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कविता: बुलाती है जो हर बार, बादल के चंद टुकड़े, बेसबब हवा के संग झूमते
ममता शर्मा
बुलाती है जो हर बार
बादल के चंद टुकड़े,
बेसबब हवा के संग झूमते,
जाने क्या कहते
जाने क्या सुनते
ये कैसा रिश्ता है
दरमियान उनके या
कोई एहसास की डोरी है
जो बाँधे है जबरन या
चाहत है कोई कल की
उलझी-उलझी सी
कुछ सुलझी- सुलझी सी
बंद किये हमने कई बार
वक्त के दरवाज़ों को
समझाया कितनी बार
न बांधो मुझे
अपने मोह-पाश में
पर अपने भोले चेहरे पे
मोहिनी सी मुस्कान लिए
आ जाती हैं यादें कल की
कोई नया पैगाम लिए
हवा के ठंढे झोकों में
खुशबू का एहसास लिए
जी चाहे खोल दूं
दरवाजों को सारे फिर
छू लूँ हौले से खुशबू भरे
एहसास को
पर ये भी ख़बर है कि
ये है इक मृग तृष्णा
बुलाती है जो हर बार
मुश्तकिल सी ख़ामख़ाह
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