधे काम दिए और उस काम की मजदूरी दी। पर इसका मतलब यह नहीं कि मैं इन लोगों के एहसान से कभी बरी हो सकता हूँ।

मुझे वह दिन आज भी अच्छी तरह याद है जब नैयर होली फैमिली अस्पताल में थीं। चार दिन के बाद अस्पताल का बिल अदा करके मुझे नैयर और मरियम को वहाँ से लाना था। सात-साढ़े सात सौ का बिल था और मेरे पास सौ-सवा सौ रुपए थे। तब कमलेश्वर ने ‘सारिका’ से, भारती ने ‘धर्मयुग’ से मुझे पैसे एडवांस दिलवाए और कृष्ण जी ने अपनी एक फिल्म के कुछ संवाद लिखवा के पैसे दिये और मरियम घर आ गईं। आज सोचता हूँ कि जो यह तीनों न रहे होते तो मैंने क्या किया होता? क्या मरियम को अस्पताल में छोड़ देता? वह बहुत बुरे दिन थे। कुछ दोस्तों से उधार भी लिया। कलकत्ते से ओ.पी. टाँटिया और राजस्थान से मेरी एक मुँहबोली बहन लनिला और अलीगढ़ से मेरे भाई मेहँदी रजा और दोस्त कुँवरपाल भसह ने मदद की। कर्ज उतर जाता है एहसान नहीं उतरता। और कुछ बातें ऐसी हैं जो एहसान में नहीं आतीं पर उन्हें याद करो तो आँखें नम हो जाती हैं।

जब मैं अलीगढ़ से बंबई आया तो अपने छोटे भाई अहमद रजा के साथ ठहरा। छोटे भाई तो बहुतों के होते हैं, पर अहमद रजा यानी हद्दन जैसा छोटा भाई मुश्किल से होगा किसी की तकदीर में। उसने मेरा स्वागत यूँ किया कि मैं यह भूल गया कि फिलहाल मैं बेरोजगार हूँ। हम हद्दन के साथ ठहरे हुए थे, पर लगता था कि वह अपने परिवार के साथ हमारे साथ ठहरे हुए हैं। घर में होता वह था जो मैं चाहता था या मेरी पत्नी नैयर चाहती थी। वह घर बहुत सस्ता था। जिस फ्लैट में अब हूँ उससे बड़ा था। इसका किराया 600 दे रहा हूँ। उसका किराया केवल 150 रुपए माहवार था। तो हद्दन ने सोचा कि वह घर उन्हें मेरे लिए खाली कर देना चाहिए। रिजर्व बैंक से उन्हें फ्लैट मिल सकता था, मिल गया। जब वह जाने लगे तो उन्होंने अपनी पत्नी के साथ साजिश की कि घर का सारा सामान मेरे लिए छोड़ जाएँ क्योंकि मेरे पास तो कुछ था नहीं। जाहिर है कि मैं इस पर राजी नहीं हुआ। उन दोनों को बड़ी जबरदस्त डाँट पिलाई मैंने।

चुनांचे वह घर का सारा सामान लेकर चले गए और घर नंगा रह गया। मेरे पास दो कुॢसयाँ भी नहीं थीं। हम ने कमरे में दो गद्दे डाल दिए और वही दो गद्दोंवाला वीरान कमरा बंबई में हमारा पहला ड्राइंग रूम बना... उन दिनों मैं नैयर से शर्माने लगा था। मैं सोचता कि यह क्या मुहब्बत हुई, कैसी जिंदगी से निकाल कर कैसी जिंदगी में ले आया मैं उस औरत को जिसे मैंने अपना प्यार दे रक्खा है... अपना तमाम प्यार। मगर नैयर ने मुझे यह कभी महसूस नहीं होने दिया कि वह निम्नमध्यवर्गीय ङ्क्षजदगी को झेल नहीं पा रही है। हम दोनों उस उजाड़ घर में बहुत खुश थे। उन दिनों कृष्ण चंदर, सलमा आपा, भारती और कमलेश्वर के सिवा कोई लेखक हमसे जी खोल के मिलता नहीं था। हम मजरूह साहब के घर उन से मिलने जाते तो वह अपने बेडरूम में बैठे शतरंज खेलते रहते और हम लोगों से मिलने के लिए बाहर न निकलते। फिरदौस भाभी बेचारी लीपापोती करती रहतीं... कई और लेखक इस डर से कतरा जाते थे कि मैं कहीं मदद न माँग बैठूँ।...

आप खुद सोच सकते हैं कि हमारे चारों ओर कैसा बेदर्द और बेमुरव्वत अँधेरा रहा होगा उन दिनों। नैयर लोगों से मिलते भी घबराती थीं, इसलिए मिलना-जुलना भी कम लोगों से था और बहुत कम था... कि एक दिन सलमा आपा आ गईं। इन्हें आप सलमा सिद्दीकी के नाम से जानते हैं। उस वक्त हम दोनों उन्हीं गद्दों पर बैठे रमी खेल रहे थे। सलमा आपा बैठीं। इधर-उधर की बातें होती रहीं। फिर वह चली गईं और थोड़ी देर के बाद उनका एक नौकर एक ठेले पर एक सोफा लदवाए हुए आया। हमने उस तोह$फे को स्वीकार कर लिया, कि जो न करते तो सलमा आपा और कृष्ण जी को तकलीफ होती और हम उन्हें तकलीफ देना नहीं चाहते थे।’

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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