×

कविता: इक इमारत! सीढ़ियां चढ़ते-उतरते हुए जूतों की धमक

raghvendra
Published on: 23 Feb 2018 4:07 PM IST
कविता: इक इमारत! सीढ़ियां चढ़ते-उतरते हुए जूतों की धमक
X

गुलजार

इक इमारत

है सराय शायद,

जो मेरे सर में बसी है।

सीढ़ियां चढ़ते-उतरते हुए जूतों की धमक,

बजती है सर में।

कोनों-खुदरों में खड़े लोगों की सरगोशियाँ,

सुनता हूँ कभी।

साजिशें, पहने हुए काले लबादे सर तक,

उड़ती हैं, भूतिया महलों में उड़ा करती हैं

चमगादड़ें जैसे।

इक महल है शायद !

साज़ के तार चटख़ते हैं नसों में

कोई खोल के आँखें,

पत्तियाँ पलकों की झपका के बुलाता है किसी को !

चूल्हे जलते हैं तो महकी हुई गन्दुम के धुएँ में,

खिड़कियाँ खोल के कुछ चेहरे मुझे देखते हैं !

और सुनते हैं जो मैं सोचता हूँ !

एक, मिट्टी का घर है

इक गली है, जो फक़़त घूमती ही रहती है

शहर है कोई, मेरे सर में बसा है शायद !

ख़ुदा

पूरे का पूरा आकाश घुमा कर बाज़ी देखी मैंने

काले घर में सूरज रख के,

तुमने शायद सोचा था, मेरे सब मोहरे पिट जायेंगे,

मैंने एक चिराग़ जला कर,

अपना रस्ता खोल लिया.

तुमने एक समन्दर हाथ में ले कर, मुझ पर ठेल दिया।

मैंने नूह की कश्ती उसके ऊपर रख दी,

काल चला तुमने और मेरी जानिब देखा,

मैंने काल को तोड़ क़े लम्हा-लम्हा जीना सीख लिया।

मेरी ख़ुदी को तुमने चन्द चमत्कारों से मारना चाहा,

मेरे इक प्यादे ने तेरा चाँद का मोहरा मार लिया।

मौत की शह दे कर तुमने समझा अब तो मात हुई,

मैंने जिस्म का ख़ोल उतार क़े सौंप दिया,

और रूह बचा ली।

पूरे-का-पूरा आकाश घुमा कर अब तुम देखो बाज़ी।

वक्त को आते न जाते

वक्त को आते न जाते न गुजऱते देखा!

वक़्त को आते न जाते न गुजरते देखा,

न उतरते हुए देखा कभी इलहाम की सूरत,

जमा होते हुए एक जगह मगर देखा है।

शायद आया था वो ख़्वाब से दबे पांव ही,

और जब आया ख़्यालों को एहसास न था।

आँख का रंग तुलु होते हुए देखा जिस दिन,

मैंने चूमा था मगर वक़्त को पहचाना न था।

चंद तुतलाते हुए बोलों में आहट सुनी,

दूध का दांत गिरा था तो भी वहां देखा,

बोस्की बेटी मेरी ,चिकनी-सी रेशम की डली,

लिपटी लिपटाई हुई रेशम के तागों में पड़ी थी।

मुझे एहसास ही नहीं था कि वहां वक़्त पड़ा है।

पालना खोल के जब मैंने उतारा था उसे बिस्तर पर,

लोरी के बोलों से एक बार छुआ था उसको,

बढ़ते नाखूनों में हर बार तराशा भी था।

चूडिय़ाँ चढ़ती-उतरती थीं कलाई पे मुसलसल,

और हाथों से उतरती कभी चढ़ती थी किताबें,

मुझको मालूम नहीं था कि वहां वक़्त लिखा है।

वक़्त को आते न जाते न गुजऱते देखा,

जमा होते हुए देखा मगर उसको मैंने,

इस बरस बोस्की अठारह बरस की होगी।

raghvendra

raghvendra

राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

Next Story