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राष्ट्रीय एकता की संवाहिका हिन्दी

raghvendra
Published on: 14 Sept 2018 4:28 PM IST
राष्ट्रीय एकता की संवाहिका हिन्दी
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पूनम नेगी

भारतीय एकता अथवा राष्ट्रीय एकात्मकता की दिशा में हिन्दी गुजरे एक हजार सालों से महत्वपूर्ण, सक्रिय तथा अग्रणी भूमिका का निर्वाह कर रही है। सर्वप्रथम तो यह देववाणी संस्कृत की उत्तराधिकारिणी है जो अधिकांश आधुनिक भाषाओं की जननी है, दूसरी अहम बात कि चीनी भाषा मंडारिन के समकक्ष पहुंचकर हिन्दीआज विश्व की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली जनभाषा बन चुकी है। विश्व आर्थिक मंच की गणना के अनुसार हिन्दीआज विश्व की दस शक्तिशाली भाषाओं में शुमार है। हिन्दीऔर इसकी बोलियां उत्तर एवं मध्य भारत के विविध राज्यों के साथ ही फिजी, मॉरिशस, गयाना, सूरीनाम और नेपाल में भी बोली जाती है। जिस हिन्दीभाषा को कुछ समय पहले तक तकनीक और रोजगार की भाषा मानने में हिचक हो रही थी, वह रास्ते की तमाम बाधाओं को पार कर इस क्षेत्र में भी कदम बढ़ाती जा रही है। जिस तरह आज तमाम मल्टीनेशनल कंपनियां अपना व्यापार बढ़ाने के लिए हिन्दीको अपनाती जा रही हैं, उससे अंग्रेजियत का हव्वा भी कम होता जा रहा है।

हिन्दी को सशक्त भाषा के रूप में अंतरराष्ट्रीय मंच पर स्थापित करने के लिए भारत सरकार की पहल पर बीते माह 18 से 20 अगस्त तक आयोजित ग्यारहवें विश्व हिन्दी सम्मेलन का केन्द्रीय विषय हिन्दी विश्व और भारतीय संस्कृति रखा गया था। मॉरीशस की राजधानी पोर्ट लुई में आयोजित 11वें विश्व हिन्दी सम्मेलन को कई कारणों से याद किया जाएगा। संस्कृति के बिना भाषा के कोई मायने नहीं होते। इस मूल बिंदु पर केन्द्रित सम्मेलन के विभिन्न सत्रों में भाषा को परंपरा और भूगोल के आइने से देखा गया। भाषा के दायरे की परिभाषा के अतिरिक्त उसकी धुरी को पहचानने-बताने के प्रयास हुए। खास बात यह है कि मॉरीशस ने 1976 में दूसरे विश्व हिन्दी सम्मेलन का भी आयोजन किया था। मॉरीशस के अप्रवासी घाट की वे सीढिय़ां आज यूनेस्को द्वारा घोषित विश्व धरोहर हैं जिन पर चलकर करीब पांच लाख भारतीय मजदूर गन्ने की खेती के लिए ब्रिटिश राज में इस निर्जन द्वीप पर लाए गए थे। ये भोले-अनपढ़ मजदूर परमिट, एग्रीमेंट जैसे कठिन अंग्रेजी शब्दों का उच्चारण नहीं कर पाते थे। इस कारण इनके लिए गिरमिटिया शब्द प्रयुक्त हुआ। भले ही उनकी स्वाभाविक अभिव्यक्ति साहित्यिक भाषा की जगह हिन्दी की बोलियों में हुई जो भिन्न-भिन्न स्थानों पर अपने परिवेश की पराई भाषाओं के प्रभाव में ढलती गयी मगर इससे भाषा का नया संसार विकसित हुआ।

फिजी में फिजी हिन्दी, सूरीनाम में सरनामी हिंदी, दक्षिण अफ्रीका में नेताली और मॉरीशस में भोजपुरी और फ्रांसीसी भाषा के संसर्ग से एक नई किस्म की हिन्दीविकसित हो गयी। जीवन संघर्ष में धर्म, भाषा और संस्कृति की नई चेतना का भी विकास हुआ। वर्ष 1913 में मॉरीशस से हिन्दुस्तानी अखबार शुरू हुआ और कुछ साहित्यिक-सांस्कृतिक पत्रिकाएं भी। उल्लेखनीय है कि प्रवासी भारतीय भाषा, धर्म, खान-पान और रीति-रिवाज आदि कई दृष्टियों से भिन्न हैं, परंतु हिन्दीउन सबको करीब लाती है। इन अप्रवासी भारतीयों ने श्रम की पराकाष्ठा का अप्रतिम उदाहरण विश्व समाज के सामने रखा। निर्जन टापू पर आंसू बहाने की बजाय इन भारतीयों ने जमकर पसीना बहाकर विकास की एक नयी इबारत लिखी पर साथ ही रामायण व महाभारत के माध्यम से भारतीय संस्कृति के सनातन जीवन मूल्यों को भी अपने जीवन में संजोये रखा।

यही वजह है कि आज मॉरीशस की गिनती अफ्रीकी महाद्वीप में सबसे ऊंची-अच्छी आय दर और मानवाधिकारों का पालन करने वाले उच्च पैमाने पर होती है। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को श्रद्धांजलि के साथ भारतीय संस्कृति का केंद्रीय भाव वसुधैव कुटुंबकम् इस हिन्दी सम्मेलन के माध्यम से एक बार फिर रेखांकित हुआ। हिन्दीके उत्थान से मॉरीशस वासी स्वयं को भारतीय संस्कृति और परंपरा से जुडऩे का अनुभव पाते हैं। भारत उनकी स्मृति में है और वह स्मृति लंबी भौगोलिक दूरी को पाटती है। तभी तो मॉरीशस के भूतपूर्व राष्ट्रपति अनिरुद्ध जगन्नाथ भारत को मां और मारीशस को पुत्र मानते हैं।

जीवंत संवाद की भाषा

अब यदि अपने देश में हिन्दीकी व्यापकता की बात करें तो समूचे भारत के एक व्यापक क्षेत्र के लोगों की सामाजिक-सांस्कृतिक भागीदारी और जीवन शैली को गति देकर हिन्दीआज जीवंत संवाद की भाषा बनती जा रही है। व्यापार, बाजार और मनोरंजन की दुनिया में हिन्दीके बिना आज कोई गति नहीं है। हिन्दी ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में भी पांव जमा रही है। माइक्रोसॉफ्ट के संस्थापक बिल गेट्स ने बीते दिनों अपने एक बयान में कहा था कि जब बोलकर लिखने की तकनीक उन्नत हो जाएगी, हिन्दी अपनी लिपि की श्रेष्ठता के कारण सर्वाधिक सफल होगी। यह बात आज हम चरितार्थ होते देख रहे हैं। वैसे तो हमारे यहा तकरीबन 1600 से अधिक बोलियां और भाषाएं हैं, किन्तु यह समझना आवश्यक है कि इन सबके बावजूद हिन्दीही भारतवासियों के बीच भाषासेतु के रूप में कार्य करती है। अवधी, ब्रज, कुमायूंनी, गढ़वाली, भोजपुरी, अंगिका, बजिका, मैथिली, बुंदेलखंडी, मालवी, राजस्थानी, हरियाणवी, कौरवी जैसी बोलियां खड़ी बोली के रूप में हिन्दीकहलाती हैं। अत: इन बोलियों के प्रभाव क्षेत्र में हिन्दीकोई बाहरी अथवा अजनबी भाषा नहीं है। यही नहीं, दक्षिण भारत के द्रविड़ परिवार की चार भाषाओं में भी हिन्दीका प्रभाव परिलक्षित होता है। हालांकि उनमें तत्सम अर्थात संस्कृत शब्दों का बाहुल्य मिलता है।

मीडिया की भूमिका सर्वोपरि

हिन्दीको देश की एकता की कड़ी बनाने में मीडिया की सर्वोपरि भूमिका है। उसने उसे राजभाषा ही नहीं अपितु विश्वभाषा बना दिया है। टेलीविजन, चित्रपट, संगीत तथा धारावाहिकों ने हिंदी को देश की प्रत्येक झोपड़ी में पहुंचा दिया है। हिन्दीने जितनी प्रगति तथा समृद्धि बीते 50 सालों में की है, उतनी संसार की किसी भाषा ने नहीं की। हिन्दीमें विज्ञान, आयुर्विज्ञान, अभियांत्रिकी आदि विषयों तथा शब्दकोशों एवं ज्ञानकोशों की बड़ी निधि तैयार हो चुकी है। वह सबसे बड़े बाजार का आधार बन चुकी है। आज हिंदी को कामकाजी बनाकर, उसे रोटी-रोजी तथा व्यवसायोन्मुख करने की आवश्यकता है और इस कार्य में विश्वविद्यालय सार्थक भूमिका निभा सकते हैं। अंग्रेजी का बढ़ता वर्चस्व सिर्फ उसके रोजगारोन्मुख होने के कारण है। आज हिन्दीदुनिया की सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है। वह भारत की लोकभाषा तथा जनभाषा है। उसका अभिषेक लोकतंत्र का वास्तविक राजतिलक है। हिन्दी सिर्फ एकता की ही कड़ी नहीं बल्कि वह हमारे स्वाभिमान, राष्ट्रीय गरिमा तथा राष्ट्रोत्कर्ष की परिचायिका है। इसे राष्ट्रभाषा का दर्जा मिलना ही चाहिए।

देश को जोडऩे की भावना सर्वोपरि

दरअसल हिन्दीपद की नहीं अपितु पादुका के पूजन की भाषा रही है। उसने सत्ता, शासन, साम्राज्य की पूजा न करके, संतों, महात्माओं तथा भक्तों को अपना इष्टदेव बनाया जिनमें देश को जोडऩे की सर्वोपरि भावना रही है। हिन्दीदेश की एकता का मंत्र है और तमाम महापुरुषों ने इसे बार-बार कहा है। भारतीय संविधान सभा ने 14 सितंबर 1949 को सर्वसम्मति से हिंदी को राजभाषा की जो प्रतिष्ठा प्रदान की थी, उसमें भी अहिन्दीभाषाभाषियों की ही प्रभावी भूमिका रही। आज समूचे भारत में हिन्दीबोलने-समझने वाले लोग सत्तर करोड़ से अधिक हैं। अनुवाद ने हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के मध्य सांस्कृतिक आदान-प्रदान, सौमनस्य तथा प्रेम का भाव विकसित किया है। सारी भाषाएं एक-दूसरे के निकट आ गई हैं।



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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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