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पैराडाइज लीक्सः खबरों की प्रणम्य सहकारिता, पत्रकारिता ने बचाई लाज
जयराम शुक्ल
लाख लानतों और मलानतों के बीच अभी भी पत्रकारिता आखिरी उम्मीद के रूप में बची हुई है। पनामा के बाद पैराडाइज लीक्स ने यह साबित किया है कि दुनिया के आर्थिक स्त्रोतों को लूटकर सात समंदर पर कहीं भी गाड़ कर रखो, हमारी नजर रहेगी। सरकारें भलें आंखें मूंद लें, बचा लें पर पब्लिक की नजर से बचने वाले नहीं।
हम अवतारवाद पर विश्वास करने वाले लोग हैं। जब व्यवस्थाएं अराजक होकर अति करने लगती हैं तो कोई न कोई शक्ति अवश्य प्रकट होती है, जो सभी हिसाब बराबर कर देती है। पैराडाइज लीक्स ने कालेधन वालों और टैक्सचोरों के बारे में जो खुलासा किया उससे ज्यादा महत्वपूर्ण है, पत्रकारिता का संगठित व सहकारी मिशन जो भविष्य की राह प्रशस्त करता है।
पैराडाइज लीक्स परिश्रमी, लक्ष्यबद्ध पत्रकारों के संयुक्त सहकार का परिणाम है। इसके बारे में जब से थोड़ा बहुत जाना मेरे भीतर का पत्रकार उत्साह से लबालब भर गया है। एक वैश्विक संगठन है इंटरनेशनल कंसोर्टियम आफ इनवेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट (ICIJ)। इसी संगठन ने पत्रकारीय मिशन के तौर पर ऐसे खुलासों के लिए बीड़ा उठाया है।
इस संगठन में विश्वभर के 96 मीडिया संस्थान हैं। बीबीसी लंदन तो है ही भारत का इंडियन एक्सप्रेस भी है। हर संस्थान अपने कुशल और खोजी दिमाग वाले पत्रकार को ICIJ की अभियान के लिए उपलब्ध कराता है। पैराडाइज पेपर्स तैयार करने में इन्हीं की संयुक्त टीम भिड़ी थी। इस अभियान में 19 देशों की कारपोरेट रजिस्ट्रियों की छानबीन की गई।
अभियान कितना बड़ा था कि 1 करोड़ 32 लाख दस्तावेज जाहिर किए गए। इनमें से 714 कंपनियां भारत की हैं। मोटा मोटी पूरा खेल जो मुझे समझ में आया वो ये कि अपने देश की कंपनियां उन देशों में किसी दूसरे नाम से कंपनियां खोलती हैं, जहां टैक्स की झंझट नहीं है। परदे के पीछे उन कंपनियों के मालिक भी यही होते हैं। फिर यहां का धन वहां स्थानांतरित करके टैक्स बचाती हैं। वो खरबों रुपए जो टैक्स के तौर पर अपने देश के खजाने में जाना चाहिए, वे दूसरे देश के बैंकों में सुरक्षित जमा रहता है। धन की जरूरत पड़ने पर उसी देश के बैंकों में जमा किया धन काम आता है। इसके लिए बाकायदा अंतरराष्ट्रीय कंसल्टेंट कंपनियां हैं, जो यह सिखाती हैं कि विधिक तरीके से कालाधन कैसे खपाया जाए, टैक्स कैसे चुराया जाए?
इससे पहले पनामा लीक्स हुआ था। यह भी ICIJ की खोज का परिणाम था। इसमें 76 देशों के 109 मीडिया संस्थान शामिल थे। इसके 190 खोजी पत्रकारों ने 70 देशों की 370 रिपोटर्स जारी की थी। नवाज शरीफ का इसी में नाम आया और अब जेल जाने की नौबत है। अपना देश भी जानना चाहता है कि पनामा लीक्स में जिन भारतीय कारोबारियों, जनप्रतिनिधियों, सेलीब्रिटी के नाम आए थे उनके बारे में सरकार क्या कर रही है।
पत्रकारिता का छात्र होने के नाते मुझे यह बात लगातार परेशान करती रही है कि जब कारपोरेट जगत देश के मुख्यधारा के मीडिया को खरीदकर अपना जरगुलाम बना लेगा, तब संगठित लूट की बातें कौन उठाया करेगा? वैसे भी देश के नब्बे फीसद बड़े मीडिया समूह कारपोरेट पालित ही हैं। इनमें जब भी कोई सनसनीखेज खुलासे होते हैं तो समझिए कि ये कारपोरेट का क्लैस आफ इन्ट्रेस्ट है।
कॉमनवेल्थ घोटाले में यह बात दस्तावेजों के साथ स्पष्ट रूप से सामने आई। दरअसल एक मीडिया समूह जो इवेंट कंपनी भी चलाता है, चाहता था कि ठेका उसे मिले। ठेका उसे इसलिए नहीं मिला कि ठेका देनेवालों को संदेह था कि उन्हें उनका मुंह-मांगा कमीशन नहीं मिल पाएगा, सो ठेका नहीं दिया। फर्ज करिए यदि उस मीडिया हाउस को इवेंट का ठेका मिलता तो क्या अरबों का ये घोटाला सामने आ पाता ? ऊपर से लेकर नीचे तक यही चल रहा है।
मीडिया भारत में कारपोरेट और कारोबारियों के लिए कवच से ज्यादा कुछ नहीं रह गया। अंतुले सीमेंट कांड, फिर डालडा में चरबी मिलाने वाले कांड जो सामने आए वे कारोबारियों के क्लैस आफ इन्ट्रेस्ट के परिणाम थे। इनकी अंतरकथाएं बहुत से पत्रकारों को मालुम हैं। कारोबारियों के हाथ में मीडिया हो तो सरकार से उसे वैसे ही नचाएगी जैसे मदारी भालू को नचाता है। दुर्भाग्य से अब यही दौर चल रहा है। आंचलिक पत्रकारिता जो कभी बेहद प्रभावशाली थी, उसे भी विज्ञापन और बहुत सी जांचों के नाम पर बधिया बनाया जा रहा है।
पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर भी सवाल खड़े हैं। तहलका में एक के बाद एक खुलासे हुए। दुर्भाग्य से वे सभी भाजपा के हित के खिलाफ गए। तो ये मान लिया गया कि तहलका कांग्रेस के हित में काम कर रहा है। ऐसी ही धारणा एनडीटीवी को लेकर है। अब अंदर खाने में कुछ हो पर अविश्वास का वातावरण पुख्ता ही होता जा रहा है।
मीडिया हाउस अपनी-अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता को लेकर बदनाम होते जा रहे हैं। सामान्य सा आदमी चैनल खोलते ही घोषणा कर बैठता है कि अरे ये तो फलां पार्टी का पोंगा है। अखबार के पन्ने पलटते ही वह उसे किसी पार्टी की पुंगी बताते हुए गंभीर से गंभीर खबर को खारिज कर देता है। अमेरिका के राष्ट्रपति जेफरसन ने जिस प्रेस को सत्ता और लोकतंत्र के लिए अपरिहार्य बताया था वही प्रेस भारत में सत्ताओं व लोकतांत्रिक राजनीतिक दलों को सबसे ज्यादा खटकता है।
इसे कैसे काबू में लाया जाए समय समय पर कोशिशें भी होती हैं। राजस्थान में इन दिनों यही कवायद चल रही है कि सरकार सूचनाओं को कैसे अपने काबू में कर सके। इन स्थितियों के चलते दुनियाभर के चुनिन्दा जर्नलिस्टों का ये कंसोर्टियम उम्मीदें जगाता है। यह सूचनाओं के सहकार की पत्रकारिता है। पहले पत्रकारों में होड रहती थी कि वह खबर को कैसे एक्सक्लुसिव बनाए। लेकिन यहाँ एक खबर को सबके साथ साझा करते हुए बारीक से बारीक तथ्यों की पड़ताल होती है। यह कई नजरों से गुजरती हुई दोषहीन होकर आखिरी सिरे पहुंचती है फिर पब्लिक से साझा होती है।
यह खबरों और खबरवालों के संयुक्त सहकार की ही ताकत है कि पैराडाइज लीक्स में क्वीन एलजावेथ हैं तो डोनाल्ड ट्रंप के सगे संबंधी भी। भारत में भी इस नवाचार पर काम होना चाहिए। कारपोरेट मीडिया से ज्यादा उम्मीद नहीं पर जो थोड़े हैं, जिनके लिए पत्रकारिता कीमत नहीं मूल्य है, वे लीड लेते हुए देश में धुंधली पड़ रही मीडिया की छवि को निखार सकते हैं।