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कविता: जब भी तुम्हारे पास आता हूँ मैं, कितना कुछ बदल जाता है
शिवदत्त
जब भी तुम्हारे पास आता हूँ मैं
कितना कुछ बदल जाता है
सारी दुनिया एक बंद कमरे में सिमट जाती है
सारी संसार कितना छोटा हो जाता है
मैं देख पता हूँ, धरती के सभी छोर
देख पाता हूँ , आसमान के पार
छू पाता हूँ, चाँद तारों को मैं
महसूस करता हूँ बादलो की नमी
नहीं बाकी कुछ अब जिसकी हो कमी
जब भी तुम्हारे पास आता हूँ मैं ....
पहाड़ों को अपने हाथों के नीचे पाता हूँ
खुद कभी नदियों को पी जाता हूँ
रोक देता हूँ कभी वक्त को आँखों में
कभी कितनी सदियों आगे निकल आता हूँ
जब भी तुम्हारे पास आता हूँ मैं ....
कमरे की मेज पर ब्रह्माण्ड का ज्ञान
फर्श पर बिखरे पड़े हैं अनगिनत मोती
खामोशी में बहती सरस्वती की गंगा
घुुप्प अँधेरे में बंद आँखों से भी देखता हूँ
हर ओर से आता हुआ एक दिव्य प्रकाश
जब भी तुम्हारे पास आता हूँ मैं ....
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