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जातीय गणित पर विपक्ष की निगाहें, मुसलमानों का बदलता मिजाज

raghvendra
Published on: 19 April 2019 7:19 AM GMT
जातीय गणित पर विपक्ष की निगाहें, मुसलमानों का बदलता मिजाज
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प्रतीकात्मक तस्वीर

मनीष श्रीवास्तव

लखनऊ: लोकसभा चुनाव में तमाम क्षेत्रीय व जातीय गणित के साथ पूरे देश में विपक्ष की निगाहें मुस्लिम वोट बैंक पर टिकी हुई हैं। विपक्षी दलों का मानना है कि पूरे देश में मुस्लिम वोट बैंक ही एक ऐसा बड़ा वोट बैंक है जो पूरी तरह से भाजपा के खिलाफ है और इसे अपने पक्ष में करके भाजपा को मात दी जा सकती है। दरअसल, देश की आजादी के बाद से वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव तक देश में हुए सभी चुनावों में विपक्षी दलों ने मुस्लिम वोट बैंक को भाजपा और उसके पैतृक संगठन आरएसएस का हौव्वा दिखा कर अपने पक्ष में रखा।

अब लोकसभा चुनाव-2019 में देखना यह है कि अब भी यह अस्त्र उतना ही धारदार रहा है या नरेंद्र मोदी के पांच साल के शासन ने इसकी धार को कुछ हद तक कुंद करने में कामयाबी पाई है। हालांकि यह आगामी 23 मई को नतीजे आने के बाद पता चलेगा, लेकिन धार्मिक ध्रुवीकरण से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले उत्तर प्रदेश में मुस्लिमों ने जिस तरह से भाजपा के साथ खुलकर आना शुरू किया है उससे तो ऐसा लगता है कि विपक्ष के इस सबसे अचूक हथियार की धार अब भोथरी तो हो ही चली है। हाल ही में गांधी परिवार के गढ़ अमेठी की तिलोई विधानसभा सीट से दो बार के कांग्रेसी विधायक डा.मुस्लिम भाजपा में शामिल हो गए। भाजपा में शामिल होते समय डा.मुस्लिम ने कहा कि हमारी कौम और जात में भाजपा का हौव्वा पैदा किया गया।

संघ का मुस्लिम राष्ट्रीय मंच पाट रहा दूरी

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा, दोनों ही जानते हैं कि एक ऐसा वर्ग जिसकी देश में करीब 20 फीसदी आबादी रहती हो, उसे लम्बे समय तक नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। इसकी शुरुआत राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने काफी पहले से करनी शुरू कर दी थी। वर्ष 2002 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री बनने के बाद तत्कालीन सरसंघचालक केसी सुदर्शन के कार्यकाल में मुस्लिम राष्ट्रीय मंच नाम के एक संगठन का गठन किया गया। मंच में संघ के नेता इंदे्रश कुमार को संरक्षक और मार्गदर्शक बनाया गया। इस मंच का उद्देश्य संघ और मुसलमानों के बीच की दूरी पाटने का है। मंच ऐसे मुस्लिम चेहरों का महिमामंडन करता है, जो राष्ट्रवादी माने जाते है।

मंच की कोशिश है कि यह राष्ट्रवादी चेहरे ही मुस्लिमों के लिए प्रेरणा बनें, जिससे मुस्लिमों को भाजपा के पक्ष में लाया जा सके। तीन तलाक पर संघ के हस्ताक्षर अभियान को बहुत सारे मुसलमानों का समर्थन मिला है। संघ का दावा है कि मोदी सरकार के आने के बाद संघ के स्कूलों में मुस्लिम छात्रों की संख्या में 30 फीसदी का इजाफा हुआ है।

भागवत भी कर चुके हैं मुस्लिमों को स्वीकार करने की बात

जैसे-जैसे मुस्लिम समुदाय के लोग भाजपा से जुड़ते गए, विपक्षियों ने उनके बारे में यह कहना शुरू कर दिया कि ये लोग निजी स्वार्थ के लिए ऐसा कर रहे हैं। दरअसल, यह एकतरफा लगाव की बात नहीं हैं। भाजपा और उसके पैतृक संगठन आरएसएस ने भी मुसलमानों की ओर अपने कदम बढ़ाए हैं। दिल्ली में आरएसएस के सम्मेलन में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि हिंदुत्व का अर्थ है सबका साथ और इसमें मुसलमान भी शामिल हैं। हिंदू राष्ट्र का मतलब यह नहीं है कि मुस्लिमों के लिए कोई जगह नहीं है। अगर हम मुसलमानों को स्वीकार नहीं करते हैं, तो यह हिंदुत्व नहीं है। मोहन भागवत के अलावा मुसलमानों में सबसे ज्यादा आलोचना के पात्र बनने वाले नरेंद्र मोदी ने भी मुसलमानों की ओर अपने कदम बढ़ाए हैं। इंदौर की सैफी मस्जिद में बतौर प्रधानमंत्री उनका दौरा और संबोधन मुस्लिमों के बीच चर्चा का विषय बना।

कई मुस्लिम नेता थाम चुके हैं भाजपा का दामन

मुस्लिम समुदाय के कई लोग मंदिर निर्माण के लिए आगे आ रहे हैं। सपा से एमएलसी रहे बुक्कल नवाब पहले ही भाजपा का दामन थाम चुके हैं। वह हिन्दू धार्मिक अनुष्ठान कर रहे हैं, मंदिर जाते हैं, श्लोक पढ़ते हैं और गो-दान भी करते हैं। अपने को राष्ट्रवादी मुस्लिम कहते हैं। इतना ही नहीं, प्रदेश में योगी सरकार बनने के बाद मोहसिन रजा को मंत्रिमंडल में जगह देने के लिए उन्हें विधान परिषद भी भेजा गया। इसी तरह भाजपा समर्थक मुसलमानों में उत्तर प्रदेश के शिया सेंट्रल वक्फ बोर्ड के चेयरमैन सय्यद वसीम रिजवी का भी नाम आता है। रिजवी ने मुसलमानों से नौ मस्जिदों को हिन्दुओं को सौंपने को कहा है। वह अयोध्या में राम मंदिर के पक्ष में हैं और बाबर का नाम हटाने के लिए कह चुके हैं। वसीम आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड पर प्रतिबंध लगाने की बात करते हैं। उन्होंने ‘रामजन्मभूमि’ नाम से एक फीचर फिल्म का भी निर्माण किया है।

भाजपा को शियाओं का समर्थन

यूपी के 2017 विधानसभा चुनाव के नतीजों को देखें तो मुस्लिमों में शिया बिरादरी ने भाजपा को मतदान किया। प्रदेश के सीएंडडीएस विभाग से रिटायर एक शिया अधिकारी का कहना कि लखनऊ में तो शिया लंबे समय से भाजपा के पक्ष में वोट करते आ रहे हैं। बुक्कल नवाब और वसीम रिजवी भी शिया मुसलमान हैं। इसके अलावा मुसलमानों में शिक्षित युवा को भी भाजपा से कोई दुराव नहीं हैं।

बढ़ी है भाजपा की स्वीकार्यता

श्लोकनीति एबीपी मूड आफ नेशन सर्वे 2017 की रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2014 के बाद से मुसलमानों में भाजपा की स्वीकार्यता में सात प्रतिशत का इजाफा हुआ है। वर्ष 2017 में भाजपा को समर्थन करने वाले मुसलमानों का प्रतिशत सात से बढक़र 10 पर पहुंच गया है। एमओटीएन-2017 के आंकड़ों के मुताबिक भाजपा के मुस्लिम मतदाताओं में से 15 से 20 प्रतिशत शिया हैं। सर्वे के मुताबिक भाजपा का मुसलमान मतदाता अन्य दलों के मुसलमान मतदाताओं की तुलना में आर्थिक रूप से बेहतर स्थिति में हैं। भाजपा के मुस्लिम मतदाताओं का 55 प्रतिशत से अधिक वर्ग शिक्षित है जिन्होंने कक्षा 10 और उससे ऊपर तक पढ़ाई की है। मुस्लिम महिलाओं की भाजपा के लिए वोट करने की संभावना अधिक होती है।

भाजपा के मुस्लिम समर्थन आधार की बात करें तो इसमे महिलाएं 56 फीसदी हैं, जबकि पुरुष मात्र 44 प्रतिशत है। भाजपा के प्रति मुसलमानों का रुझान वर्ष 2009 से बढ़ता दिख रहा है। वर्ष 2009 लोकसभा चुनाव में भाजपा को करीब छह प्रतिशत मुस्लिम मत मिला। 2014 के चुनाव में यह 10 प्रतिशत पर पहुंच गया। 2019 के लोकसभा चुनाव में भी इसके बढऩे की संभावना है।

देश में हैं 45 लाख शिया

देश में करीब 45 लाख शिया हैं जो ईरान के बाद दुनिया की किसी भी देश में मौजूद सबसे बड़ी आबादी है। यूपी की बात करें तो लखनऊ, अमरोहा, डुमरियागंज, बाराबंकी में शियाओं की अच्छी आबादी हैं। इसके अलावा सभी जिलों में 15 से 40 हजार शिया जनसंख्या है।

गौरतलब है कि केंद्र की मोदी सरकार के बीते पांच सालों में सरकार की कल्याणकारी योजनाओं, शौचालय, आवास योजना, उज्जवला योजना और आयुष्मान योजना में पूरे देश में मुस्लिम वर्ग से कहीं भी यह शिकायत नहीं आई कि इन योजनाओं में उनके साथ कोई भेदभाव किया जा रहा है। इसके अलावा तीन तलाक पर मोदी सरकार के रुख से मुस्लिम वर्ग की महिलाओं का मत भाजपा के प्रति कितना सकारात्मक हुआ है, यह तो मौजूदा लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद ही पता चलेगा, लेकिन इस मुद्दे का कुछ न कुछ असर पडऩे की संभावना तो बनी ही हुई है।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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