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कविता: दिन गाढ़े के आए, अगहन बीता बहुत सुभीता, पूस माघ मुंह बाये
रविशंकर पांडेय
दिन गाढ़े के आए
अगहन बीता बहुत सुभीता
पूस माघ मुंह बाये
दिन जाड़े के आये!
जूं न रेंगती रातों पर
दिन हिरन चौकड़ी जाता
पाले का मारा सूरज भी
दिन भर दांत बजाता,
धूप ललाई ज्यों भौजाई
लाज बदन पर छाये!
पड़े पुआलों पौ फट जाए
सझवट जमे मदरसों
दुपहरिया सोने सुगंध की
गांठ जोड़ती सरसों,
रात बितानी किस्सा कहानी
बैठ अलाव जलाये!
उठो! न पड़े गुजारा, दिन-
ठाकुर की चढ़ा अटारी
मरे किसानों की बैरी
इस जाड़े की महतारी
पठान छाप गाढ़े पर ही
महतो का जाड़ा जाये!
रामकहानी आगे अपनी
अब न बखानी जाये!!
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