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कविता: मौसम बेघर होने लगे हैं, बंजारे लगते हैं मौसम, मौसम बेघर होने लगे हैं

raghvendra
Published on: 17 Nov 2017 11:36 AM
कविता: मौसम बेघर होने लगे हैं, बंजारे लगते हैं मौसम, मौसम बेघर होने लगे हैं
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गुलजार

मौसम बेघर होने लगे हैं

बंजारे लगते हैं मौसम

मौसम बेघर होने लगे हैं

जंगल, पेड, पहाड़, समंदर

इंसां सब कुछ काट रहा है

छील छील के खाल ज़मीं की

टुकड़ा टुकड़ा बांट रहा है

आसमान से उतरे मौसम

सारे बंजर होने लगे हैं

मौसम बेघर...

दरयाओं पे बांध लगे हैं

फोड़ते हैं सर चट्टानों से

’बांदी’ लगती है ये ज़मीन

डरती है अब इंसानों से

बहती हवा पे चलने वाले

पांव पत्थर होने लगे हैं

मौसम बेघर होने लगे हैं

raghvendra

raghvendra

राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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