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कविता: अपनेपन का मतवाला- अपनेपन का मतवाला था भीड़ों में भी मैं 

raghvendra
Published on: 8 Dec 2017 4:40 PM IST
कविता: अपनेपन का मतवाला- अपनेपन का मतवाला था भीड़ों में भी मैं 
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अपनेपन का मतवाला

अपनेपन का मतवाला था भीड़ों में भी मैं

खो न सका

चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता

मैं हो न सका

देखा जग ने टोपी बदली

तो मन बदला, महिमा बदली

पर ध्वजा बदलने से न यहाँ

मन-मंदिर की प्रतिमा बदली

मेरे नयनों का श्याम रंग जीवन भर कोई

धो न सका

चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता

मैं हो न सका

हड़ताल, जुलूस, सभा, भाषण

चल दिए तमाशे बन-बनके

पलकों की शीतल छाया में

मैं पुन: चला मन का बन के

जो चाहा करता चला सदा प्रस्तावों को मैं

ढो न सका

चाहे जिस दल में मैं जाऊँ इतना सस्ता

मैं हो न सका

दीवारों के प्रस्तावक थे

पर दीवारों से घिरते थे

व्यापारी की जंजीरों से

आजाद बने वे फिरते थे

ऐसों से घिरा जनम भर मैं सुखशय्या पर भी

सो न सका

चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता

मैं हो न सका

- गोपाल सिंह नेपाली

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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