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कविता: अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं, यूँ ही कभी लब खोले हैं

raghvendra
Published on: 9 Feb 2018 11:16 AM
कविता: अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं, यूँ ही कभी लब खोले हैं
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फिराक गोरखपुरी

अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं यूँ ही कभी लब खोले हैं

पहले ‘फिराक’ को देखा होता अब तो बहुत कम बोले हैं

दिन में हम को देखने वालो अपने-अपने हैं औकात

जाओ न तुम इन खुश्क आँखों पर हम रातों को रो ले हैं

फितरत मेरी इश्क-ओ-मोहब्बत किस्मत मेरी तन्हाई

कहने की नौबत ही न आई हम भी किसू के हो ले हैं

बाग में वो ख़्वाब-आवर आलम मौज-ए-सबा के इशारों पर

डाली डाली नौरस पत्ते सहस सहज जब डोले हैं

उफ वो लबों पर मौज-ए-तबस्सुम जैसे करवटें लें कौंदें

हाय वो आलमे जुम्बिश-ए-मिजगाँ जब फि़त्ने पर तोले हैं

उन रातों को हरीम-ए-नाज का इक आलम होये है नदीम

खल्वत में वो नर्म उँगलियाँ बंद-ए-कबा जब खोले हैं

गम का फसाना सुनने वालो आखरी -ए-शब आराम करो

कल ये कहानी फिर छेड़ेंगे हम भी जऱा अब सो ले हैं

हम लोग अब तो अजनबी से हैं कुछ तो बताओ हाल-ए-‘फिरका’

अब तो तुम्हीं को प्यार करे हैं अब तो तुम्हीं से बोले हैं

raghvendra

raghvendra

राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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