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कालिदास जयंती पर विशेष: भारतीय साहित्य के गौरव हैं महाकवि कालिदास
कालिदास को कविकुलगुरु, कनिष्ठिकाधिष्ठित और कविताकामिनीविलास जैसी प्रशंशात्मक उपाधियां प्रदान की गई हैं, जो उनके काव्यगत विशिष्टताओं से अभिभूत होकर ही दी गई हैं।
संजय तिवारी
आदि कवि प्रचेतस वाल्मीकि और कृष्ण द्वैपायन व्यास के बाद संस्कृत साहित्य में तीसरा नाम महाकवि कालिदास का ही है। इस स्थापना में न तो कही संदेह है और नहीं कोई शक। कालिदास संस्कृत भाषा के महान कवि और नाटककार थे। उन्होंने भारत की पौराणिक कथाओं और दर्शन को आधार बनाकर रचनाएं की और उनकी रचनाओं में भारतीय जीवन और दर्शन के विविध रूप और मूल तत्व निरूपित हैं।
कालिदास अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण राष्ट्र की समग्र राष्ट्रीय चेतना को स्वर देने वाले कवि माने जाते हैं और कुछ विद्वान उन्हें राष्ट्रीय कवि का स्थान तक देते हैं। अभिज्ञानशाकुंतलम कालिदास की सबसे प्रसिद्ध रचना है। यह नाटक कुछ उन भारतीय साहित्यिक कृतियों में से है, जिनका सबसे पहले यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद हुआ था। यह पूरे विश्व साहित्य में अग्रगण्य रचना मानी जाती है। मेघदूतम् कालिदास की सर्वश्रेष्ठ रचना है जिसमें कवि की कल्पनाशक्ति और अभिव्यंजनावादभावाभिव्यन्जना शक्ति अपने सर्वोत्कृष्ट स्तर पर है और प्रकृति के मानवीकरण का अद्भुत रखंडकाव्ये से खंडकाव्य में दिखता है।
कालिदास वैदर्भी रीति के कवि हैं और तदनुरूप वे अपनी अलंकार युक्त किंतु सरल और मधुर भाषा के लिए विशेष रूप से जाने जाते हैं। उनके प्रकृति वर्णन अद्वितीय हैं और विशेष रूप से अपनी उपमाओं के लिए जाने जाते हैं। साहित्य में औदार्य गुण के प्रति कालिदास का विशेष प्रेम है और उन्होंने अपने शृंगार रस प्रधान साहित्य में भी आदर्शवादी परंपरा और नैतिक मूल्यों का समुचित ध्यान रखा है। कालिदास के परवर्ती कवि बाणभट्ट ने उनकी सूक्तियों की विशेष रूप से प्रशंसा की है।
कालिदास किस काल में हुए और वे मूलतः किस स्थान के थे इसमें काफ़ी विवाद है। उनकी जन्म तिथि के लिए तो कही कोई प्रामाणिक जानकारी अब तक नहीं मिलती। कहीं-कहीं कार्तिक शुक्ल द्वादशी या एकादशी को कालिदास की जयंती मना लेने की परंपरा रही है। इस वर्ष उनकी जयंती द्वादशी यानी एक नवंबर को मनाई जा रही है। भारत कोष के अनुसार इस महान कवि का जन्मस्थान उतर प्रदेश ही रहा है, लेकिन वर्त्तमान में उतरप्रदेश से अधिक इनके बारे में मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ सक्रिय दिखाई देते हैं।
कालिदास ने द्वितीय शुंग शासक अग्निमित्र को नायक बनाकर मालविकाग्निमित्रम नाटक लिखा और अग्निमित्र ने 170 ईसापू्र्व में शासन किया था, अतः कालिदास के समय की एक सीमा निर्धारित हो जाती है कि वे इससे पहले नहीं हुए हो सकते। छठीं सदी ईसवी में बाणभट्ट ने अपनी रचना हर्षचरितम में कालिदास का उल्लेख किया है तथा इसी काल के पुलकेशिन द्वितीय के एहोल अभिलेख में कालिदास का जिक्र है, अतः वे इनके बाद के नहीं हो सकते। इस प्रकार कालिदास के प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व से छठी शताब्दी ईसवी के मध्य होना तय है।
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दुर्भाग्यवश इस समय सीमा के अन्दर वे कब हुए इस पर काफ़ी मतभेद हैं। विद्वानों में (i) द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व का मत (ii), प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व का मत (iii), तृतीय शताब्दी ईसवी का मत (iv), चतुर्थ शताब्दी ईसवी का मत (v), पांचवी शताब्दी ईसवी का मत तथा (vi) छठीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध का मत प्रचलित थे। इनमें ज्यादातर खण्डित हो चुके हैं या उन्हें मानने वाले इक्के दुक्के लोग हैं किन्तु मुख्य संघर्ष 'प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व का मत और 'चतुर्थ शताब्दी ईसवी का मत' में है।
प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व का मत-
परंपरा के अनुसार कालिदास उज्जयिनी के उन राजा विक्रमादित्य के समकालीन हैं, जिन्होंने ईसा से 57 वर्ष पूर्व विक्रम संवत चलाया। विक्रमोर्वशीय के नायक पुरुरवा के नाम का विक्रम में परिवर्तन से इस तर्क को बल मिलता है कि कालिदास उज्जयनी के राजा विक्रमादित्य के राजदरबारी कवि थे। इन्हें विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक माना जाता है।
चतुर्थ शताब्दी ईसवी का मत -
प्रो॰ कीथ और अन्य इतिहासकार कालिदास को गुप्त शासक चंद्रगुप्त विक्रमादित्य और उनके उत्तराधिकारी कुमारगुप्त से जोड़ते हैं, जिनका शासनकाल चौथी शताब्दी में था। ऐसा माना जाता है कि चंद्रगुप्त द्वितीय ने विक्रमादित्य की उपाधि ली और उनके शासनकाल को स्वर्णयुग माना जाता है।
विवाद और पक्ष-प्रतिपक्ष -
कालिदास ने शुंग राजाओं के छोड़कर अपनी रचनाओं में अपने आश्रयदाता या किसी साम्राज्य का उल्लेख नहीं किया। सच्चाई तो यह है कि उन्होंने पुरुरवा और उर्वशी पर आधारित अपने नाटक का नाम विक्रमोर्वशीयम् रखा। कालिदास ने किसी गुप्त शासक का उल्लेख नहीं किया। विक्रमादित्य नाम के कई शासक हुए, संभव है कि कालिदास इनमें से किसी एक के दरबार में कवि रहे हों। अधिकांश विद्वानों का मानना है कि कालिदास शुंग वंश के शासनकाल में थे, जिनका शासनकाल 100 सदी ईसापू्र्व था।
अग्निमित्र, जो मालविकाग्निमित्र नाटक का नायक है, कोई सुविख्यता राजा नहीं था, इसीलिए कालिदास ने उसे विशिष्टता प्रदान नहीं की। उनका काल ईसा से दो शताब्दी पूर्व का है और विदिशा उसकी राजधानी थी। कालिदास के द्वारा इस कथा के चुनाव और मेघदूत में एक प्रसिद्ध राजा की राजधानी के रूप में उसके उल्लेख से यह निष्कर्ष निकलता है कि कालिदास अग्निमित्र के समकालीन थे।
यह स्पष्ट है कि कालिदास का उत्कर्ष अग्निमित्र के बाद (150 ई॰ पू॰) और 634 ई॰ पूर्व तक रहा है, जो कि प्रसिद्ध ऐहोल के शिलालेख की तिथि है, जिसमें कालिदास का महान कवि के रूप में उल्लेख है। यदि इस मान्यता को स्वीकार कर लिया जाए कि माण्डा की कविताओं या 473 ई॰ के शिलालेख में कालिदास के लेखन की जानकारी का उल्लेख है, तो उनका काल चौथी शताब्दी के अन्त के बाद का नहीं हो सकता।
अश्वघोष के बुद्धचरित और कालिदास की कृतियों में समानताएं हैं। यदि अश्वघोष कालिदास के ऋणी हैं तो कालिदास का काल प्रथम शताब्दी ई॰ से पूर्व का है और यदि कालिदास अश्वघोष के ऋणी हैं तो कालिदास का काल ईसा की प्रथम शताब्दी के बाद ठहरेगा। हम कोई भी तिथि स्वीकार करें, वह हमारा उचित अनुमान भर है और इससे अधिक कुछ नहीं।
जन्म स्थान: कालिदास के जन्मस्थान के बारे में भी विवाद है। मेघदूतम में उज्जैन के प्रति उनकी विशेष प्रेम को देखते हुए कुछ लोग उन्हें उज्जैन का निवासी मानते हैं। साहित्यकारों ने ये भी सिद्ध करने का प्रयास किया है कि कालिदास का जन्म उत्तराखंड के रूद्रप्रयाग जिले के कविल्ठा गांव में हुआ था। कालिदास ने यहीं अपनी प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण की थी औऱ यहीं पर उन्होंने मेघदूत, कुमारसंभव औऱ रघुवंश जैसे महाकाव्यों की रचना की थी। कविल्ठा चारधाम यात्रा मार्ग में गुप्तकाशी में स्थित है।
गुप्तकाशी से कालीमठ सिद्धपीठ वाले रास्ते में कालीमठ मंदिर से चार किलोमीटर आगे कविल्ठा गांव स्थित है। कविल्ठा में सरकार ने कालिदास की प्रतिमा स्थापित कर एक सभागार की भी निर्माण करवाया है। जहां पर हर साल जून माह में तीन दिनों तक गोष्ठी का आयोजन होता है, जिसमें देशभर के विद्वान भाग लेते हैं। कुछ विद्वानों ने तो उन्हें बंगाल और उड़ीसा का भी साबित करने की कोशिस की है। कहते हैं कि कालिदास की श्रीलंका में हत्या कर दी गई थी लेकिन विद्वान इसे भी कपोल-कल्पित मानते हैं।
कथाओं और किम्वादंतियों के अनुसार कालिदास शक्लो-सूरत से सुंदर थे और विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्नों में एक थे। कहा जाता है कि प्रारंभिक जीवन में कालिदास अनपढ़ और मूर्ख थे। कालिदास की शादी विद्योत्तमा नाम की राजकुमारी से हुई। ऐसा कहा जाता है कि विद्योत्तमा ने प्रतिज्ञा की थी कि जो कोई उसे शास्त्रार्थ में हरा देगा, वह उसी के साथ शादी करेगी। जब विद्योत्तमा ने शास्त्रार्थ में सभी विद्वानों को हरा दिया तो अपमान से दुखी कुछ विद्वानों ने कालिदास से उसका शास्त्रार्थ कराया। विद्योत्तमा मौन शब्दावली में गूढ़ प्रश्न पूछती थी, जिसे कालिदास अपनी बुद्धि से मौन संकेतों से ही जवाब दे देते थे। विद्योत्तमा को लगता था कि कालिदास गूढ़ प्रश्न का गूढ़ जवाब दे रहे हैं। उदाहरण के लिए विद्योत्तमा ने प्रश्न के रूप में खुला हाथ दिखाया तो कालिदास को लगा कि यह थप्पड़ मारने की धमकी दे रही है। उसके जवाब में कालिदास ने घूंसा दिखाया तो विद्योत्तमा को लगा कि वह कह रहा है कि पांचों इंद्रियां भले ही अलग हों, सभी एक मन के द्वारा संचालित हैं।
विद्योत्तमा और कालिदास का विवाह हो गया तब विद्योत्तमा को सच्चाई का पता चला कि कालिदास अनपढ़ हैं। उसने कालिदास को धिक्कारा और यह कह कर घर से निकाल दिया कि सच्चे पंडित बने बिना घर वापिस नहीं आना। कालिदास ने सच्चे मन से काली देवी की आराधना की और उनके आशीर्वाद से वे ज्ञानी और धनवान बन गए। ज्ञान प्राप्ति के बाद जब वे घर लौटे तो उन्होंने दरवाजा खड़का कर कहा - कपाटम् उद्घाट्य सुन्दरी (दरवाजा खोलो, सुन्दरी)। विद्योत्तमा ने चकित होकर कहा -अस्ति कश्चिद् वाग्विशेषः (कोई विद्वान लगता है)। इस प्रकार, इस किवदंती के अनुसार, कालिदास ने विद्योत्तमा को अपना पथप्रदर्शक गुरु माना और उसके इस वाक्य को उन्होंने अपने काव्यों में जगह दी। कुमारसंभवम का प्रारंभ होता है- अस्त्युत्तरस्याम् दिशि… से, मेघदूतम्का पहला शब्द है- कश्चित्कांता… और रघुवंशम् की शुरुआत होती है- वागार्थविव… से।
रचनाएं: छोटी-बड़ी कुल लगभग चालीस रचनाएं हैं, जिन्हें अलग-अलग विद्वानों ने कालिदास द्वारा रचित सिद्ध करने का प्रयास किया है। इनमें से मात्र सात ही ऐसी हैं जो निर्विवाद रूप से कालिदासकृत मानी जाती हैं: तीन नाटक: अभिज्ञान शाकुन्तलम्, विक्रमोर्वशीयम् और मालविकाग्निमित्रम्; दो महाकाव्य: रघुवंशम् और कुमारसंभवम्; और दो खण्डकाव्य: मेघदूतम् और ऋतुसंहार। इनमें भी ऋतुसंहार को प्रो॰ कीथ संदेह के साथ कालिदास की रचना स्वीकार करते हैं।
नाटक: मालविकाग्निमित्रम् कालिदास की पहली रचना है, जिसमें राजा अग्निमित्र की कहानी है। अग्निमित्र एक निर्वासित नौकर की बेटी मालविका के चित्र के प्रेम करने लगता है। जब अग्निमित्र की पत्नी को इस बात का पता चलता है तो वह मालविका को जेल में डलवा देती है। मगर संयोग से मालविका राजकुमारी साबित होती है और उसके प्रेम-संबंध को स्वीकार कर लिया जाता है।
अभिज्ञान शाकुन्तलम् कालिदास की दूसरी रचना है जो उनकी जगतप्रसिद्धि का कारण बना। इस नाटक का अनुवाद अंग्रेजी और जर्मन के अलावा दुनिया के अनेक भाषाओं में हुआ है। इसमें राजा दुष्यंत की कहानी है जो वन में एक परित्यक्त ऋषि पुत्री शकुन्तला (विश्वामित्र और मेनका की बेटी) से प्रेम करने लगता है। दोनों जंगल में गंधर्व विवाह कर लेते हैं। राजा दुष्यंत अपनी राजधानी लौट आते हैं। इसी बीच ऋषि दुर्वासा शकुंतला को शाप दे देते हैं कि जिसके वियोग में उसने ऋषि का अपमान किया वही उसे भूल जाएगा। काफी क्षमा प्रार्थना के बाद ऋषि ने शाप को थोड़ा नरम करते हुए कहा कि राजा की अंगूठी उन्हें दिखाते ही सब कुछ याद आ जाएगा।
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लेकिन राजधानी जाते हुए रास्ते में वह अंगूठी खो जाती है। स्थिति तब और गंभीर हो गई जब शकुंतला को पता चला कि वह गर्भवती है। शकुंतला लाख गिड़गिड़ाई लेकिन राजा ने उसे पहचानने से इनकार कर दिया। जब एक मछुआरे ने वह अंगूठी दिखायी तो राजा को सब कुछ याद आया और राजा ने शकुंतला को अपना लिया। शकुंतला शृंगार रस से भरे सुंदर काव्यों का एक अनुपम नाटक है। कहा जाता है काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला (कविता के अनेक रूपों में अगर सबसे सुंदर नाटक है तो नाटकों में सबसे अनुपम शकुंतला है।)
विक्रमोर्वशीयम् एक रहस्यों भरा नाटक है। इसमें पुरूरवा इंद्रलोक की अप्सरा उर्वशी से प्रेम करने लगते हैं। पुरूरवा के प्रेम को देखकर उर्वशी भी उनसे प्रेम करने लगती है। इंद्र की सभा में जब उर्वशी नृत्य करने जाती है तो पुरूरवा से प्रेम के कारण वह वहां अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाती है। इससे इंद्र गुस्से में उसे शापित कर धरती पर भेज देते हैं। हालांकि, उसका प्रेमी अगर उससे होने वाले पुत्र को देख ले तो वह फिर स्वर्ग लौट सकेगी। विक्रमोर्वशीयम् काव्यगत सौंदर्य और शिल्प से भरपूर है।
महाकाव्य
कुमारसंभवम् उनके महाकाव्यों के नाम है। रघुवंशम् में सम्पूर्ण रघुवंश के राजाओं की गाथाएं हैं, तो कुमारसंभवम् में शिव-पार्वती की प्रेमकथा और कार्तिकेय के जन्म की कहानी है। रघुवंशम् में कालिदास ने रघुकुल के राजाओं का वर्णन किया है।
खण्डकाव्य
मेघदूतम् एक गीतिकाव्य है जिसमें यक्ष द्वारा मेघ से सन्देश ले जाने की प्रार्थना और उसे दूत बना कर अपनी प्रिय के पास भेजने का वर्णन है। मेघदूत के दो भाग हैं - पूर्वमेघ एवं उत्तरमेघ।ऋतुसंहारम् में सभी ऋतुओं में प्रकृति के विभिन्न रूपों का विस्तार से वर्णन किया गया है।
अन्य रचनाएं
इनके अलावा कई छिटपुट रचनाओं का श्रेय कालिदास को दिया जाता है, लेकिन विद्वानों का मत है कि ये रचनाएं अन्य कवियों ने कालिदास के नाम से की। नाटककार और कवि के अलावा कालिदास ज्योतिष के भी विशेषज्ञ माने जाते हैं। उत्तर कालामृतम् नामक ज्योतिष पुस्तिका की रचना का श्रेय कालिदास को दिया जाता है। ऐसा माना जाता है कि काली देवी की पूजा से उन्हें ज्योतिष का ज्ञान मिला। इस पुस्तिका में की गई भविष्यवाणी सत्य साबित हुईं।
श्रुतबोधम्
शृंगार तिलकम्
शृंगार रसाशतम्
सेतुकाव्यम्
कर्पूरमंजरी
पुष्पबाण विलासम्
श्यामा दंडकम्
ज्योतिर्विद्याभरणम्
कालिदास को कविकुलगुरु, कनिष्ठिकाधिष्ठित और कविताकामिनीविलास जैसी प्रशंशात्मक उपाधियां प्रदान की गई हैं, जो उनके काव्यगत विशिष्टताओं से अभिभूत होकर ही दी गई हैं। कालिदास के काव्य की विशिष्टताओं का वर्णन निम्नवत किया जा सकता है। कालिदास वैदर्भी रीति के कवि हैं और उन्होंने प्रसाद गुण से पूर्ण ललित शब्दयोजना का प्रयोग किया है। प्रसाद गुण का लक्षण है - "जो गुण मन में वैसे ही व्याप्त हो जाय जैसे सूखी ईंधन की लकड़ी में अग्नि सहसा प्रज्वलित हो उठती है और कालिदास की भाषा की यही विशेषता है। कालिदास की भाषा मधुर नाद सुन्दरी से युक्त है और समासों का अल्पप्रयोग, पदों का समुचित स्थान पर निवेश, शब्दालंकारों का स्वाभाविक प्रयोग इत्यादि गुणों के कारण उसमें प्रवाह और प्रांजलता विद्यमान है।
कालिदास ने शब्दालंकारों का स्वाभाविक प्रयोग किया है और उन्हें उपमा अलंकार के प्रयोग में सिद्धहस्त और उनकी उपमाओं को श्रेष्ठ माना जाता है। उदहारण के लिये:
संचारिणी दीपशिखेव रात्रौ यं यं व्यतीयाय पतिंवरा सा।
नरेन्द्रमार्गाट्ट इव प्रपेदे विवर्णभावं स स भूमिपालः।।
अर्थात् स्वयंवर में बारी-बारी से प्रत्येक राजा के सामने गमन करती हुई इन्दुमती राजाओं के सामने से चलती हुई दीपशिखा की तरह लग रही थी जिसके आगे बढ़ जाने पर राजाओं का मुख विवर्ण (रिजेक्ट कर दिए जाने से अंधकारमय, मलिन) हो जाता था।
कालिदास की कविता की प्रमुख विशेषता है कि वह चित्रों के निर्माण में सबकुछ न कहकर भी अभिव्यंजना द्वारा पूरा चित्र खींच देते हैं। जैसे:
एवं वादिनि देवर्शौ पार्श्वे पितुरधोमुखी।
लीला कमल पत्राणि गणयामास पार्वती।।
अर्थात् देवर्षि के द्वारा ऐसी (पार्वती के विवाह प्रस्ताव की) बात करने पर, पिता के समीप बैठी पार्वती ने सिर झुका कर हाथ में लिये कमल की पंखुड़ियों को गिनना शुरू कर दिया।
आधुनिक काल में कालिदास
कूडियट्टम् में संस्कृत आधारित नाटकों का एक रंगमंच है, जहां भास के नाटक खेले जाते हैं। महान कूडियट्टम कलाकार और नाट्य शास्त्र के विद्वान स्वर्गीय नाट्याचार्य विदुषकरत्तनम पद्मश्री गुरू मणि माधव चक्यार ने कालिदास के नाटकों के मंचन की शुरूआत की। कालिदास को लोकप्रिय बनाने में दक्षिण भारतीय भाषाओं के फिल्मों का भी काफी योगदान है। कन्नड़ भाषा की फिल्मों कविरत्न कालिदास और महाकवि कालिदास ने कालिदास के जीवन को काफी लोकप्रिय बनाया। इन फिल्मों में स्पेशल इफेक्ट और संगीत का बखूबी उपयोग किया गया था। वी शांताराम ने शकुंतला पर आधारित फिल्म बनायी थी। ये फिल्म इतनी प्रभावशाली थी कि इसपर आधारित अनेक भाषाओं में कई फिल्में बनाई गई।
हिन्दी लेखक मोहन राकेश ने कालिदास के जीवन पर एक नाटक आषाढ़ का एक दिन की रचना की, जो कालिदास के संघर्षशील जीवन के विभिन्न पहलुओं को दिखाता है। 1976 में सुरेंद्र वर्मा ने एक नाटक लिखा, जिसमें इस बात का जिक्र किया गया है कि पार्वती के शाप के कारण कालिदास कुमारसंभव को पूरा नहीं कर पाए थे। शिव और पार्वती के गार्हस्थ जीवन का अश्लीलतापूर्वक वर्णन करने के लिए पार्वती ने उन्हें यह शाप दिया था। इस नाटक में कालिदास को चंद्रगुप्त की अदालत का सामना करना पड़ा, जहां पंडितों और नैतिकतावादियों ने उनपर अनेक आरोप लगाए। इस नाटक में न सिर्फ एक लेखक के संघर्षशील जीवन को दिखाया गया है, बल्कि लेखक की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के महत्व को भी रेखांकित किया गया है।
अस्ति कश्चित वागर्थीयम् नाम से डॉ कृष्ण कुमार ने 1984 में एक नाटक लिखा, यह नाटक कालिदास के विवाह की लोकप्रिय कथा पर आधारित है। इस कथा के अनुसार, कालिदास पेड़ की उसी टहनी को काट रहे होते हैं, जिस पर वे बैठे थे। विद्योत्तम से अपमानित दो विद्वानों ने उसकी शादी इसी कालिदास के करा दी। जब उसे ठगे जाने का अहसास होता है, तो वो कालिदास को ठुकरा देती है। साथ ही, विद्योत्तमा ने ये भी कहा कि अगर वे विद्या और प्रसिद्धि अर्जित कर लौटते हैं तो वह उन्हें स्वीकार कर लेगी। जब कालिदास विद्या और प्रसिद्धि अर्जित कर लौटे तो सही रास्ता दिखाने के लिए कालिदास ने उन्हें पत्नी न मानकर गुरू मान लिया।
गाथाएं
कालिदास और दंडी में कौन श्रेष्ठ कवि थे, इस सवाल को दोनों ने माता सरस्वती के सामने रखा। सरस्वती ने जवाब दिया, दंडी। दुखी कालिदास ने पूछा, "तो माँ मैं कुछ भी नहीं"? माता ने जवाब दिया, त्वमेवाहं, यानी तुम और मैं दोनों एक जैसे हैं।