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कविता: अचरज एक देख मैं आया, एक घने, पर धूल-भरे-से अर्जुन तरु के नीचे

raghvendra
Published on: 22 Dec 2017 11:14 AM
कविता: अचरज एक देख मैं आया, एक घने, पर धूल-भरे-से अर्जुन तरु के नीचे
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अज्ञेय

अचरज

आज सवेरे

अचरज एक देख मैं आया।

एक घने, पर धूल-भरे-से अर्जुन तरु के नीचे

एक तार पर बिजली के वे सटे हुए बैठे थे-

दो पक्षी छोटे-छोटे,

घनी छाँह में, जग से अलग; ङ्क्षकतु परस्पर सलग।

और नयन शायद अधमीचे।

और उषा की धुँधली-सी अरुणाली थी सारा जग सींचे।

छोटे, इतने क्षुद्र, कि जग की सदा सजग आँखों की एक अकेली झपकी-

एक पलक में वे मिट जाएँ, कहीं न पाएँ-

छोटे, ङ्क्षकतु द्वित्व में इतने सुंदर, जग-हिय ईर्ष्या से भर जावे;

भर क्यों-भरा सदा रहता है-छल-छल उमड़ा आवे!

-सलग, प्रणय की आँधी में मानो ले दिन-मान,

विधि का करते-से आह्वान।

मैं जो रहा देखता, तब विधि ने भी सब कुछ देखा होगा-

वह विधि, जिस के अधिकृत उन के मिलन-विरह का लेखा होगा-

भकतु रहे वे फिर भी सटे हुए, संलग्न-

आत्मता में ही तन्मय, तन्मयता में सतत निमग्न!

और-बीत चुका जब मेरे जाने समय युगों का-

आया एक हवा का झोंका-काँपे तार-झरा दो कण नीहार-

उस समय भी तो उन के उर के भीतर

कोई खिलश नहीं थी-कोई रिक्त नहीं था-

नहीं वेदना की टीसों को स्थान कहीं था!

तब भी तो वे सहज परस्पर पंख से पंख मिलाये

वाताहत तम की झकझोर में भी अपने चारों ओर

एक प्रणय का निश्चल वातावरण जमाये

उड़े जा रहे थे, अतिशय निद्र्वन्द्व-

और विधि देख रही-नि:स्पंद!

लौट चला आया हूँ, फिर भी प्राण पूछते जाते हैं

क्या वह सच था! और नहीं उत्तर पाते हैं-

और कहे ही जाते हैं

कि आज मैं

अचरज एक देख आया।

raghvendra

raghvendra

राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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