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करें शक्ति संचय की साधना, दुष्प्रवृतियों पर अंकुश के लिए सबसे जरूरी

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Published on: 21 Sep 2017 8:51 AM GMT
करें शक्ति संचय की साधना, दुष्प्रवृतियों पर अंकुश के लिए सबसे जरूरी
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पूनम नेगी

लखनऊ: आज के समय की सभी समस्याओं के दो मूल कारण हैं- पहला बाहरी दुनिया में फैली विषाक्तता और हमारे भीतर की दुनिया में पसरती असुरता। समूचा मानव समाज इसी कारण अशक्त व रोगी बना हुआ है। वातावरण के साथ मानव का चिंतन, चरित्र और व्यवहार भी बुरी तरह प्रदूषित हो रहा है। विचारों में, भावनाओं में अंधियारा तेजी से बढ़ा है। बड़ों को जानें दें, बच्चे भी घृणित कार्य करने लगे हैं। इन दुष्प्रवृतियों पर अंकुश के लिए सबसे जरूरी है लोकमानस का परिष्कार और यह परिष्कार सिर्फ साधना से ही हो सकता है।

साधना इन्द्रिय संयम की, क्रोध पर नियंत्रण की और चित्त की एकाग्रता की। इन्हें साधना (काबू में करना) सीख गए तो जीवन की सभी समस्याओं का हल हम खुद ही निकाल लेंगे। हालांकि यह कहने में जितना सहज है, करने में उतना ही कठिन; चित्त के जड़ीले संस्कार और लोभ-मोह के घागे हमारी आत्मिक प्रगति की राह की सबसे बड़ी बाधा होते हैं। इन पर विजय साधना के नियमित और निरन्तर अभ्यास से ही पायी जा सकती है। मगर यह भी सच है कि निरंतरता व नियमितता के साथ आन्तरिक दृढ़ता से किये गये अभ्यास से न केवल भावनात्मक असंतुलन का निदान होता है वरन मन की आन्तरिक शक्ति भी मजबूत होती है।

हमारे ऋषि-मनीषी इस मनोवैज्ञानिक तथ्य से भलीभांति विज्ञ थे कि मानव समाज को स्वस्थ रखने के लिए उनके अंत:करण में धर्म के मूल तत्वों और सुसंस्कारिता का बीजारोपण जरूरी है, इसीलिए उन्होंने नवरात्र काल में शक्ति की साधना विधान बनाया। साधकों व मनीषियों का कहना है कि विभिन्न शुभ संदर्भों से जुड़ा शारदीय नवरात्रि का दिव्य साधना काल शक्ति अर्जन का अत्यंत फलदायी सुअवसर प्रदान करता है। दूसरे शब्दों में कहें तो ऋतु परिवर्तन की यह संधि बेला वस्तुत: साधना के द्वारा शक्ति संचय की है। नौ दिवसीय इस विशिष्ट अवधि में यदि छोटी सी संकल्पित साधना की जा सके तो चमत्कारी परिणाम अर्जित किए जा सकते हैं; कारण कि इस अवधि में वातावरण में परोक्ष रूप से देवी शक्तियों के अप्रत्याशित अनुदान बरसते रहते हैं। यदि इस सुअवसर का लाभ उठाया जा सके तो यह साधनाकाल

साधक के आध्यात्मिक विकास में तो सहायक होता ही है; उसके वाह्य व्यक्तित्व को भी निखारता है।

परम सत्ता को मातृशक्ति के रूप में पूजने की परम्परा भारतीय संस्कृति की ऐसी मौलिक विशेषता है, जिसकी मिसाल विश्व के अन्य धर्मों में खोज पाना दुर्लभ है। वहां ईश्वर को पिता या जगत स्वामी के रूप में पूजा जाता है, माँ के रूप में नहीं। नवरात्र की महत्ता इसीलिए सर्वोपरि है क्योंकि हमारी देवभूमि में आदिकाल से चला आ रहा माँ शक्ति की आराधना का यह पर्व आज भी पूरी आस्था के मनाया जाता है। भारतीय संस्कृति के आदि ग्रंथ ऋग्वेद के दशम मंडल में एक पूरा सूक्त ही शक्ति उपासना पर आधारित है। ऋग्वेद के देवी सूक्त के अतिरिक्त ऊषा सूक्त और सामवेद के रात्रि सूक्त भी मां शक्ति साधना की महिमा का बखान करते हैं।

शास्त्रीय उल्लेख साक्षी हैं कि कुरूस्र्क्षेत्र में महाभारत का युद्ध आरंभ होने से पूर्व भगवान श्रीकृष्ण ने मां आदि शक्ति की आराधना की थी। इससे पूर्व त्रेता युग में भगवान राम ने भी रावण से युद्ध के पूर्व शक्तिपूजा कर विजयश्री का आर्शीवाद प्राप्त किया था। बौद्ध धर्म में भी मातृ शक्ति की पूजा विविध रूप में प्रचलित रही है। बौद्ध तंत्रों में तो शक्ति को शीर्ष स्थान प्राप्त रहा है। शाक्त व पुराण ग्रन्थों में देवी के स्वरूप, महिमा एवं उपासना विधि का विस्तार से वर्णन किया गया है। शिवपुराण की रुद्र संहिता में दुर्गा की उत्पत्ति का सुंदर आख्यान मिलता है। वस्तुतः पौराणिक युग को शक्ति उपासना का यौवन काल कह सकते हैं। पुराणों के व्यापक प्रचार से शक्ति की उपासना को इतना बल मिला था कि वह घर-घर में पूजी जाने लगीं।

मार्कण्डेय प्रणीत श्रीमद् देवी भागवत में शक्ति के लिए अनन्य शक्ति भाव प्रदर्शित किया गया है। इस कृति में शक्ति की व्यापकता का उल्लेख तीन रूपों में किया गया है-महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती। महाकाली आसुरी शक्तियों का संहारक है, अहंकार का नाश करती हैं और ज्ञान की खड्ग से अज्ञान को नष्ट करती हैं। महासरस्वती विवेक की देवी है। विद्या, साहित्य, संगीत, विवेक और ज्ञान की अधिष्ठात्री है। महालक्ष्मी ऐश्वर्य की देवी है। मार्कण्डेय पुराण में दैवी माहात्म्य की विशद् विवेचना को ही "दुर्गा सप्तशती" नाम दिया गया है।

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ब्रह्मपुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण व स्कन्द पुराण में देवी के आविर्भाव के रोचक वृतांत सविस्तार वर्णित हैं। मार्कण्डेय पुराण में ब्रह्माजी मार्कण्डेय ऋषि से देवी के नौ स्वरूपों (शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघण्टा, कूष्माण्डा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री) की महिमा बताते हैं। वे कहते हैं कि यह अनन्त विश्व ब्रह्मांड वस्तुतः माँ शक्ति की लीला का ही विस्तार है जो विविध अवसरों पर, विविध प्रयोजनों के लिए अलग-अलग नाम, रूप एवं शक्ति धारण करके प्रकट होती हैं। प्रकृति की जितनी भी शक्तियां हैं, वे सब इन्हीं मातृशक्ति की ही अभिव्यक्ति हैं। शक्ति से विहीन होकर "शिव" शव के समान हो जाते हैं, उन्हीं के सानिध्य से शिव का शिवत्व जाग्रत होता है। अर्थात महाकाल की संजीवनी महाकाली ही हैं।

शास्त्र कहता है कि संसार के समस्त प्राणियों में यही आदि शक्ति चेतना, बुद्धि, स्मृति, धृति, शक्ति, श्रद्धा, कांति, तुष्टि, दया और लक्ष्मी आदि रूपों में स्थित रहती हैं। वे ही प्रत्येक प्राणी के भीतर मातृ शक्ति एवं मातृ प्रवृत्ति के रूप में प्रकाशित हैं। सत, रज एवं तम गुणों के आधार पर यह क्रमशः महा सरस्वती, महालक्ष्मी एवं महाकाली के रूप में अभिव्यक्त होती हैं। विविध नाम रूपों में जानी जाने वाली देवी जब एक ब्राह्मी शक्ति में सिमट जाती हैं तो सद्ज्ञान की अधिष्ठात्री मां गायत्री कहलाती हैं। "गय" कहते हैं प्राण को और त्राण यानी मुक्ति प्रदान करने वाली। यानी जो सांसारिक माया से प्राणतत्व को मुक्त करे, वह है गायत्री। इसीलिए भारतीय दर्शन में वेदों को ज्ञान का आगार कहा जाता है और गायत्री को वेदमाता।

यूं तो करुणामयी मां का आर्शीवाद अपने भक्तों पर सदैव ही बरसता रहता है पर आद्यशक्ति की स्नेहाभिव्यक्ति की नवरात्र बेला में उनका यह प्रेम छलक पड़ता है। इसीलिए आध्यात्मिक साधनाओं के लिए नवरात्र काल से बढ़कर और कोई अन्य सुअवसर दूसरा नहीं माना गया है। यह ऋतु पर्व इसलिए भी विशेष है क्योंकि नवरात्र के संधिकाल (ग्रीष्म व शीत के मिलन) की अवधि प्राकृतिक रूप से भी अनेक विशिष्टताएं लिए होती है। इसी समय नयी फसल पकती है। समूची प्रकृति अपने चरम उत्कर्ष पर होती है। परिवर्तन के इन दिनों हमारा कायतंत्र भीतर इकट्ठे विजातीय तत्वों को बाहर फेंकने के लिए जोर मारता है। इसी कारण हमारे आयुर्वेद मनीषियों ने की शरीर शोधन की कल्प चिकित्सा इन्हीं दिनों संपन्न करने की व्यवस्था बनायी थी।

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वैदिक काल में ज्ञान और विज्ञान इस कारण उत्कृष्ट कोटि का था क्योंकि उसका मूल आधार वेद और उपासना का समूचा विधि-विधान गायत्री की धुरी पर केन्द्रित था। सर्वसाधारण भी अपनी दैनिक संध्या वंदन में भी गायत्री मंत्र ही उपासना करता था। योगी, तपस्वी इसी के सहारे अपना महालक्ष्य प्राप्त करते थे। देवताओं और अवतारों के लिए भी शक्ति का स्रोत यही महाशक्ति थी। नवरात्र काल में विशिष्ट साधना अनुष्ठान संपन्न किए जाते थे। वैदिक ऋषियों की मान्यता थी कि उस परम शक्ति की आशा एवं अपेक्षा के अनुरूप स्वयं को गढ़े बिना मनुष्य की मुक्ति संभव नहीं है।

हम भारतवासियों को यदि अपने राष्ट्र की खोई गौरव गरिमा पुन: लौटानी है। देश की सशक्त व जीवंत बनाना है तो इस दिव्य साधना अवधि का लाभ उठना ही चाहिए। प्रयास हो कि हमारी साधना वाह्य कर्मकांड तक ही सीमित न रह जाए अपितु हम अपनी आंतरिक जड़ता को मिटाने का प्रयास करें, साधना के द्वारा ईर्ष्या, द्वेष, प्रपंच में निमग्न मानसिक वृतियों को ऊर्ध्वमुखी बनाएं करें। कारण कि जो व्यक्ति जड़ पदार्थों से जितना अधिक प्रेम करेगा, उसमें संग्रह व लोभ की वृत्ति उतनी ही सघन होगी, मोह और अहंकार के पाश उतने ही सघन होंगे। परन्तु, यदि वह साधना के द्वारा इन दोष-दुगुर्णों से का प्रयास सच्चे से करेगा तो मां की अनुकंपा उस पर होकर ही रहेगी। साधना से सिद्धि का परिणाम अकाट्य है। यह सिद्धियां भौतिक प्रतिभा और आत्मिक दिव्यता के रूप में जिन साधना आधारों के सहारे विकसित होती है, उनमें गायत्री महामंत्र को प्रथम स्थान हमारे मनीषियों ने दिया है।

नवरात्रि पावन पर्व पर; जब मां जगत जननी का अनुदान-वरदान देने के लिए देवता भी लालायित रहते हैं; हमें चाहिए कि ऐसे दुर्लभ समय को हम जड़ता में अनुरक्त होकर न बिताएं वरन अपनी आत्मचेतना को विकसित करने का प्रयास करें। ऋषि मनीषा कहती है कि यदि जिज्ञासा सच्ची हो तो इस ईश्वरीय अनुदानों को अनुभव भी किया जा सकता है। जो आत्मबल सम्पन्न साधक दैवीय अनुशासन के अनुरूप अपना जीवनचर्या का निर्धारण करने में सक्षम होते हैं, वे वही इस सत्य का साक्षात्कार कर पाते हैं।

वर्तमान समय में घटित होने वाले अकल्पनीय घटनाक्रम इस बात का स्पष्ट संकेत कर रहे हैं कि हम चाहें या न चाहें युग परिवर्तन तो होकर ही रहना है। सृष्टि की संचालिनी शक्ति इस विश्व-वसुन्धरा के कल्याण को पूर्णत: कटिबद्ध है। समय का तकाजा है कि आत्मसुधार कर हम सब भी प्रकृति माता के सहयोगी बनें; यही इस नवरात्र पर्व का पावन संदेश है।

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