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कविता: पर्वत की व्यथा-एक पर्वत खड़ा चुपचाप, आप ही जलता मन में लेकर संताप

raghvendra
Published on: 15 Dec 2017 11:28 AM
कविता: पर्वत की व्यथा-एक पर्वत खड़ा चुपचाप, आप ही जलता मन में लेकर संताप
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नमिता दुबे

पर्वत की व्यथा

एक पर्वत खड़ा चुपचाप

आप ही जलता मन में लेकर संताप

मैंने पुछा-क्यों हो तुम चिंतित निशब्द?

लगता है जैसे बैठे हो कोसने अपना प्रारब्ध

वह बोला उदास मन से - लगता है जैसे

मानव को अब नहीं है मेरी जरूरत

वह जा पहुंचा है मंगल पर,

क्यों देखे अब मेरे घाव

सोचा था वरदान पाकर सेवा करूंगा जन-जन की,

क्या पता था परहित में, मै ‘पर’ से ही लूटा जाउंगा

प्रकृति ही जीवन हे, यह जान वह झल्लाया

ईश्वर ने जो दिया उसे उपहार पाकर बौराया

मानव भस्मासुर बनकर सारी बातें भूल गया,

अपने आशियाने के लिये, मुझे ही उजाड़ दिया

मेरी सुन्दरता को निहारते थे लाखों सैलानी

अब यहाँ पड़े कचरे को देख दे गए मुझे वीरानी

हे मानव! जान जरा तू मेरा मोल

यूँ ना उजाड़ यह तोहफा अनमोल

नहीं मिलेगी नदिया, लकड़ी, औषधि ऊर्जा

न मिलेंगे पर्यटन के खुबसूरत नजारे, और वर्षा

भले पहुचो तुम चाँद या मंगल

ओर बना लो अनेक उपग्रह

जिस प्रकृति ने तुम्हे प्रगति दी है

अब तो समझो तुम उसका मोल॥

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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