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कविता: अपने की प्रतीक्षा, अभी कहाँ अंकुर फूटे हैं, अभी कहाँ उत्साह भरा!
मनोजकान्त
अभी कहाँ अंकुर फूटे हैं,
अभी कहाँ उत्साह भरा!
अभी कहाँ फागुन आया है,
अभी कहाँ है मुदित धरा !
ठहरो, ठहरो! अभी कहाँ--
गूंजा नवता का नवल गान;
अभी कहाँ बीते ठिठुरन--
सिहरन से सहमे-डरे बिहान!
रुको रंच प्रिय, करो प्रतीक्षा,
विविध रंग-रस-गंध लिये--
वृक्ष-पुष्प-कोंपल-पल्लव को,
खिलने दो नवछंद लिये ।
अभी तनिक धरती माता को
फूलों से लद जाने दो;
कोयल का कू-कू पंचम स्वर
मधुरस में घुल जाने दो।
नये साल की करो प्रतीक्षा,
आने दो ऋतुराज को;
जीवन के पतझर परास्त कर,
प्रकटे प्रिय मधुमास को।।
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