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कविता: हां मैं हूं बेतरतीब सी... सोचती हूं करीने से कोई साड़ी पहन लूं
Priti Priyanshu
हां मैं हूं बेतरतीब सी...
सोचती हूं करीने से
कोई साड़ी पहन लूं
थोड़ी इत्र डाल महक जाऊं
उसी वक्त याद आ जाता है
बनाना है
तुम्हारी पसंद का खाना
फिर महक उठती हूं
प्याज़-मसालों की गंध से
और तुम्हें मिलती है
थाली परोसती हुई
हल्दी लगे हाथों वाली औरत...
हां मैं हूं बेतरतीब सी....
मेरे भीतर की चुलबुली सी लड़की
शरारतें करने को आतुर होती है
खुल के हंसना चाहती है
कि तब तक रोता हुआ बच्चा
आ लिपट जाता है मां से
अपनी ज़रूरते गिनाने
बड़ी गंभीरता से संभालती हूं
और तुमको मिलती है
अति व्यस्त मां...
हां मैं हूं बेतरतीब सी...।
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