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कविता, मट्टी का मोह: कली के रूप में जीते समय, देखा करती थी ख्वाब

raghvendra
Published on: 8 Dec 2017 10:45 AM
कविता, मट्टी का मोह: कली के रूप में जीते समय, देखा करती थी ख्वाब
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मट्टी का मोह

कली के रूप में जीते समय

देखा करती थी ख्वाब

मैं भी बनूँगी फूल

एक दिन

लेकिन पता भी न चला

कि कब

डाल से टूटकर

मिट्टी में मिल गयी?

अब तो विवशता का साम्राज्य है

सो,

बदन की धूल को झाड़ कर

हँसने का प्रयत्न कर रही हूँ

भय था -

अगर आँसू बहाया

तो कीचड़ में सन जाऊँगी

लेकिन आज आंखें खुली हैं -

फूल का अवसान

जीवनदान भी तो होता है फूल ही के लिए?

यही सोचकर

मिट्टी के साथ इस कदर

मोह हो गया है।

- रूपा धीरू

raghvendra

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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