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कविता, शरद : सिमट गयी फिर नदी, सिमटने में चमक आयी

raghvendra
Published on: 8 Dec 2017 4:07 PM IST
कविता, शरद : सिमट गयी फिर नदी, सिमटने में चमक आयी
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सिमट गयी फिर नदी, सिमटने में चमक आयी

गगन के बदन में फिर नयी एक दमक आयी।

दीप कोजागरी बाले कि फिर आवें वियोगी सब

ढोलकों से उछाह और उमंग की गमक आयी।

बादलों के चुम्बनों से खिल अयानी हरियाली,

शरद की धूप में नहा-निखर कर हो गयी है मतवाली।

झुंड कीरों के अनेकों फबतियाँ कसते मँडराते

झर रही है प्रान्तर में चुप-चाप लजीली शेफाली।

बुलाती ही रही उजली कछार की खुली छाती -

उड़ चली कहीं दूर दिशा को धौली बक-पाँती।

गाज, बाज, बिजली से घेर इन्द्र ने जो रक्खी थी -

शारदा ने हँस के वो तारों की लुटा दी थाती।

मालती अनजान भीनी गन्ध का है झीना जाल फैलाती

कहीं उसके रेशमी फन्दे में शुभ्र चांदनी पकड़ पाती!

घर-भवन-प्रासाद खंडहर हो गये किन-किन लताओं की जकड़ में

गन्ध, वायु, चांदनी, अनंग रहीं मुक्त इठलाती!

सांझ! सूने नील में दोले है कोजागरी का दिया;

हार का प्रतीक - ‘दिया सो दिया, भुला दिया जो किया!’

किन्तु - शारद चांदनी का साक्ष्य - यह संकेत जय का है -

प्यार जो किया सो जिया; धधक रहा है हिया, पिया!

- अज्ञेय

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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