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कविता: गुलों में रंग भरे, बादे-नौबहार चले
फैज़ अहमद फैज़
गुलों में रंग भरे, बादे-नौबहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले
कफ़़स उदास है यारो, सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहरे-ख़ुदा आज जिक़्रे-यार चले
कभी तो सुब्ह तेरे कुंजे-लब से हो आग़ाज़
कभी तो शब सरे-काकुल से मुश्के-बार चले
बड़ा है दर्द का रिश्ता, ये दिल गऱीब सही
तुम्हारे नाम पे आएँगे ग़मगुसार चले
जो हम पे गुजऱी सो गुजऱी मगर शबे-हिज्राँ
हमारे अश्क तेरी आक़बत सँवार चले
हुज़ूरे-यार हुई दफ़्तरे-जुनूँ की तलब
गिरह में लेके गरेबाँ का तार तार चले
मकाम फैज़ कोई राह में जचा ही नहीं
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले
नौहा
मुझको शिकवा है मेरे भाई कि तुम जाते हुए
ले गए साथ मेरी उम्रे-गुजि़श्ता की किताब
उसमें तो मेरी बहुत क़ीमती तस्वीरें थीं
उसमें बचपन था मेरा, और मेरा अहदे-शबाब
उसके बदले मुझे तुम दे गए जाते-जाते
अपने ग़म का यह् दमकता हुआ ख़ूँ-रंग गुलाब
क्या करूँ भाई, ये एज़ाज़ मैं क्यूँ कर पहनूँ
मुझसे ले लो मेरी सब चाक क़मीज़ों का हिसाब
आखिरी बार है लो मान लो इक ये भी सवाल
आज तक तुमसे मैं लौटा नहीं मायूसे-जवाब
आके ले जाओ तुम अपना ये दहकता हुआ फूल
मुझको लौटा दो मेरी उम्रे-गुजि़श्ता की किताब
तेरी उम्मीद तेरा इंतज़ार जब से है
तेरी उम्मीद तेरा इंतज़ार जब से है
न शब को दिन से शिकायत न दिन को शब से है
किसी का दर्द हो करते हैं तेरे नाम रक़म
गिला है जो भी किसी से तेरे सबब से है
हुआ है जब से दिल-ए-नासुबूर बेक़ाबू
कलाम तुझसे नजऱ को बड़े अदब से है
अगर शरर है तो भडक़े, जो फूल है तो खिले
तरह तरह की तलब तेरे रंगे-लब से है
कहाँ गए शबे-फ़ुरक़त के जागनेवाले
सितारा-ए-सहरी हमक़लाम कब से है