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राजनीतिज्ञों की कठपुतली पुलिस

raghvendra
Published on: 5 Oct 2018 5:53 PM IST
राजनीतिज्ञों की कठपुतली पुलिस
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मदन मोहन शुक्ला

आजादी के 72 साल बाद भी भारतीय पुलिस का खाकी वर्दी वाला सिपाही सिर्फ भय और भ्रष्टाचार की एक भौंडी तस्वीर है। उस पर कोई विश्वास नहीं करता, कोई उससे दोस्ती नहीं करता और वो दिमागी स्तर पर रुग्ण और कुंद लगता है। जलालत की जिन्दगी जीता है और दूसरों को जलील करने में मजा लेने का आदी हो जाता है। फ्रांसीसी पुलिस के बारे में (फ्रेंच हैंड बुक ऑफ पुलिस) में लिखा है कि पुलिस के अलावा और कोई संस्थान ऐसा नहीं है जो जनमन में इतना अविश्वास, विद्वेष और वास्तविक घृणा जगाता हो। आश्चर्य नहीं कि भारतीय पुलिस पर भी यह बात सौ फीसदी लागू होती है।

1861 का पुलिस अधिनियम आज भी हमारे पुलिस सिस्टम को नियंत्रित करता है। पुलिस की औपनिवेशिक मानसिकता ब्रिटिश भारत में जो थी, पुलिस के प्रति जनता में जो अविश्वास था, वह सब आज भी जारी है। भारत में पुलिस हमेशा से सत्तारूढ़ दल के राजनीतिक नियंत्रण में रहती आई है। 21वीं शताब्दी की इस पुलिस की छवि 1902-03 की फ्रेजर कमीशन की रिपोर्ट से हूबहू आज भी है। ये बेहद दुर्भाग्य की बात है। इसी संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पुलिस सुधार के लिए 22 सितम्बर 2006 को दिया गया ऐतिहासिक निर्णय महत्वपूर्ण है। कोर्ट ने केन्द्र और राज्य सरकारों को पुलिस सुधारों को शुरू करने के लिये व्यावहारिक तन्त्र बनाने के साथ अन्य निर्देशों का अनुपालन करने को कहा था। कोर्ट का कहना था कि ‘पुलिस बल कुशलता से बहुत दूर है और यह प्रशिक्षण व संगठन में दोषपूर्ण है। यह अपर्याप्त रूप में पर्यवेक्षित है, इसे आम तौर पर भ्रष्ट और दमनकारी माना जाता है। यह लोगों के आत्म विश्वास और सौहाद्र्रपूर्ण सहयोग को सुरक्षित करने में पूरी तरह असफल रहा है।’

12 अप्रैल 2013 को सर्वोच्च न्यायालय ने फिर से राज्यों और केन्द्र सरकार से पुलिस सुधार के संदर्भ में दिये गये निर्देशों के अनुपालन की स्टेटस रिपोर्ट प्रस्तुत करने को कहा। जस्टिस जी.एस. सिन्घवी और कूरियन जोसेफ की पीठ ने कहा ‘पुलिस के कामकाज और दृष्टिकोण में सुधार करने के बजाए हमने जो देखा वह इन 7 वर्षों में बद से बदतर है। प्रत्येक विधायक, सर्किल इन्स्पेक्टर और सब इंस्पेक्टरों को अपनी पसंद के हिसाब से पोस्ट करने की मांग करता है। जाति निष्ठा, रिश्वत की राशि, विधायक के समुदाय के प्रति दृष्टिकोण और लचीलापन वे मानक हैं जो एक पुलिस कर्मी की पात्रता निर्धारित करते हैं।’

वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को सत्तारूढ़ दल की जरूरतों की पूर्ति के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। कुछ मामलों की धीमी जांच इसका ज्वलंत उदाहरण हैं। उन्नाव के भारतीय जनता पार्टी के विधायक कुलदीप सेंगर दुष्कर्म मामले को स्थानीय पुलिस ने 9 महीने तक दबाए रखा। विधायक के निर्देशों का पालन करते हुए पीडि़ता एवं उसके परिवार को प्रताडि़त किया जाता रहा। पीडि़ता के पिता की पुलिस हिरासत में मौत के बाद पीडि़ता ने मुख्यमंत्री आवास के सामने आत्मदाह का प्रयास किया तब जा कर स्थानीय पुलिस एफआईआर दर्ज कर कार्रवाई शुरू करती है। उसके बाद भी जांच को प्रभावित किया जाता रहा।

इसके अलावा कुछ मामलों में राजनेता अपने विरोधियों को ठिकाने लगाने का काम पुलिस मुठभेड़ की शक्ल में करते हैं। फर्जी मामले भी दर्ज किए जाते हैं। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान के पूर्व वैज्ञानिक नांबी नाराणन को जासूसी के आरोप से बरी किया। 1994 में केरल पुलिस ने नांबी नारायण को गिरफ्तार किया था। इस वैज्ञानिक को 24 वर्ष की लम्बी लड़ाई लडऩी पड़ी। कोर्ट ने इस मामले में पुलिस अधिकारियों की संलिप्तता की जांच के लिये न्यायाधीश डी$के. जैन की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय जांच समिति गठित की है।

इसी तरह छत्तीसगढ़ पुलिस राजनीतिक आकाओं की शह पर फर्जी मामले बनाकर विरोधियों को जेल में डालती रही है। इस सरकार को वो लोग अखरते हैं जो पिछले काफी समय से आदिवासियों के पक्ष में आवाज उठाते हैं और आदिवासियों के शोषण का विरोध करते है। इस तरह की आवाजों को पुलिस की नजर से दबाने की कोशिश की जाती है। यह एक छोटी सी नजीर है। पुलिस के कारनामों की ऐसी स्थितियां सभी प्रदेशों में हैं।

अब सवाल उठता है पुलिस की दक्षता का। यह तो कतई नहीं कहा जा सकता कि हमारे देश की पुलिस कार्यकुशल है। पुलिस और जांच कर्ता के सामने और भी कठिनाईयां हैं। सबसे बड़ी कठिनाई राजनीतिक दखलंदाजी की है जिसके उदाहरण अक्सर आया करते हैं। इसी वजह से आम जन में पुलिस के प्रति अविश्वास है। पुलिस को कोई अपनी संतान नहीं मानता। लेकिन उसके बिना सरकार का काम नहीं चल सकता। लेकिन इन सबके बावजूद उसको कोई खास तरजीह नहीं दी गई। ऐसा नहीं है कि भारतीय राजनीति के कर्णधारों को इसका इल्म नही है। समय समय पर पुलिस आयोग और कमेटियां गठित होती रहती हैं लेकिन बार बार उनके सुझावों को रद्दी की टोकरी में फेंका जाता है। और बाध्य किया जाता रहा है पुलिस तंत्र राजनीतिज्ञो की कठपुतली बनकर रहे।

पुलिस को जवाबदेह बनाने, उसमें नैतिक साहस, हिम्मत और आत्म विश्वास बनाये रखने के लिय उनकी सेवा शर्तों में परिवर्तन किया जाना चाहिए। जो उनकी मूलभूत समस्याएं हैं जैसे कि आवास, काम के घंटे, खाने पीने की व्यवस्था आदि, इसका त्वरित निराकरण जरूरी है। इसके लिए पुलिस के उच्च अधिकारियों को इनके दर्द को समझते हुए उसका हल निकालना चाहिए। अपराधों को रोकने, अपराधों की जांच करने, अपराधियों को दण्ड देने, अपनी विश्वसनीयता बढ़ाने में उच्च अधिकारियों को सहयोग करना चाहिए। ऐसा न हो कि बहुत देर हो जाए, क्योंकि जनता के बर्दाश्त की भी एक सीमा होती है।



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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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