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कविता: आशा, आ! आह ! से निकलती, अकुलाई आशा दूर है कहीं

raghvendra
Published on: 5 Oct 2018 1:07 PM GMT
कविता: आशा, आ! आह ! से निकलती, अकुलाई आशा दूर है कहीं
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सुरभि सप्रू

आ! आह ! से निकलती

अकुलाई आशा दूर है कहीं

चौमासा के मास में भीगने से

डरती है बहुत।

लगता है छुप गई है

सेहुंड से भरे कोने में

भीतर कहीं दग्ध पंखुडिय़ों के

छुप गई है अपूर्ण आशा

जितनी जीवित है

बेकल है उतनी ही

खिन्नचित्त है..

वो छिली हुई आशा..

व्यस्त रेत में घुले कणों को

सिलती हुई टूटी भाषा

में धंस गई है आशा...

समय को भूलकर

पीछे फिसलती, कांटों से

चीख-चीखकर कहती आशा

‘आशा’ से हो गई हूँ ‘आह’ शा...

raghvendra

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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