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पॉलीथीन के सामने कानून बेबस क्यों?

raghvendra
Published on: 3 Aug 2018 11:44 AM GMT
पॉलीथीन के सामने कानून बेबस क्यों?
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मदन मोहन शुक्ला

पॉलीथीन आपको हर जगह मिल जायेगी। सडक़ों के किनारे बिखरी हुई, हवा में उड़ती हुई, तालाबों, पोखरों में तैरती हुई, नालियों में फॅंसी हुई, जालियों में अटकी इुई, तारों में उलझी हुई। जहां तक हमारी नजर जाती है पॉलीथीन की थैलियां उससे आगे तक असर दिखाती हैं। कुछ साल पहले उत्तर भारत के एक चिडिय़ाघर का दरियाई घोड़ा अचानक मर गया। उसका जब पोस्ट मार्टम हुआ तब पता चला कि उसके पेट में दो किलो से ज्यादा पॉलीथीन की थैलियां जमा थीं। कई अनुमान बताते हैं कि हर साल 20 लाख से ज्यादा पशु पक्षी और मछलियां पॉलीथीन थैलियों के चलते जान गंवा देती हैं। यह थैलियां पहाड़ों की ऊंची चोटियों से लेकर गहराई से होते हुए बस्तियों में बहने वाली नालियों एवं नहरों का बहाव रोक देती हैं। प्लास्टिक की इन थैलियों की खलनायकी के ऐसे न जाने कितने किस्से हैं जिन्हें हम पिछले दो दशक में इतना ज्यादा सुन चुके हैं। प्लास्टिक अब हमें बंधुआ मजदूरी, बाल श्रम और दहेज प्रथा जैसी किसी सामाजिक बुराई की तरह लगने लगी है। ऐसी चीज जिन्हें हम बुरा तो मानते हैं लेकिन एक हकीकत के रूप में स्वीकार भी कर लेते हैं।

सरकारें भी इनके साथ वही सलूक करती है जैसा कि बंधुआ मजदूरी, बाल श्रम और दहेज प्रथा के साथ किया गया है। सरकारें कानून बनाती हैं और बस काम खत्म। पॉलीथीन की थैलियों पर देश के ज्यादातर राज्यों में पाबन्दी लग गई है लेकिन पॉलीथीन पीछा छोडऩे को तैयार नहीं है। या यूं कहिए कि उससे पीछा छुड़ाने में कोई रुचि नहीं है।

वल्र्ड इकनॉमिक फोरम के अनुसार भारत में हर साल 56 लाख टन प्लास्टिक कूड़ा पैदा होता है। दुनियाभर में जितना कूड़ा हर साल समुद्र में बहाया जाता है उसका साठ फीसदी भारत डम्प करता है। अगर उत्तर प्रदेश की बात की जाए तो यहां हर साल 152492 टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न होता है। स्थिति यह है कि पिछले 10 वर्ष में हम इतनी प्लास्टिक बना चुके हैं जितनी उससे पहले कभी नहीं बनी थी, आज स्थिति यह है कि समुद्र से लेकर वायु तक हर जगह इसी का बोलबाला है। करीब 06 अरब किलो कूड़ा हर साल समुद्र में फेंका जाता है इसमें अधिकतर प्लास्टिक होती है। भारत में हर साल प्रत्येक व्यक्ति द्वारा 9.7 किलो प्लास्टिक उपयोग में लाया जाता है जबकि इससे इतर अमेरिका में प्रति व्यक्ति खपत 109 किलो है। यह जानकर आश्चर्य होगा कि विश्व में रवान्डा (अफ्रीकी देश) में प्लास्टिक पूरी तरह प्रतिबंधित है। हर साल दुनिया में 500 खरब प्लास्टिक बैग प्रयोग होते हैं यानी हर मिनट 20 लाख बैग। पॉलीथीन ग्लोबल वार्मिंग का भी प्रमुख कारण है। इसको जलाने से निकलने वाला धुंए में कार्बन मोनोआक्साइड और कार्बन डाई आक्साइड होता है जो ओजोन परत को नुकसान तो पहुंचाता ही है, साथ-साथ सेहत के लिये भी घातक होता है। इससे होने वाली बीमारियों में कैंसर, चर्म रोग, फेफड़े से संबंधित बीमारियां शामिल हैं।

भारत में हिमाचल प्रदेश ने तो पिछली सदी (1999) में ही पॉलीथीन पर पाबन्दी लगाने का सिलसिला शुरू कर दिया था। लेकिन अब भी इन थैलियों से पूरी तरह मुक्ति नहीं मिली है। ऐसा क्या है इन पॉलीथीन में कि कानून भी इनके सामने बेबस है? अब यूपी ने पॉलीथीन पर प्रतिबंध की घोषणा की है। राज्य सरकार ने 50 माइक्रॉन तक की पॉलीथीन रखना - बेचना दंडनीय अपराध करार दिया है। वैसे, यूपी में इससे पहले 2015 व 2016 और उससे पहले सन 2000 में भी पॉलीथीन के खिलाफ कड़े कानून बनाए गए थे लेकिन कुछ समय की सख्ती के बाद सरकार शिथिल हो गई नतीजा हमारे सामने है। अब एक बार फिर सरकार सक्रिय दिख रही है जहां हम सबका सहयोग अपेक्षित है।

पॉलीथीन की थैलियों को खलनायक बनाने की कोशिशों का नुकसान यह हुआ कि हमने इनकी खूबियों पर बात करनी बन्द कर दी। यह थैलियां इंजीनियरिंग व औद्यौगिक अर्थशास्त्र की सफलता का एक बहुत अच्छा उदाहरण हैं। अगर इसके इतिहास को खगाला जाये तो पॉलीथीन दुनिया का सबसे लोकप्रिय प्लास्टिक है जिसकी खोज सबसे पहले जर्मनी के मिस्टर हैन्स वोन पेन्चमान ने 1898 में की। उन्होंने प्रयोग करते वक्त सफेद रंग के मोम जैसे पदार्थ को बनते देखा और उसका नाम रखा पॉलीथीन। औद्यौगिक रूप से पॉलीथीन का आविष्कार 1935 में इग्लैंड के ऐरिक फोसेट और रेगीनाल्ड गिब्सन द्वारा एक प्रयोग के दौरान हो गया जब वे एथीलीन बेन्जलडी हाइड के मिश्रण पर भारी प्रेशर पर होने वाले बदलाव का अध्ययन कर रहे थे तभी इसकी उत्पत्ति हुई।

प्लास्टिक शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के प्लास्तिकोज शब्द से हुई जिसका अर्थ है बनाना। शुरू-शुरू में जब यह थैली बाजार में आयी तो लोगों को सहज विश्वास ही नहीं हुआ कि यह पतली सी झिल्ली जैसी थैली इतना ज्यादा भार भी ढो सकती है। तकनीक का कमाल सिर्फ यहीं तक नहीं रहा लगातार प्रगति करते हुए इन्हें और ज्यादा सस्ता बनाया। 1980 के दशक की शुरूआत में उस समय लोगों को सुखद आश्चर्य हुआ था जब बाजार में पॉलीथीन की थैलियॉ कागज की थैलियों से भी सस्ती हो गई थी। उस समय समझा गया कि वनों, पेड़ों को बचाने के लिए पॉलीथीन बहुत अच्छा विकल्प है। चूंकि कागज बनाने में पेड़ों का उपयोग होता है सो तर्क आसान था कि काग को जब पॉलीथीन रिप्लेस कर लेगी तो पेड़ अपने आप बच जाएंगे। बहरहाल, कागज का इस्तेमाल भले ही कम हुआ हो लेकिन पेड़ तो बच नहीं सके, पॉलीथीन रूपी दानव जरूर खड़ा हो गया।

उपभोक्तावाद के विस्तार के साथ पॉलीथीन और प्लास्टिक का विस्तार भी जबर्दस्त ढंग से हुआ है। वैसे तो पॉलीथीन का उपयोगी जीवन बहुत छोटा होता है, एक घंटे से लेकर एक महीने तक का। लेकिन कूड़े के रूप में इसका जीवन बहुत लम्बा है, शायद अनन्त। वैज्ञानिकों का आकलन है कि प्लास्टिक 1000 साल तक नष्ट नहीं होता। उपयोगिता और अनुपयोगिता के काल का यह अंतर ही इसकी सबसे बड़ी समस्या है। इस लिहाज से हो सकता है कि कुछ समय बाद इस धरती पर जीव जगत से ज्यादा बड़ा पॉलीथीन जगत ही न हो जाए इसीलिये इससे मुक्ति भी जरूरी है। लेकिन पाबन्दी इस मुक्ति का रास्ता नहीं है। कम से कम अकेले पाबन्दी के बल पर तो हम इससे मुक्त नहीं हो सकते। हमारे पास दो ही रास्ते हैं या तो हम लौट जाएं उस दौर में जब पॉलीथीन की थैलियॉ नहीं थीं या हम इसे मात देने के लिये उस तकनीक और बाजार का सहारा लें जिसने पॉलीथीन को इतना अहम बना दिया है। यह दोनों ही काम पाबन्दी से नहीं हो सकते। पाबन्दी पहला कदम हो सकती लेकिन उसमें सफल होने के बाद उससे आगे जाकर सोचना होगा। यह मामला सिर्फ पॉलीथीन का नहीं है, पर्यावरण बदलाव की पूरी लड़ाई जब तक हम सरकार और पाबंदियों के भरोसे ही लड़ेंगे तो शायद कहीं नहीं पहुंचेंगे। इसमें कोशिश एक नया भविष्य देने की होनी चाहिये लोगों को अतीत में ले जाने की नहीं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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