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कविता, मट्टी का मोह: कली के रूप में जीते समय, देखा करती थी ख्वाब
मट्टी का मोह
कली के रूप में जीते समय
देखा करती थी ख्वाब
मैं भी बनूँगी फूल
एक दिन
लेकिन पता भी न चला
कि कब
डाल से टूटकर
मिट्टी में मिल गयी?
अब तो विवशता का साम्राज्य है
सो,
बदन की धूल को झाड़ कर
हँसने का प्रयत्न कर रही हूँ
भय था -
अगर आँसू बहाया
तो कीचड़ में सन जाऊँगी
लेकिन आज आंखें खुली हैं -
फूल का अवसान
जीवनदान भी तो होता है फूल ही के लिए?
यही सोचकर
मिट्टी के साथ इस कदर
मोह हो गया है।
- रूपा धीरू
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