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सियासत की जंग: गहरे पैठ गई है वंशवाद की राजनीति
नई दिल्ली: भारतीय राजनीति में वंशवाद अब लगभग सभी दलों में धर कर गया है। पहले जहां आलोचना के बावजूद वंशवाद नेहरू गांधी परिवार का अचूक हथियार माना जाता था, आज वामपंथियों को छोड़ लगभग सभी दलों ने इसे बेझिझक अपना कर एक नई प्रथा सी कायम कर दी है। देश की आजादी के बाद वंशवाद को बढ़ाने का आरोप सबसे पहले नेहरू गांधी परिवार पर लगा क्योंकि इसके तीन सदस्य, जवाहर लाल नेहरू, बेटी इंदिरा गांधी और इंदिरा के बेटे राजीव गांधी, देश के प्रधानमंत्री रह चुके हैं। आज राजीव के बेटे राहुल गांधी, कांग्रेस की इस परंपरा को आगे बढ़ाने की कोशिश में जी जान से जुटे हैं वहीं बहन प्रियंका भी भाई का साथ देने मैदान में कूद पड़ी हैं।
नेहरू गांधी के बाद जम्मू और कश्मीर के दिवंगत मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला के खानदान का नाम भी वंशवाद को लेकर बहुत आगे है। यहां उनके बेटे फारुख अब्दुल्ला और पोते उमर, दोनों राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। उसी तरह जैसे पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के मुफ्ती मुहम्मद सईद और उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती।
मुलायम और लालू का कुनबा
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव और उनके बेटे अखिलेश यादव भी इसी वंशवाद के उदाहरण हैं। मुलायम सिंह अपने आधे से ज्यादा रिश्तेदारों को राजनीति में ले आए वहीं उनके पुत्र अखिलेश ने भी अपनी पत्नी डिंपल यादव को फिर से कन्नौज लोकसभा क्षेत्र का प्रत्याशी घोषित कर दिया है। अगर यूपी में मुलायम और अखिलेश वंशवाद आगे बढ़ाने में आगे रहे, तो बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव पीछे नहीं रहे।
इसका प्रमाण उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बना कर दिया था। उस समय 1997 में लालू जेल जाने की तैयारी में थे। पत्नी को सीएम ही नहीं बल्कि अपने बेटे तेजप्रताप और तेजस्वी को भी बिहार में मंत्री और उप मुख्यमंत्री बनवा दिया। कुछ कसर जो बाकी थी वह लालू ने बेटी मीसा को 2016 में राज्यसभा का सदस्य बना कर पूरी कर दी।
भाजपा में भी वही हाल
भाजपा में भी वंशवाद घुस चुका है। कर्नाटक में अगर पार्टी के पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा ने अपने बेटे राघवेंद्र को सफलतापूर्व सांसद बनाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया था, वहीं मोदी सरकार में मंत्री रहीं मेनका गांधी ने अपने बेटे वरुण को राजनीति में लाने में देर नहीं की।
जेडी एस यानी खानदानी पार्टी
वंशवाद को पोषण देने में यूपी बिहार के तादव नेताओं के बाद कर्नाटक का नंबर आता है। यहां पूर्व प्रधानमंत्री और जनता दल सेकुलर के अध्यक्ष देवेगौड़ा ने अपने कुनबे को खूब आगे बढ़ाया। हाल ही में जब देवगौड़ा ने अपने दो पोतों को राजनीति में उतारने की घोषणा की तो कर्नाटक में लोगों को कोई आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि यहां जनता दल सेकुलर को एक पारिवारिक पार्टी के नाम से ही जाना जाता है।
देवेगौड़ा ने अपने पोते निखिल को मांड्या और प्रज्वल को हासन लोकसभा चुनाव क्षेत्रों का प्रत्याशी घोषित किया है। यहीं नहीं देवेगौड़ा ने पब्लिक मीटिंग में आंसू बहा कर अपने पोतों को जिताने की अपील की। एक तरफ देवेगौड़ा के छोटे बेटे कुमारस्वामी राज्य में मुख्यमंत्री पद संभाले हुए हैं वहीं कुमारस्वामी के बड़े भाई और प्रज्वल के पिता रेवन्ना लोक निर्माण विभाग के मंत्री हैं। कुमारस्वामी ने परिवारवाद की प्रथा को एक कदम और बढ़ाते हुये अपने तीसरे भाई के ससुर डी.सी. तमन्ना को भी राज्य के परिवहन विभाग की बागडोर थमा दी है। इस परिवार की बहुएं भी आज महत्वपूर्ण पदों पर हैं।
कोई पार्टी नहीं चूक रही
डीएमके, एनसीपी, लोकदल, नेशनल कॉन्फ्रेंस और तेलंगाना राष्ट्रीय समिति के मुखिया परिवारवाद के मामले में पीछे नहीं हैं। तमिलनाडु के दिवंगत मुख्यमंत्री करुणानिधि के बेटे स्टालिन के हाथ में डीएमके की कमान है। एनसीपी के अध्यक्ष शरद पवार अपनी पुत्री सुप्रिया सुले को लोकसभा सदस्य बना चुके हैं। तेलंगाना में टीआरएस के प्रमुख और राज्य के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव ने अपने परिवार की देखभाल में कमी नहीं छोड़ी है। उनका बेटा रामा राव उन्हीं की सरकार में मंत्री है। बेटी कविता निजामाबाद से पिछली बार लोकसभा चुनाव जीत चुकी है।